Hindi Essay on “Bandhua Majduri”, “बंधुआ मजदूरी पर निबंध” बंधुआ शब्द 'बन्धक' शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है कोई अचल वस्तु किसी दूसरे के पास गिरवी रखकर बदले में कुछ धन या अनाज आदि वस्तु प्राप्त करना। पर लगता है, अब इस शब्द के अर्थ का काफी विस्तार हो गया है। यह अर्थ-विस्तार इस सीमा तक हुआ है कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अब यह शब्द जेवर, भूमि, घर-मकान या किसी अचल पदार्थ के गिरवी रखने का परिचायक न रहकर जीवित मनुष्यों के गिरवी रखने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। है न लोमहर्षक बात ! मानव-इतिहास के मध्यकाल में मनुष्यों को गुलाम बनाने, गुलामों का व्यापार करने की बातें, उन्हें भूखा-प्यासा रखकर दिन में पन्द्रह-सोलह घण्टे काम लेने जैसी बातें तो पढ़ने को मिलती हैं।
Hindi Essay on “Bandhua Majduri”, “बंधुआ मजदूरी पर निबंध”
बंधुआ शब्द 'बन्धक' शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है कोई अचल वस्तु किसी दूसरे के पास गिरवी रखकर बदले में कुछ धन या अनाज आदि वस्तु प्राप्त करना। पर लगता है, अब इस शब्द के अर्थ का काफी विस्तार हो गया है। यह अर्थ-विस्तार इस सीमा तक हुआ है कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अब यह शब्द जेवर, भूमि, घर-मकान या किसी अचल पदार्थ के गिरवी रखने का परिचायक न रहकर जीवित मनुष्यों के गिरवी रखने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। है न लोमहर्षक बात ! मानव-इतिहास के मध्यकाल में मनुष्यों को गुलाम बनाने, गुलामों का व्यापार करने की बातें, उन्हें भूखा-प्यासा रखकर दिन में पन्द्रह-सोलह घण्टे काम लेने जैसी बातें तो पढ़ने को मिलती हैं। पर आज बीसवीं सदी के आन्तिम चरणों में भी कि जब चारों ओर मानवाधिकारों की रक्षा का शोर है, मनुष्यों को गुलाम या बंधुआ बनाकर उन पर मनमाना अत्याचार करना निश्चय ही अचरज की बात है। वह भी भारत जैसे देश में, कि जिसके अतीत इतिहास में गुलाम रखने या बेचने का कहीं नाम तक नहीं मिलता। जिस भारत में मनुष्य में ईश्वर का निवास माना जाता है,मनुष्य को देव-तुल्य और श्रेष्ठ प्राणी माना जाता है; वहाँ भी बंधुआ मज़दूर जैसे शब्द!निश्चय ही इन शब्दों को सुन और वास्तविक स्थितियों को जान कर हमारा मस्तक शर्म से झुक जाता है।
मध्यकालीन सामन्ती युग के भारत में समर्थ लोग मनमाने ढंग से असमर्थ लोगों का श्रम खरीदा अवश्य करते थे, ऐसे लोगों के प्रति उनके मन में कोई सम्मानजनक मानवीय भाव भी नहीं रहा करता था। फिर भी श्रम का न्यूनाधिक मूल्य अवश्य चुकाया जाता था। वे लोग मालिक बनकर अपने आश्रितों का भरण-पोषण करना एक सीमा तक अपना दायित्व समझते थे। पर आज जिन्हें बंधुआ मज़दूर कहा जाता है, उन्हें बंधुआ बनाने वाले लोगों का उनके प्रति सम्पूर्ण व्यवहार पशुओं से भी गया-बीता हुआ होता है; यह तथ्य सभी जानकार समान रूप से स्वीकार करते है। मानवाधिकारों के प्रति सचेत आज के युग में ऐसा करना जघन्यतम अपराध और अन्याय नहीं है क्या?
