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हिमांशु जोशी का जीवन परिचय तथा साहित्यिक विशेषता
जीवन परिचय :
हिन्दी के अग्रणी कहानीकार, उपन्यासकार हिमांशु जोशी का जन्म 4 मई 1935 को उत्तरांचल में हुआ। ये लगभग 29 वर्ष 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में वरिष्ठ पत्रकार रहने के साथ-साथ कोलकाता से प्रकाशित प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' के सम्पादक भी रहे हैं। पिछले चालीस वर्षों से निरंतर लेखन में सक्रिय रहे। मात्र 13- 14 साल की उम्र में इन्होंने अपनी पहली कविता लिखी। उन्होने हिंदी फिल्मों के लिए भी लेखन कार्य किया। उनके चर्चित उपन्यास ‘तुम्हारे लिए’ पर दूरदर्शन धारावाहिक बना। 23 नवम्बर 2018 को हिंदी के अप्रतिम कथाकार और पत्रकार हिमांशु जोशी का निधन हो गया।
इनकी रचनाएं, कोंकणी, असमी, उड़िया, कन्नड़, उर्दू आदि अनेक भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, नेपाली, कोरियन, जापानी, नार्वेजियन, इटालियन, चैक, बल्गेरियन, बर्मी, चीनी आदि विदेशी भाषाओं में भी प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी, दूरदर्शन, रंगमंच तथा चित्रपट के माध्यम से भी कुछ कृतियां सफलतापूर्वक प्रसारित एवं प्रदर्शित हुई हैं। हिन्दी के रचनात्मक साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करने के कारण इनको 'उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान', 'हिन्दी अकादमी', दिल्ली, 'राजभाषा विभाग बिहार' तथा 'केन्द्रीय हिन्दी संस्थान', आगरा (मानव संसाधन विकास मंत्रालय) आदि अनेक संस्थानों से सम्मानित पुरस्कृत किया गया है।
रचनाएँ :
हिमांशु जोशी ने उपन्यास, कहानियाँ, कविता और यात्रा-वृत्तांत लिखे। उनको कुछ प्रमुख प्रकाशित कृतियों के नाम इस प्रकार हैं :
उपन्यास- बुरश तो फूल है, कगार की आग, अरण्य, महासागर, तुम्हारे लिए, छाया मत छूना मन, सु-राज, समय साक्षी है।
कहानी संग्रह: अंततः, रथचक्र, नंगे पांवों के निशान, मनुष्य-चिहन्, सागर तट के शहर, जलते हुए डैने, इस बार फिर बर्फ गिरी तो, 71 कहानियां।
कविता संग्रह: नील नदी का वृक्ष, अग्निसम्भव।
यात्रा-वृत्तांत: यात्राएँ, सूरज चमके आधी रात।
संस्मरण: यातना शिविर में, आठवाँ सर्ग।
भेटवार्ता: मेरे साक्षात्कार।
साहित्यिक विशेषताएँ :
हिमांश जोशी के साहित्य में जीवन की व्यापकता का फलक बहुत विस्तृत है। उनका समग्र साहित्य आहे गुनिक मनुष्य की समस्याओं से प्रेरित है। उन्होंने अपने कथा-साहित्य में पर्वतीय ग्राम जीवन, मध्यवर्गीय पारिवारिक जीवन और महानगरीय जीवन, तीनों की स्थितियों और विसंगतियों का चित्रण किया है। कथा साहित्य हो या यात्रा-वृत्तांत, सभी जगह हिमांशु जोशी ने गांव, कस्बे और नगर के व्यक्ति को केन्द्र में रखा है। सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक घटनाएँ जीवन के विविध संदर्भो से जुड़ कर हिमांशु जोशी के साहित्यिक विजन को प्रासंगिक बना देती है। इस स्तर पर पहुंच कर ही इनकी रचनाएँ समाज, इतिहास, दर्शन का एक यथार्थ दस्तावेज बन जाती हैं। इन्होंने अपनी कृतियों में जिस भी वर्ग, प्रांत, व्यक्ति, वातावरण का चित्रण किया है, प्रायः वे अपनी सामाजिक चेतना, दर्शन, दृष्टि अनुभूति, संवेदना, पक्षधरता और जीवन्त भाषा शैली जैसे गुणों के आपस में सुंदर समन्वय के कारण, सजीव बन पड़ी हैं। हिमांशु जोशी की एक खास प्रवृत्ति यह है कि वे किसी भी प्रसंग, घटना, इतिहास में पूरी आत्मीयता से जुड़ जाते हैं, और उनकी यह रचना-प्रक्रिया, उनके समग्र साहित्य में दिखलाई पड़ती है।
यात्राएँ : विषय वस्तु, शिल्प, भाषा
आदिम काल से मनुष्य का यायावरी से घनिष्ठ संबंध रहा है। यायावरी मनुष्य की एक जरूरी शाश्वत मूल प्रवृत्ति है। मनुष्य की इसी घुमक्कड़ प्रवृत्ति के कारण दुनिया के लोग एक दूसरे से जुड़े। विश्व के हर भाग में प्रकृति के रूपों में विभिन्नता और अपना एक अलग सौन्दर्य है। विश्व की इसी विचित्रता और सौन्दर्य बोध की दृष्टि से प्रेरित होकर यात्रा करने वाला यायावर जब अपनी अनुभूतियों को मुक्त भाव से कागज पर शब्दों से चित्रित करता है तो यात्रा साहित्य का जन्म होता है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में यह साहित्यिक रूप भी कई अन्य रूपों के साथ पाश्चात्य-साहित्य के सम्पर्क में आने के बाद ही विकसित हुआ है। यात्रा-साहित्य में निबंध-शैली की व्यक्तिपरकता, स्वच्छन्दता तथा आत्मीयता आदि गुण पाये जाते हैं। जिस प्रकार निबंधकार अपने विषय को अपनी मानसिक संवेदक स्थितियों में ग्रहण करता है और उसकी प्रेरणा से विस्तार भी देता है, ठीक उसी प्रकार यात्री भी अपनी यात्रा के प्रत्येक स्थल, क्षणों में से उन्हीं क्षणों को संजोता है, जिनको वह अनुभूत सत्य के रूप में ग्रहण करता है और उन्हें आत्मीयता से प्रस्तुत करता