युद्ध के लाभ और हानि हिंदी निबंध. Yuddh ke Labh aur Hani Hindi Nibandh. युद्ध मानव-समाज का सर्वनाश करने वाली विभीषिका है। इसी कारण अनादिकाल से युद्ध और शान्ति का प्रश्न मानवता के सामने खड़ा चला आ रहा है। तभी से इस पर विचार भी होता आ रहा है। पर इसका सन्तोषजनक उत्तर आज तक नदारद है। पक्ष-विपक्ष में विचारों तक ही मानव सीमित होकर रह गया है। विचार-विरोध के बावजूद भी मानवता भयावह युद्धों का सामना करती आ रही है। विचार और समस्या का फिर भी कोई समाधान नहीं। युद्धों को विनाशक मानते हुए भी मानवता निरन्तर युद्धों में व्यस्त होकर विनष्ट हो रही है।
युद्ध के लाभ और हानि हिंदी निबंध
Yuddh ke Labh aur Hani Hindi Nibandh
युद्ध मानव-समाज का सर्वनाश करने वाली विभीषिका है। इसी कारण
अनादिकाल से युद्ध और शान्ति का प्रश्न मानवता के सामने खड़ा चला आ रहा
है। तभी से इस पर विचार भी होता आ रहा है। पर इसका सन्तोषजनक उत्तर आज तक नदारद
है। पक्ष-विपक्ष में विचारों तक ही मानव सीमित होकर रह गया है। विचार-विरोध के
बावजूद भी मानवता भयावह युद्धों का सामना करती आ रही है। विचार और समस्या का फिर
भी कोई समाधान नहीं। युद्धों को विनाशक मानते हुए भी मानवता निरन्तर युद्धों में
व्यस्त होकर विनष्ट हो रही है।
कुरुक्षेत्र का मैदान। इधर पाण्डवों की ग्यारह अक्षौहिणी सेना और उधर
कौरवों की अठारह अक्षौहिणी। युद्ध के शंख बजने ही वाले थे: तीर, तलवार और भाले टकराने ही वाले थे कि सहसा अर्जुन ने अपने शस्त्र फेंक
दिये और कहा-"कृष्णः अपने बन्धुओं का रक्तपात मुझे पसन्द नहीं, अतः में युद्ध नहीं करूंगा।" द्वापर युग की सबसे महान विभूति
कृष्ण ने कहा-“अर्जुन, तुम्हें धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश के लिए युद्ध करना ही होगा।
उठाओ शस्त्र और युद्ध करो।”
ऐसे युद्ध का कौन न वरण करेगा, जिसमें योद्धा के हाथ में तो लहू से सनी तलवार हो, किन्तु हृदय में उमड रही हो धर्म-रक्षा की भावना । इसलिए श्री कृष्ण
ने ऐसे युद्ध की‘धर्मयुद्ध’ कहा। ऐसे युद्धों से विश्व-कल्याण होता है, धर्म की रक्षा होती है, न्याय की विजय होती है। इससे दुष्टों का दमन होता है और सज्जनों का
कल्याण। फिर सच्चे क्षत्रिय ऐसे युद्ध का आह्यान क्यों न करें? मध्य युग तक युद्धों के प्रति ऐसी ही भावना रही, पर विचारणीय तथ्य यह है कि युद्ध को धर्म का नाम देकर लड़ने पर भी
क्या धर्म –रक्षा सम्भव हो सकी? अनुभव बताता है कि कतई नहीं।
ऐसे ही धर्मयुद्ध का आह्वान त्रेता युग में श्री राम ने किया था, जो स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तमथे। स्वयं ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें
शस्त्र देकर यज्ञ का ध्वंस करने वाले राक्षसों से युद्धकरने की आज्ञा दी थी।
वस्तुतः ऐसे युद्ध मानव-जाति के लिए वरदान हैं। इनके नियम हैं, समय हैं. और आदर्श हैं। ऐसे ही युद्धों ने साहित्य को रामायण, महाभारत, इलियड, ओडेसी जैसे महाकाव्य दिये। इसके विपरीत ऐसे भी हुआ कि कलिंग-युद्ध ने
सम्राट अशोक में अहिंसा की चेतना जगा दी। युद्धों से उसे हमेशा के लिए विरत कर
दिया। मानवता के सामने प्रश्न भी उठाया कि क्या युद्ध वास्तव में धर्म अथवा एक
प्रकार की अनिवार्यता है? गम्भीर दृष्टि और विचार, युद्ध को धर्म और अनिवार्यता न मान एक प्रकार का उन्माद ही मानता है।
एक दृष्टि से आधुनिक युग के युद्ध भी शत-प्रतिशत अभिशाप नहीं।
पैन्सलिन जैसी औषधि, राडार, एक्स-रे, चीर-फाड़ द्वारा चिकित्सा तथा
अणुशक्ति का आविष्कार हुआ तो युद्ध के दिनों में। यदि टेलीफोन, बेतार का तार, वायुयान, समुद्री पोत आदि आविष्कारों का तेजी से विकास हुआ तो युद्ध-काल में ।