वर्तमान प्राप्त रूप में, भारत में 'बँधुआ मज़दूरी' प्रथा का आरम्भ कब, कहाँ और किसके द्वारा हआ. यह ठीक प्रकार से कोई नहीं जानता। पर एकाएक एक दिन समाचार-पत्रों में बधुआ-मजदूर के अस्तित्व का समाचार पढ़कर सभी सहृदय एवं प्रगतिशील, मानवाधिकारों के प्रति सजग-सचेष्ट मानव चौंक अवश्य उठे। बात भी तो चौंक उठने वाली थी। बीसवीं शती के अन्तिम दशक तक पहुँचते-पहुँचते मानव-समाज ने हर दिशा में यथेष्ट प्रगति कर ली है। जल, थल, नभ सभी पर मानव की प्रगतिशीलता के चरण-चिह्न अंकित हो चुके हैं। फिर भी मानव-सभ्यता के अनेक जीवित अंग बन्धक या गुलाम बनकर अपना श्रम, अपना तन-मन और जीवन्त भावनाओं तक को बेचने के लिए विवश हैं; पशुओं से भी गया-बीता जीवन जीने की नियति भोग रहे हैं। नहीं, ऐसी स्थितियों में हमारी विविध प्रगतियों का,मानवाधिकार की बातों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। कहना होगा कि मानसिक स्तर परआज भी हमारी सभ्यता बर्बरकालीन और मध्यकालीन सामन्ती-परम्सरा में ही जी रही है। प्रगति और मानवता के सारे नारे मात्र विडम्बना और छल हैं।
बंधुआ मजदूरी का स्वरूप और प्रक्रिया है क्या, तनिक यह भी देख लेना चाहिए। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार आरम्भ होती है। रोटी-कपड़े जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति में भी असफल होकर समाज के असमर्थ लोग आस-पास के धनिकों और समर्थों के पास सहायता या कर्जे के लिए जाते हैं। धनी और समर्थ लोग उनकी विवशता भाँप उन्हें इस शर्त पर कर्ज़ देते हैं कि उन्हें तब तक उनके यहाँ काम करना होगा, जब तक कि ब्याज-समेत कर्जा चुकता नहीं हो जाता। असमर्थ व्यक्ति यह स्वीकार कर लेता है। और तब शुरू होता है ब्याज-दर-ब्याज का चक्कर, जो समाप्त होने के स्थान पर निरन्तर बढ़ता ही जाता है। बेचारा धर्मभीरु कर्जदार बंधुआ छुटकारे की कामना से अपने परिवार के अन्य सदस्यों को भी उसी चक्कर में फंसा बैठता है। फिर छुटकारा तो क्या, एक व्यक्ति द्वारा लिये गये ऋण का ब्याज पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है और इस प्रकार कई असमर्थ व्यक्तियों-परिवारों की पीढ़ियाँ बंधुआ मज़दूरी के अभिशाप को भोगने के लिए विवश हो जाया करती हैं। ऐसा भी देखने-सुनने में आया है कि कई बार दलाल-मानसिकता वाले चालाक लोग कुछ असमर्थ लोगों को काम दिलाने का झांसा देकर ले जाते हैं; उनकी कुछ आर्थिक सहायता भी कर देते है और इस प्रकार लोगों को अपनी कुटिल मानसिकता के जाल में फंसा कर बंधुआ मजदूरी का ऐसा चक्कर चलाते हैं कि फंसे लोग चाहकर भीफिर कभी छुटकारा नहीं प्राप्त कर पाते । बन्धक बनाने वाले ऐसे व्यक्तियों के घर-परिवार के बच्चों और स्त्रियों तक को नहीं बख्शते। बच्चों से घरेल काम के अलावा भी कठोर काम लिये जाते हैं, जबकि नारियों को घृणित वासनाओं का शिकार बनाया जाता है। कितना दयनीय, कितनी अमानवीय प्रक्रिया और स्थिति है यह!
वस्तुतः बँधुआ-मज़दूरी और इस प्रकार की अन्य स्थितियों को युग-युग से चली आ रही व्यवस्था के दोष का परिणाम ही कहा जा सकता है। अतः इस प्रथा को समाप्त करनेके लिए सबसे पहली आवश्यकता सामन्ती मानसिकता और व्यवस्था-दोष को दूर करने का ही है। यह दोष तभी दूर हो सकता है जब इसके बुनियादी कारणों को खोजकर उन्हें दूर किया जाये। यग-युग से चली आ रही असमानता को मिटाया जाये। आर्थिक स्रोतों का पूर्ण विकास कर बिना भेद-भाव सभी को रोजी-रोटी कमाने के उचित अवसर प्रदान किये जायें। रोटी के अतिरिक्त कपड़ा और घर जैसी अन्य सभी प्राथमिक अवस्थाएँ पूरी की जायें। ग्राम-अंचलों में स्थित बड़ी-बड़ी ज़मींदारियों में यह प्रथा विशेष सक्रिय है। इसी प्राकार भटठा-मज़दूर, खदानों में काम करने वाले अनेक लोग भी इस बँधुआपन के कलंक से विशेष पीड़ित है। उनका पता लगाकर पहले उन्हें आदमखोर भेड़ियों के चंगुल से मुक्ति दिलाई जाये, फिर उनके लिए उचित ओर मुक्त रोज़गारों की व्यवस्था की जाये। ऐसा देखा गया है कि कई स्थानों पर बंधुआओं को छुटकारा तो दिलवा दिया गयाः पर उनके लिए उचित ढंग से रोटी-रोज़ी की व्यवस्था न की गयी। परिणामस्वरूप विवश होकर मात्र जीनेके लिए मुक्त लोगों को पुनः उसी नरक में जाने को विवश होना पड़ा। इस प्रकार की स्थितियों का निराकरण और सुव्यवस्था परम आवश्यक है।
यह सुखद बात है कि अब सरकार तथा अन्य राजनीतिक दलों के कार्यक्रम में बँधुआ मुक्ति और उनके लिए जीविका-व्यवस्था का भी ध्यान रखा जाने लगा है। पर यह कार्यमात्र सरकारी स्तर पर ही या बयानबाजी से ही पूर्ण हो पाना सम्भव नहीं। स्वयंसेवी संस्थाओं को भी इस दिशा में सक्रिय होना चाहिए। ऐसी संस्थाएँ जन-जागरण और सामन्ती-अमानवीय मानसिकताओं के परिवर्तन की दिशा में तो निश्चित रूप से कार्य कर सकती हैं। आज इस बात की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि हम सब में मनुष्य को मनुष्य समझने की प्रवृत्ति जागे। यह जागृति ही इस प्रकार की सभी समस्याओं का अन्तिम समाधान हो सकती है। ध्यान देने की मुख्य बात यही है!
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