है। यात्री अपने साहित्य में संवेदनशील होकर भी निरपेक्ष रहता है। यात्रा में स्वतः स्थान, दृश्य, प्रदेश, नगर, गाँव मुखरित होते हैं, उनका व्यक्तित्व उभरता है। यात्रा में मिलने वाले नर-नारी, बच्चे-बूढ़े, मंदिर, मीनार, गिरिजाघर, स्मारक, मकबरे, किले, महल के विविध चरित्र रूपों और इनकी संस्कृति, कला, इतिहास के उपकरणों के आधार पर यात्रा-साहित्य लिखा जाता है। अंततः यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी कृति का जन्म लेखक के अनुभव और ज्ञानबोध की अभिव्यक्ति के संयोग से होता है। इसी तरह यात्रा वृतात या यात्रा साहित्य का अस्तित्व भी यात्रा करने से ही निर्मित होता है। कुछ लोग सिर्फ यात्रा करते हैं, कुछ नोटिस नहीं करते हैं, कुछ लोग यात्रा करते हुए हर छोटी-बड़ी घटना या प्रसंग को भी बड़ी दिलचस्पी से देखते हैं। कुछ लोग देखने के साथ-साथ उन संस्मरणों को बड़ी कलात्मकता और रोचकता से उनको पुस्तक में लिपिबद्ध कर देते हैं, ऐसी कृति महज सिर्फ एक रचना न होकर एक जीवंत दस्तावेज बन जाती हैं। ऐसे दस्तावेज रूपी साहित्य इतिहास, संस्कृति, भूगोल, प्रकृति, कला के अतीत और वर्तमान की यात्रा करते हुए बहुत कुछ नया कहते हैं। अनेक अज्ञात प्रसंगों, घटनाओं को अवतरित करते हैं, एक अछूती दुनिया की यात्रा कराते हैं। इन यात्राओं से पाठक का नई दुनिया में प्रवेश होता है, ओर वह भी कृति में वर्णित यात्रा प्रसंगों के साथ-साथ लेखकीय संवेदनाओं से गहरी आत्मीयता के साथ जुड़ जाता है। इस स्तर पर पहुँचते ही कृति अपने उद्देश्य में सफल हो जाती है। वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी की यात्राएँ' पुस्तक में वर्णित यात्राएँ भी पाठक से ऐसे ही जुड़ जाती हैं जिस प्रकार हिमांशु जोशी अपनी विभिन्न भारतीय एवं यूरोपीय यात्राओं के दौरान वहाँ के साहित्य, संस्कृति, कला, प्रकृति और लोगों से आसानी से जुड़ जाते हैं। उनका यात्राओं के दौरान लोगों और घटनाओं से जुड़ाव महज औपचारिक नहीं है बल्कि यह उनकी सहज संवेदना और लोकोन्मुख होने की प्रतिबद्धता है। एक सचेत, सजग लेखक, साहसिक रोमांचकारी यात्री और जिज्ञासु बालक की तरह अपनी यात्राओं में उभरते हैं हिमांशु जोशी। पुस्तक 'यात्राएँ' में कुल बारह यात्राएँ संकलित है जो क्रमशः इस प्रकार हैं, 'सिगरी की तपोभूमि लिलि हामेर', 'सपनों के शिखर तक', 'सीवन : जहाँ इसन आज भी जीवित है', 'कुशीनारा : तथागत के अन्तिम दिन', 'चाँदी की खानें, भारी पानी और कोबाल्ट', 'हिन्द महासागर का मोती', 'पिता टेम्स का देश', 'ध्रुव प्रदेश की ओर', 'रॉबिन हुड के साथ', 'निकोलस रोरिक की स्मृति में। भारतीय यात्राओं में भारत की जो तस्वीर उभरती है उसमें विविधताएँ भरी पड़ी हैं।
'कथा : केरल की यात्रा वृतांत में केरल की मनोरम दृश्यावलियाँ मन को मोह लेती हैं। इस यात्रा वृतांत से न सिर्फ केरल की प्राकृतिक सुन्दरता का साक्षात्कार होता है वरन् केरल की संस्कृति, साहित्य, भाषा, रहन-सहन की आंतरिक झोंकियाँ भी देखने को मिलती हैं। इस यात्रा से पता चलता है कि यहाँ के कृषक स्त्री-पुरुष खेतों में काम करते हुए भी दुग्धफेन से धवल यानी सफेद वस्त्र पहनते हैं। यहाँ के लोगों में अपनी भाषा-साहित्य से अत्यंत लगाव है। पढ़ने की संस्कृति इतनी विकसित है कि सड़क पर काम करने वाला मजदूर भी प्रातः खरीदकर समाचार पत्र पढ़ता है। यहाँ के साहित्यकारों का लोग बहत आदर सम्मान करते हैं यह प्रवृत्ति अन्यत्र दुर्लभ है। यहाँ के अधिकांश साहित्यकार दिखावे. आडम्बर की दुनिया से दूर रहकर सादगीपूर्ण जीवन जीना पसंद करते हैं, तथा जीवन-निर्वाह हेतु सामान्य आदमी की तरह काम करते हैं, कोई कृपक है कोई सामान्य स्कूल शिक्षक। सामान्य आदमी की हैसियत वाली जिंदगी कहीं भी उनमें हीनता का बोध उत्पन्न नहीं करती हैं बल्कि उनको और रचनात्मकता हेतु प्रेरित करती है। केरल के आदिवासियों का जीवन वर्णन समस्त आदिवासी जीवन का प्रतिबिम्ब बन कर उभरता है। इस तथ्य को हवा मिलती है कि आदिवासी जो कभी मूल निवासी थे, उन्हें सभ्यता के नाम पर उनकी जमीनों से उनको बेदखल कर जंगलों में धकेलकर शरणार्थी बना दिया गया है। जंगलों में उगायी गयी फसल भी उनकी नहीं होती। रहने के लिये टी-फूटी झोंपड़ियाँ, खाने के लिये कंद-मूल, फटे चिथड़े, अशिक्षा, बाल बिवाह, हाड़तोड़ मेहनत यही इनकी पहचान है। हरे-भरे केरल के नारियल वन, कॉफी के बाग, चाय के बाग, काली मिर्च की बेलें, छोटे-छोटे द्वीप, केलों के बगीचे, नन्ही-नन्हीं नदियाँ और उनमें नारियलों से लदी छोटी-छोटी तैरती नौकाएँ केरल के प्राकृतिक सौन्दर्य में चार चांद लगा देती हैं। वास्तव में केरल के यात्रा वर्णन से ज्ञात होता है कि केरल का मानव जगत और प्राकृतिक वातावरण कितना शांत शालीन, और मनोहारी है।