रेडक्रास जैसी कल्याणकारी संस्था की स्थापना हुई तो युद्ध की तोपों के मध्य में ही, युद्धग्रस्त पीड़ित मानवता की सेवा के लिए। इतने पर भी युद्ध लाभप्रद
ही है, यह नहीं कहा और स्वीकार किया जा सकता।
सच पूछो तो संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना का श्रेय भी युद्ध को ही
है, जिसने संसार के बिखरे राष्ट्रों को
एकता की लड़ी में पिरो दिया और अभी तक भयानक भावी युद्ध से मानवता को बचाया हुआ है।
युद्ध-सम्बन्धी ये अच्छाइयाँ वस्तुतः भ्रम मात्र हैं। अन्य कई बातों और आविष्कारों
के समान ये सभी आविष्कार युद्ध के बिना भी सम्भव हो सकते थे।
युद्ध का एक दूसरा पक्ष भी है और वही वस्तुतः विचारणीय है-संहारक
पक्ष। जो युद्ध राज्य विस्तार की आकांक्षा से किया जाता है, उससे स्वार्थ, लोभ, अत्याचार और हिंसा का प्रसार होता है। धर्मयुद्ध का नियम तो यह है कि
समान बल वाले को चुनौती दी जाय। किन्तु आजकल अपने से निर्बल राष्ट्र पर उसके
जाने-अनजाने प्रहार किया जाता है। बस, फिर मानव मानव के रुधिर का प्यासा बन जाता है। उचित-अनुचित का कोई
विचारन हीं रहता। निहत्थे नागरिकों, विद्यालयों, पुस्तकालयों, संग्रहालयों, शिशुओं, अनाथों और अबलाओं पर अंधाधुन्ध बम बरसाये जाते हैं। तड़पते मनुष्यों के
कान चीरकर गहने उतार लिये जाते हैं। इस प्रकार के युद्ध में मानव-सभ्यता और
संस्कृति का विनाश हो जाया करता है। इस प्रकार युद्ध नाश का कारण ही है, धर्म का रक्षक या अंग नहीं।
युद्ध की समाप्ति इससे भी भयंकर होती है। अनगिनत शवों के सड़ने से
हैजा, प्लेग, अतिसार तथा नये-नये घातक रोग फैल
जाते हैं। जो युद्ध में मारे गये, उनकी विधवाएँ
और अनाथ बच्चे केवल आँसू बहाने और आहें भरने के लिए जीवित रह जाते हैं। जो युद्ध से
बच गये, उनमें से कई महामारियों की भेंट हो
जाते हैं। युद्ध के बाद अर्थव्यवस्था, सामाजिक प्रबन्ध और राजनीतिक स्थिरता का अन्त हो जाता है। काम-धन्धे समाप्त हो जाते हैं। बेकारी बढ़ जाती है।
भ्रष्टाचार में वृद्धि होती है। ऐसे वातावरण में संगीत, काव्य, शिल्प और साहित्य आदि कलाओं की उन्नति
बीसियों वर्षों के लिए रुक जाती है। सभी प्रकार की प्रगतियाँ और विकास व्यर्थ होकर
रह जाते हैं।
युद्ध का सबसे बडा अभिशाप है, प्रतिहिंसा की भावना। हारा हुआ देश सदा बदला लेने के अवसर की
प्रतीक्षा में रहता है। ऐसा अवसर हाथ में आते ही वह आक्रमण करने से नहीं चकता। इससे
फिर युद्ध भड़क उठता है। इस प्रकार एक युद्ध दूसरे युद्ध का कारण बनता है, दूसरा तीसरे का और यह क्रम कभी समाप्त नहीं हो पाता। उसे समाप्त करने
केलिए युद्ध-भावना का नाश आवश्यक है।
युद्ध के अभिशापों और वरदानों को एक तुला पर रखने से युद्ध की
हानियों का पलड़ा इतना भारी हो जाता है कि लाभ नगण्य से लगते हैं। आज के परमाणु
अस्त्रों वाले युगमें युद्ध की कल्पना करते हुए भी हृदय काँप उठता है। न जाने वह
कौन-सा शुभ क्षण होगा जब मानव युद्ध को त्यागकर अपनी सारी शक्ति संस्कृति-निर्माण
में लगा देगा। इसलिए आज संसार के बड़े राष्ट्र निःशस्त्रीकरण के लिए प्रयत्नशील हो
रहे हैं। चारों ओर युद्ध के विरुद्ध स्वर मुखरित किया जा रहा है। शान्ति-क्षेत्रों
के विस्तार की योजनाएं चलरही हैं। शस्त्रास्त्र-प्रसार-विरोधी सन्धियों पर
हस्ताक्षर किये जा रहे हैं। कह नहीं सकते कि उनके प्रयत्न कहाँ तक सफल होंगे। यदि
सचमुच सफल हो गये तो मानव-जाति चैन की सांस ले सकेगी। अन्यथा सारी मानवता, उसकी समस्त उपलब्धियों का महानाश आवश्यक है। युद्ध को धर्म कहना, धर्म का महत्त्व घटाना है। वह राक्षसी कर्म के सिवाय और कुछनहीं।
उसका अन्त होना ही चाहिए।
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