'सपनों के शिखर तक' में कुमाऊँ के पर्वतीय प्रदेश की अनेक अज्ञात, अछूती मनोरम झाकियाँ न सिर्फ उसकी प्राकृतिक विशेषताओं और कठिनाइयों को दर्शाती हैं बल्कि उसमें निहित इतिहास के पन्नों से कई अनूठी जानकारियाँ भी मिलती हैं। ब्रिटिशकालीन भारत में नैनीताल को 'छोटा विलायत' कहते थे। यहाँ की माल रोड पर काले लोगों को चलने की अनुमति नहीं थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों की बटालियनों से अपनी लोक-लाज बचाने के लिए यहाँ की पहाड़ी महिलाओं ने तालाब में कूदकर अपनी जान दे दी थी। यहाँ के बाँज वृक्ष ने रेशम उत्पादन में क्रांति ला दी है। कुछ समय तक नैनीताल को उत्तर प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी रहने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था। रानीखेत, मुस्यारी, बैजनाथ, बागेश्वर, जागेश्वर चम्पावत में आठवीं, ग्यारहवीं, पंद्रहवीं, अठारहवीं, शताब्दी में निर्मित मंदिर, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ के दुर्गम मार्ग और स्वप्नलोक जैसी घाटियाँ, पच्चीकारी किये हुए काठ के छोटे-छोटे घरों के दरवाजे, काले पत्थर से ,हे मकान, रंग-बिरंगी घाघरी, ऑगड़ी बेल-बूटेदार पिछौड़ी पटने, नामक की नोक से ही उपरी हिस्से तक झक्क् पिठ्या लगाए, लाल मोटे चन्दक की गोल नथ में पहाड़ी तरूणियों का सौन्दर्य देखते ही बनता है। अंग्रेजों की बस्तियाँ, बॉज, बुरौंज, चीड़ के वन, काफल, सेब, खुबानी, आडू, नाशपाती के बगीचे, पोटेटो-फार्म इत्यादि अन्य विशेषताएँ हैं। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने दो बार और स्वामी विवेकानन्द ने अल्मोड़ा की तीन बार यात्राएँ की। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक बसी सेन जो विश्वविख्यात वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु के शिष्य थे यहीं बस गये थे। सुप्रसिद्ध लेखक डी. एच. लारेन्स के मित्र सुविख्यात अमेरिकी चित्रकार अल बूस्टर यहां भ्रमण के लिये आये और अल्मोड़ा की सुन्दरता से प्रभावित होकर यहीं बस गये। कुमाऊँ यात्रा में इन सब बातों के साथ-साथ लेखक ने उन मार्मिक दृश्यों का भी वर्णन किया है जिनमें पता चलता है कि जो कुमाऊँ पर्वतीय प्रदेश अपनी प्राकृतिक आभा, विशिष्ट संस्कृति, वनस्पति, फल-फूल की दृष्टि से समृद्ध है, वहीं वहाँ के आम लोग गरीबी और लाचारी में जी रहे हैं। वहाँ के गांवों में जीवन की मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन होते हुए भी वहां उद्योगों का विकास नहीं हो पाया है जिससे वहां के लोग बेरोजगारी और गरीबी से त्रस्त हैं। कुमाऊँ की यात्रा से ज्ञात होता है कि जो प्रांत प्राकृतिक सौन्दर्य से समृद्ध हैं वहां का लोक-जीवन अत्यंत अभाव ग्रस्त है।
उत्तर पूर्व का इतिहास है तो पूर्व में बांग्लादेश और भारत को विभाजित करती सुदूर हरित बांगा या इच्छामती के कूल-कगार भी है। सीमा सुरक्षा बल के जवान दिन-रात आँधी-तूफान की परवाह किए बगैर दुर्गम बर्फीली पहाड़ियों पर चौकन्ना रह कर दुश्मनों से देश की रक्षा करते हैं। शाश्वत सौन्दर्य प्रकृति की एक अनूठी चित्रकारी लगती है। उत्तर-पूर्व भारत का एक खूबसूरत राज्य नागालैण्ड भी अपने अस्तित्व के शरूआती दौर से लेकर अपने रक्तमय इतिहास के भयावह दौर तक प्रस्तुत है। नागालैण्ड का सन् 1963 में भारत के 16वें राज्य के रूप में उदय हुआ। नागालैण्ड में 'नागासामी' के रूप में एक मिली-जुली भाषा उभर रही है। नागालैण्ड की राजधानी का नाम कोहिमा है। यहाँ की पहाड़ियों में किय-ही' नाम का पौधा पाया जाता है। उसी के नाम पर इस स्थान का नाम पड़ा- किय-ही-मिया यानी कोहिमा, जिसका अर्थ है किय-ही के लोग। यहाँ के लोग न सिर्फ तन, मन एवं मस्तिष्क से स्वस्थ, संपन्न, उदार, सहिष्णु, सहृदय है बल्कि उतने ही जिंदादिल हैं, हमेशा मुस्कराकर बातें करते हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारत छोड़ते समय एक अंग्रेज जनरल स्लिम नागाओं के युद्ध कौशल एवं समर्पण से प्रभावित होकर उन्हें बहुत सारा अस्त्र-शस्त्र भेंटस्वरूप प्रदान कर गया। उधर विदेशी मिशनरियों के कुछ पृथकतावादी तत्त्वों का प्रभाव भी पड़ा जिसका परिणाम यह हुआ कि हजारों नागाओं ने विद्रोह का झण्डा उठा लिया और ‘स्वाधीनता' के लिए छापामार युद्ध छेड़ दिया। लेकिन कालान्तर में हमारे भारतीय सैनिकों ने बड़े शांत स्वभाव से इस चुनौती का सामना किया है। इन्हीं कठिन परिस्थितियों में नागा-प्रदेश में सीमा सुरक्षा बल का गठन किया गया। इस सैनिक संगठन में अगामी लोथा, सेमा, आओ, चांग, फेम आदि जन-जातियों के युवक शामिल किये गये। ये आदिवासी लोग नागालैंड के बीहड़ के चप्पे-चप्पे से परिचित थे। विद्रोहियों की युद्ध नीति का इन्हें ज्ञान था। अतः इस अर्द्ध सैनिक बल ने कुछ ही समय में अपना चमत्कार दिखाना शुरू कर दिया। आज नागालैण्ड में विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण कर दिया है, और वहाँ अपेक्षाकृत शांति है। नागालैण्ड के अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य को हिमाशु जोशी ने ही पहली बार महसूस किया है 'हवा इतनी ठण्डी है कि सुरज की किरणों के ताप का आभास भी नहीं होता, दूर जहाँ तक दृष्टि जाती है पेड़ ही पेड़, जंगल ही जंगल, पहाड़ ही पहाड़ है। रास्ते में नागा-तरूण, तरुणियाँ कन्धों पर कुदालियाँ रखे गाते हुए खेतों की ओर जा रहे हैं। बस्ती से मीलों दूर हैं इनके खेत। घने वनों के बीच। सब लोग इस तरह हँसते-खेलते जा रहे हैं, जैसे काम करने नहीं, पिकनिक मनाने किसी सैरगाह की ओर बढ़ रहे हों।' इस तरह का जीवंत सौन्दर्य वर्णन नागालैण्ड के बारे में कहीं और पढ़ने को नहीं मिलता है। इस यात्रा में अगला पड़ाव है हसनाबाद बांग्लादेश-सीमा क्षेत्र। इस सीमांत प्रदेश में गन्दी बस्तियाँ, भिखारियों की भीड़, नंगे बच्चे, ताड़ के वृक्ष बहुतायत में देखने को मिलते हैं। 2158 किलोमीटर लम्बी बांग्लादेश से लगी सीमा की सुरक्षा के साथ-साथ सुरक्षा बल के जवान तस्करी को भी रोकने का काम करते हैं। सुन्दर वन क्षेत्र में बहती एक ही नदी का नाम इच्छामती, कालिन्दी, रायमंगल तथा हरिनबांगा है। यही नदी भारत और बांग्लादेश को विभाजित करती है।
'कुशीनारा : तथागत के अंतिम दिन' में कुशीनगर की यात्रा का वर्णन है। इस यात्रा की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि लेखक कुशीनगर की यात्रा करने के दौरान इतिहास की स्मृति में पहुँच जाता है और ऐतिहासिक स्मृतियों के माध्यम से महात्मा बुद्ध के जीवन के अंतिम दिनों की याद को अभिव्यक्त करता है। अभिव्यक्ति की यह प्रक्रिया इतनी मार्मिक और सशक्त है कि पाठक इससे विचलित हुए बिना नहीं रहता। बुद्ध के जीवन की अंतिम दिनों से संबंधित कृति ‘महापरिनिव्वान सत्त' के हवाले से हिमांशु जोशी लिखते हैं 'अस्सी वर्ष की अवस्था हो चुकी थी। ज्यों-ज्यों समय बीत रहा था, इस बात का अहसास तीव्रता से हो रहा था कि निर्वाण की बेला में अब अधिक देर नहीं किंतु भिक्षु-संघ को, अंतिम बार देखे बिना बुद्ध देह त्याग कैसे सकते थे? इसलिए वे चुपचाप व्याधि सहते रहे एक दिन आनन्द ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा 'भदन्त हमारे लिए यह कम हर्ष का विषय नहीं कि आपकी व्याधि कुछ कम हुई है, जिससे मेरी चिंता का निवारण हुआ है। भिक्षु-संघ को अंतिम उपदेश दिए बिना भगवान् परिनिर्वाण कैसे प्राप्त कर सकते है?" यह 'उपदेश' शब्द तथागत के हृदय में कहीं चुभा। किंचित् स्वर में बोले, 'आनंद, ऐसा कुछ भी तो नहीं है, जिसे मैंने तुमसे या भिक्षु-संघ से छिपाकर रखा हो। भिक्षु-संघ का मैं नायक बनूं, मुझ पर आश्रित रहे यह संघ, ऐसी मेरी धारणा कभी नहीं रही। जो व्यक्ति ऐसा सोचेगा, वही संघ को अंतिम उपदेश देने की भ्रामक बात कहेगा... अब मैं वृद्ध हो चला आनन्द। जरा-जीर्ण हो चुकी यह काया। इस गिरती देह को, ज्यों-त्यों चलाए रखने के पक्ष में भी मैं नहीं हूँ। मेरे चले जाने के बाद तुम सबको स्वयं पर आश्रित होना है। अपना मार्ग स्वयं खोजना है। अपना दीपक स्वयं बनना है..........इसलिए तुम आत्मा की शरण में आ जाओ.................... धर्म की शरण में.................. मैंने जिस धर्म और विनय का उपदेश दिया है, मेरे परिनिर्वाण के बाद वे ही तुम्हारा पथ प्रदर्शन करेंगे। इस तरह के मार्मिक और प्रेरणावान प्रसंगों के अलावा कुशीनगर अपनी प्राचीनता और वर्तमान के साथ चित्रित होता चलता है। ह्वेनसांग का अपनी रचनाओं में कुशीनगर और वहां की हिरण्यवती नदी का उल्लेख जापानी बौद्ध विहार, माथा कुंवर इत्यादि अवशेष बुद्ध के जीवन की कहानियों को कहती है।
यात्रा वृतांत 'निकोलस रोरिक की स्मृति में' में कुल्लू-मनाली की यात्रा का वर्णन है। हालांकि यह यात्रा रूसी साधक, दार्शनिक, महान चित्रकार (जो कुल्लू मनाली की सुन्दरता से प्रभावित होकर वहीं बस गये थे) के पुण्य दिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिये की गयी थी जिसमें मैक्सिको, डेनमार्क, रूस, उक्रेन आदि कुल 23 देशों के बुद्धिजीवी शामिल थे। इस यात्रा में कुल्लू मनाली की मनभावन सुन्दरता के साथ-साथ ही संत निकोलस के जीवन के संक्षिप्त इतिहास का भी वर्णन हुआ है। इस यात्रा में मुख्यतः निकोलस के बारे में ज्याव जानकारी प्राप्त होती है। रोरिक सिर्फ एक चित्रकार ही नहीं, एक चिंतनशील कवि भी थे। उनके व्यक्तित्त्व के अनेक आयाम थे। छब्बीस से भी अधिक ग्रंथों में उनकी रचनाएँ संकलित हैं। इसके अतिरिक्त वे आध्यात्मिक साधक भी थे। इस महान पुरुष की मृत्यु के उपरांत हिन्दू परम्परा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया गया था। समाधि-स्थल पर एक विशाल प्रस्तर-खण्ड है, जिस पर अंकित है भारत के महान रूसी मित्र निकालस के पार्थिव शरीर का यहाँ दिसंबर 1947 को दाह-संस्कार हुआ था। ओम् राम!'
जिस प्रकार इन भारतीय यात्राओं से भारत के प्रदेशों की प्राकृतिक खूबसूरती, लोक जीवन की संस्कृति, विशिष्टताएँ, सम्पन्नता, विपन्नता इत्यादि सामने आती हैं, उसी प्रकार लेखक द्वारा की गयी नार्वे, इंग्लैण्ड, मारिशस की यात्राओं से वहां के लोकजीवन की संस्कृति, भाषा, साहित्य की प्रामाणिक झलक के साथ-साथ वहाँ के सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों की भी झलक मिलती है। 'यात्राएँ' के लेखक हिमांशु जोशी की खास प्रवृत्ति यह है कि वे सिर्फ एक पर्यटक की हैसियत से ही इन देशों की यात्राएँ नहीं करते हैं बल्कि वे इन देशों की साहित्यिक यात्राएँ करते हैं। उनको हर पल, हर क्षण जीते हैं।
हिमांशु जोशी के सजग, जिज्ञासु और भ्रमणशील मन की अकुलाहट, व्याकुलता की गहरी नजरों से जो 'आँखन देखी' अनुभूतियाँ प्राप्त होती हैं वे इन साहित्यिक यात्राओं को एक यादगार बना देती हैं, जिनमें उक्त देशों के विभिन्न प्रदेशों, शहरों का इतिहास, संस्कृति, सभ्यता, भूगोल, पर्यावरण, मानव मूल्य, जीवन दृष्टि, विभिन्न स्थितियाँ, कमजोरियाँ इत्यादि अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक-बौद्धिक भौतिक परिवेश साकार हो उठते हैं।
'सिंगरी की तपोभूमि : लिलि हामेर' और 'सीयन : जहाँ इब्सन आज भी जीवित है' जैसी साहित्यिक यात्राओं में जहाँ नार्वे के सिगरी उनसत जैसी नोबल पुरस्कार से सम्मानित कथाकार है तो विश्वविख्यात नाटककार इसन भी हैं। सिगरी उनसत के गृह निवास लिलि हामेर की यात्रा में नार्वे के एक भाग का दर्शन होता है तो ओस्लो से सीयन तक की यात्रा में नार्वे के दूसरे भाग का। सिगरी उनसत सिर्फ एक नोबल पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार के ही रूप में नहीं चित्रित होती हैं बल्कि वे जीवन मूल्य, नैतिकता, राष्ट्र भक्त, संघर्षशील महिला के रूप में भी उभरती हैं। तथा उनके संघर्षों से दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान 'नाजियो के गुलाम नाउँ' को स्वाधीन होने का संघर्षमय इतिहास भी जीवित हो उठता है।
अपने देश समाज के प्रति सिगरी का सर्मण और प्रतिबद्धता देखते ही बनती है। सिगरी के मन में किसी भी काम के प्रति कोई कंठा नहीं थी। नोबल पुरस्कार से सम्मानित, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की यह साहित्यकार नार्ये सरकार के सूचना-विभाग में एक साधारण टाइपिस्ट की हैसियत से कई वर्षों तक इस मान्यता के तहत काम करती रही कि देश-सेवा का कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता। विश्वविख्यात नाटककार इब्सन के पैतृक शहर 'सीयन' की यात्रा भी विविधताओं से भरी पड़ी है। सीयन का मतलब होता है वह स्थान जहाँ पानी बिखरा रहता है। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रदेश नदियों, झरनों, जंगलों, बर्फीले पहाड़ों का सुंदर समन्वय है। इसन का घर अब विश्व के नाट्य प्रेमियों के लिए एक तीर्थ बन गया है। इसन को अपने जीवन काल में अनेक संघर्षों का सामना करना पड़ा। अन्त में सीयन भी छोड़ना पड़ा। इब्सन के जीवन के अधिकांश महत्त्वपूर्ण वर्ष नार्वे के बाहर बीते। अपने विश्वविख्यात नाटक उन्होंने यूरोप-प्रवास में ही लिखे थे। जब इव्सन की ख्याति दुनिया में फैल गई तो नार्वे-निवासियों ने इब्सन के सम्मान में अनेक स्मारक बनवाए। इसन के मरने के बाद सीयन का महत्त्व और बढ़ गया। इब्सन चोटी के चित्रकार होने के साथ-साथ बड़े विनोदी स्वभाव के भी थे। दूसरों पर ही नहीं अपने पर भी व्यंग्य कर लेने की कला में उन्हें महारत हासिल थी। इस यात्रा वृतांत में एक अन्य स्थल अत्यंत रोचक है जिसमें इब्सन द्वारा अपनी पुत्रवधू को लिखे गये एक पत्र का जिक्र है। जिसमें वे लिखते हैं "आर्थिक रूप से परिवार का ढाँचा ट रहा था जिस कस्बे में कभी शान-शौकत से रहे, वही अब गरीबी के कारण पराया-पराया सा लगने लगा। कस्बे के लोगों की कानाफूसी से भी मन उचाट होने लगा। केवल पन्द्रह वर्ष की अवस्था में ही लगने लगा कि इस शहर से निकल चलने में ही अब खैर है.......... फिर रोजी-रोटी की समस्या थी। यही सब सोचकर 27 दिसम्बर, 1843 को में निकल पड़ा, एक नये संसार की खोज में। ग्रिमस्टेण्ड में एक कैमिस्ट के यहाँ काम मिल गया। एक शहर, मेरा प्यारा शहर, मेरा अपना शहर इस तरह मुझसे दूर हो गया।" अतः ‘लिलिहामेर' और 'सीयन' की यात्राओं में सिगरी उनसत और इब्सन का चित्रित जीवन और घरों की यात्राएँ एक विशेष काल खण्ड, समाज, संस्कृति की अमूल्य धरोहर बन कर उभरती है। हमारे देश की भाँति वहां के साहित्यकार एक अलग-थलग द्वीप की तरह नहीं पड़े रहते हैं, बल्कि वे मध्य द्वीप हैं जो समग्र देश को, समाज को, जन जीवन को अपनी छाप से प्रेरित करते हैं, और जनता उनको फरिश्ते के रूप में पूजती और याद करती है।
नार्वे यात्रा के अगले पड़ाव का शीर्षक है 'चाँदी की खानें, भारी पानी और कोबाल्ट'। लेखक की साहित्यकारों पर केन्द्रित यात्राएँ अब समाप्त हो गयी हैं और वह अब नार्वे के दूर-दराज क्षेत्रों को देखने के लिये निकल पड़ा है। टेलीमार्क, अमेरिका के बाद विश्व में केवल यही स्थान था, जहाँ भारी पानी तैयार करने का कारखाना था। दूसरे विश्वयुद्ध के प्रारंभ होते ही हिटलर ने सबसे पहला आक्रमण का लक्ष्य इसी क्षेत्र को बनाया था और इस पर अधिकार भी जमा लिया था, ताकि अमेरिका से पहले परमाणु बम बना सके। ओस्लो से टेलीमार्क तक की यात्रा बेहद रोमांचक और जानकारियों से भरपूर है। सड़क के किनारे खेत हैं। काँच तथा पॉलिधि के घरों में सब्जियाँ उगाई जा रही है। भयंकर सर्दी तथा पाले से बचाने के लिए यह व्यवस्था की गयी है। इनके भीतर आवश्यकतानुसार तापमान रखने की भी व्यवस्था है। ऐसा इसलिए है कि यहाँ साल में छह महीने से अधिक बर्फ जमी रहती है। 'हैरोदल' एक नन्हा सा शहर है जिसमें यूक्लिप्टस के नये-नये उगते किशोर पौधे दिख रहे है, देवदार के वृक्षों का झुरमुट है। यहां चारों ओर काली चट्टानें हैं, आलू की हरी-भरी क्यारियाँ हैं, कहीं कहीं-कहीं स्ट्रॉबेरी की खेती दिख रही है। कारों के पीछे भी खूबसूरत ट्रेलर लगे हैं जिनमें छोटे-से डिब्बे के आकार का एक वातानुकूलित कमरा हैं, जिसमें फ्रिज है, चूल्हा हैं, रसोई का सारा साज-समान है। जरूरत पड़ने पर इनमें भीतर पैर पसारकर सोन भी जा सकता है। सप्ताहांत अवकाश मनाने के लिए लोग बाल-बच्चों के साथ ऐसे ही ट्रेलर लिए सागर के किनारे निकल पड़ते हैं या किसी अन्य सैरगाह की ओर। जहाँ मन हुआ, जब तक मन हुआ, रह लिए। न रात बिताने के लिए किराये के कमरे का झंझट, न दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ खरीदने के लिए दुकान की ही तलाश। सागर के एकान्त तटों पर ऐसी गाड़ियों का जमघट लगा रहता है। प्लास्टिक की छोटी-छोटी नावें भी लोग कार की ही छत पर बाँध लेते हैं। ये चलते-फिरते सुविधापूर्ण घर सचमुच कितने मनमोहक लगते हैं। यहाँ की कार्य संकृति की एक प्रवृत्ति को रेखांकित करते हुए हिमांशु जोशी कहते हैं यहां के निवासी सप्ताह में पाँच दिन कठिनपरिश्रम करने के पश्चात् छुट्टी के शेष दो दिन पूरी मौज-मस्ती से गुजारते हैं। अवकाश तभी सुखकर होता है, ब श्रम भी पूरी निष्ठा से किया जाता है। इसका रहस्य पश्चिमी देश बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। ‘लिएड', कस्बे में मिले हरे खेत हैं, छिटके हुए घर हैं, हरे मखमली ढलान हैं। सिंचाई के लिए जगह-जगह फव्वारे लगे हैं। इस तरह जल की एक-एक बूंद का सदुपयोग हो जाता है। दाई और यह कस्वा है और बाई ओर सागर लहरें ले रहा है। कई कारखाने हैं, चिमनियाँ दूर से झलक रहीं हैं।
हर सातवें-आठवें मोड़ पर फीयोर्ड का शांत जल दिखलाई देता है। नार्वे में सत्रह सौ ग्लेशियर, पचास हजर द्वीप है और पन्द्रह सौ से अधिक झीलें हैं। कपड़े तो यहाँ मैले नहीं होते। न यहाँ पसीना आता है, न यह पूल है, न धुआँ। जमीन का असली स्वरूप तो दिखता ही नहीं। या तो पेड़ हैं या घास या पानी या बर्फ। यहाँ की मिट्टी का रंग कैसा होता है पता ही नहीं चलता। 'इमन', शहर। यह नार्वे का छठा बड़ा शहर है। सोलहवीं शताब्दी में बसा था। यहाँ कागज का बहुत बड़ा कारखाना है। ड्रमन नार्वे के महत्त्वपूर्ण बंदरगाहों में गिना जाता है। सबसे अधिक विदेशों से आयातित कारें यहीं उतारी जाती हैं-जहाजों से। यहाँ बहुत बड़ी संख्या में सेब के बगीचे हैं ओर घोड़ों का बहुत बड़ा फार्म भी। होकेशन शहर, लारविक फिर 'कोंग्सबर्ग सिल्वर माइन्स' अर्थात् चाँदी की खानें। नार्वे की समृद्धि में इन खानों का बहुत बड़ा योगदान रहा। सन् 1623 में चाँदी की इन खानों का पता लगा था, किंत बड़ी मात्रा में निकाले जाने का कार्य आरम्भ हुआ 1642 में। लगभग तीन सी साल तक ये नार्वे की सबसे बड़ी खानें रहीं। मेनहाया बस्ती में स्थित प्राचीन गिरजाघर 'हेदल स्टेव चर्च' नार्वे का सबसे पुराना चर्च है। सन् 1250 में बना था- पूरा का पूरा लकड़ी का। हर्दल-यह जंगल, पहाड़ों और नदियों से बना प्रदेश है। यहां खा पीकर फलों के छिलके और अन्य कचरे को बिखेरना अशिष्टता समझी जाती है। यहाँ के मार्ग ओस्लो से भी अच्छे हैं। समृद्धि का आदर्श वितरण कहीं सच्चे समाजवाद की याद दिलाता है। शहर और शहर के बीच, गाँव और शहर के बीच कहीं किचित अन्तर नहीं। सारे प्रदेश, हर दृष्टि से समान हैं। 'लातोल के चारों ओर जंगल ही जंगल हैं। 'लेवलौंग' शहर पहाड़ की विस्तृत पीठ पर बसा है। यहाँ से बर्फीले पहाड़ो के दृश्य साफ दिखते हैं। रूकनफल्सट्वा' शहर 1905 में बसा था। टेलीमार्क दो विशाल पर्वतों के बीच गहरी घाटी में है। यही पर है वह भारी पानी का कारखाना जिसके लिये दूसरे विश्वयुद्ध में घमासान युद्ध हुआ था। यहाँ प्रकृति की अनुपम लीला देखते ही बनती है। यहाँ जंगलों में दूर-दूर तक छितरे हुए 'समर हाउस' बने हैं। ये ग्रीष्म-निवास काठ से निर्मित छोटे-छोटे सुन्दर घर हैं, जिनमें आधुनिक सुख सुविधाओं की सारी वस्तुएँ भरी पड़ी हैं। ये घर वर्ष-भर ऐसे ही लावारिस पड़े रहते हैं। किंतु कोई चोर-उचक्का यहाँ फटकता नहीं। अधिकांश लोगों के शब्दकोश में चोरी क्या होती है? शब्द ढूँढे से भी नहीं मिल पाएगा। यहाँ अक्टूबर से मार्च के प्रथम सप्ताह तक सूरज नहीं दिखलाई देता है, इन बड़े-बड़े दो पहाड़ों की दीवारों के कारण। मार्च में जब पहले-पहल सूर्य के दर्शन होते हैं तो यहाँ के निवासी ‘सन-फेस्टीवल' यानी 'सूर्योत्सव' मनाते हैं। टेलीमार्क क्षेत्र के किनारे की ओर कोबाल्ट की खाने हैं। चीनी मिट्टी तथा शीशे की अधिकांश वस्तुएं रंग से रंगी जाती थी, सैकड़ो वर्ष पूर्व चीन को निर्यात किया जाता था। वही कोबाल्ट जिससे महाविनाशकारी कोबाल्ट बम बनाया जाता है।
'ध्रुव प्रदेश की ओर' यात्राएँ में नार्वे से संबंधित अंतिम यात्रा वृतात संकलित है। नार्वे का अर्थ होता है- 'नॉर्थ वे' यानी उत्तरी रास्ता। इस उत्तरी ध्रुव दिशा को नार्वे के लोग 'लैपलैण्ड' यानी लैप लोगों का प्रदेश के नाम से पुकारते हैं। रेलगाड़ी में यात्रा करने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे म्योसा झील के किनारे-किनारे पानी को छूती हुई गाड़ी चल रही है। 10 हजार वर्ष पूर्व सबसे पहले आदमी के पाँव नार्वे की धरती पर पड़े थे। यानी मानव का नार्वे की भूमि से दस हजार साल पुराना संबंध है। लैप्स यानी सामी उत्तरी ध्रुव प्रदेश के मूल निवासी हैं। इनकी भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, जीवन-दर्शन भिन्न है। इस यात्रा में अनेक रोमांचक पड़ाव हैं, सामने बर्फीले पहाड़ हैं, कहीं पानी बरस रहा है, कहीं-कहीं कुहासा है। सूरज की पीली, ठंडी किरणें लुका-छिपी कर रही हैं। रेडियरों का प्रदेश, ऊँचे पहाड़ों पर चलती रेलगाड़ी, घाटियाँ, आसमान छूते ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच दरारों में से गुजरती ट्रेन रोमांच पैदा कर देती है। प्रकृति ने जहाँ नार्वे को इतनी सर्दी दी है, वहाँ एक वरदान भी दिया है। नार्वे के सागर तटों पर 'गल्फ-स्ट्रीम' गरम धारा बहती रहती है, जिससे किनारे का सागर का पानी जमता नहीं जिसके कारण यातायात के लिए समुद्र बारहों महीने खुला रहता है। 'पोलर सर्किल' यानी ध्रुव क्षेत्र उजाड़ प्रदेश है। यहाँ 7 जून से 8 जुलाई तक आधी रात को आसमान में जगमगाता सूर्य दिखता है और 15 दिसम्बर से 29 दिसम्बर तक एकदम घनी, काली रातें होती हैं। यहाँ स्लेटी, बैंगनी, साँवले, नुकीले, नगे, नीले रंग की पर्वत-श्रृंखलाओं के मनोरम दृश्य अत्यंत मनमोहक लगते हैं। नार्वे में 50 हजार द्वीप हैं। 500 झीले हैं। उत्तरी नार्वे की राजधानी 'ट्राम्सो' है। ट्राम्सो विश्वविद्यालय दुनिया का एक मात्र विश्वविद्यालय है, जो इसके उत्तर में है। नार्वे में मछली पकड़ने का भी सबसे बड़ा केन्द्र है। लैप आदिवासी अब तम्बुओं या बर्फ के घरों में नहीं रहते। सरकार ने उनके लिए आरामदेह घर बना दिये हैं। काले-काले, सफेद-सफेद रीछ जैसे झबरैले कुत्ते हैं। बड़े-बड़े बाड़े जिनमें हजारों की संख्या में, रेडियर पाले जा रहे हैं। कुत्तों के द्वारा खींची जाने वाले स्लेज गाड़ियाँ हैं। लैप आदिवासी अभी भी अपनी पुरानी परम्पराओं से चिपके हुए हैं। बच्चे, बूढ़े औरतें मर्द सभी रंग बिरंगे और चमकीले परिधान में हैं। अब लैप बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। लैप लोगों की अपनी भाषा है। ये लोग बड़े मिलनसार होते हैं।
'पिता टेम्स का देश' और 'रौबिन हुड के साथ' शीर्षक नाम की यात्राएँ इंग्लैंड के भूगोल ‘संस्कृति' साहित्य इत्यादि पर प्रकाश डालती हैं। ब्रिटेन का इतिहास बहुत रोचक है। ब्रिटेन का अस्तित्व कई नस्लों, जातियों के मिश्रण से बना है। सॉउथ हाल देखने के बाद ल्यूटन जाने वाली सड़क पर आगे बढ़ने पर सड़क के दोनों ओर खुला वातावरण, खेत, चरागाह, बाग बगीचे को देखते हुए हिमांशु जोशी ब्रिटेन के अतीत में पहुँचकर बहुत रोचक तथ्यों का उल्लेख करते हैं। ईसा के जन्म के समय यह समूचा प्रदेश किसी हद तक वीरान रहा होगा। बर्फ, घास, जंगल, जंगली पशु-पक्षी, बिखरी हुई आबादी। "तब रोमन साम्राज्य दूर-दूर तक अपने पाँव फैला रहा था। यूरोप उसके प्रभाव क्षेत्र में था। पहली शताब्दी के आसपास इन्हीं रोमनों ने ब्रिटेन पर हमला किया और धीरे-धीरे इसे अपना उपनिवेश बना लिया। लगभग दो सौ वर्षों तक ब्रिटेन पर उसका एकछत्र राज्य रहा। रोमन साम्राज्य के हटते ही बहुत बड़ी संख्या में नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क के अनेक लोग यहाँ के स्थायी निवासी बन गए। बाद में वे परस्पर इतने घुल-मिल गए कि यह बताना कठिन हो गया कि यहाँ के निवासियों में मूल नार्वेजियन, डैन, स्वीडिश, रोमन, केल्ट कौन हैं। बाद में जिन जातियों के लोग यह आए वे संख्या में ही अधिक नहीं थे, संस्कृति, सभ्यता की दृष्टि से भी कहीं उन्नत थे। अतः इस देश का नाम पड़ गया 'ब्रिटेन'। एक लाख इक्कीस हजार छह सौ वर्गमील क्षेत्र में फैले इस देश में इंग्लैंड, वेल्स, स्कॉटलैण्ड, उत्तरी आयरलैंड शामिल हैं। वोल्वर हैम्पटन, ल्यूटन, बर्मिघम, रोज थान, लेस्टर इत्यादि शहर बेहद खूबसूरत और व्यवस्थित हैं। लंदन दुनिया का अपने आप में एक अनूठा शहर हैं जहाँ प्राचीन भव्य इमारते हैं, भीड़-भरी सड़के हैं। यहीं पर नेशनल आर्ट गैलरी है जहाँ विश्व के बहुमूल्य, दुर्लभ तैलचित्र सुरक्षित हैं। लेखक लंदन की भव्यता से सिर्फ आश्चर्यचकित ही नहीं होता है बल्कि उसके मन में एक विक्षोभ भी उभरता है, उससे दो अर्थी सच्चाईयाँ अवतरित हो जाती हैं। उदाहरण के लिए "लंदन की भव्यता को देखकर लगता है कि सैकड़ों वर्षों के शोषण से, गरीब देशों से जो धन संग्रह किया, उसका उपयोग अंग्रेजों ने किस तरह किया। लंदन को सजाने में धन पानी की तरह बहा दिया। दुनिया के तमाम बड़े शहरों की भाँति लंदन भी टेम्स नदी के किनारे बसा है। जो स्थान हमारे समाज में गंगा का है वही स्थान इंग्लैंडवासियों में टेम्स का है। हम गंगा माता कहते हैं और ये लोग 'फादर टेम्स' यानी पिता टेम्स। गंगा हिमालय पर्वत के गंगोत्री से निकलती है, टेम्स का उद्गम एक सा पारण-सा खेत है। भूमि के भीतर एक छोटा-सा स्रोत।
'बारबिकन थियेटन' विश्व के आधुनिकतम थियेटरों में से एक है। 'भारत महोत्सव के अवसर पर इसका उद्घाटन ब्रिटेन की महारानी ने किया था। कुल मिलाकर इस यात्रा में लंदन अपनी सम्पूर्ण चारित्रिक विशेषताओं के साथ प्रस्तुत है। सन् 1160 में नाटिंघम के निकट रॉबिन हुड का जन्म हुआ था। उसका वास्तविक नाम राबट फिजूथ था, जो कालांतर में बिगड़ता-बिगड़ता 'रॉबिन हुड' हो गया। आज से लगभग एक हजार वर्ष पहले जन्मा एक अनोखा ब्रिटिश योद्धा जन-नायक जो इंग्लैण्ड का एक बलशाली, न्यायप्रिय नायक था। उस पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं। हर युग में, अपनी-अपनी तरह से रॉबिन हुड पर भिन्न-भिन्न भाषाओं में फिल्में बनी. नाटक मंचित हुए। वह अन्याय के विरूद्ध सतत संघर्ष करता रहा जिसके कारण हर जमाने के लोगों द्वारा वह मुक्त कंठ से सराहा गया। इस बलशाली नायक का 87 साल की उम्र में, 18 नवम्बर, 1247 को देहान्त हो गया। वस्तुतः 'टेल्स ऑफ रॉबिन हुड' संग्रहालय को देखते हुए रॉबिन हुड की जिंदगी और अतीत को महसूस करते हुए लेखक कई ऐसे पक्षों का खुलासा करते हैं जो समय के इतिहास में दब जाते हैं। रॉबिन हुड का व्यक्तित्व, नायकत्व देश काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर आम विश्वजन की आकांक्षा से जुड़ जाता है। अन्याय किस देश किस समाज और किस युग में नहीं रहा है। वास्तव में रॉबिन हुड एक महान व्यक्तित्व तो था ही साथ ही साथ ही रचनात्मक, सृजनात्मक आधार को एक सशक्त भूमि भी था।
'यात्राएँ' में 'हिन्द महासागर का मोती', शीर्षक नामक यात्रा वृतांत अफ्रीकी द्वीप के देश ‘मारिशस की यात्रा से संबंधित है। इस यात्रा से मारिशस के अतीत और वर्तमान का बोध होता है। प्राचीन काल में मारिशस 'श्वेत द्वीप' के नाम से जाना जाता था। पुर्तगाल के नाविकों ने पहली बार सन् 1500 में यहां आकर इसे अपने ठहरने का स्थान बनाया था। वे नियमित रूप से सैरगाह, व्यापार व ठहरने के रूप में मारिशस का प्रयोग करते थे। इस द्वीप पर बरसों तक ब्रिटिश राज रहा। मारिशस को स्वतंत्रता 1968 में मिली। तब से मारिशस में मजबूत लोकतंत्र है। मारिशस के अस्तित्व में आने के बाद उसकी गुलामी, फिर स्वाधीनता, खुशहाली, प्रगति, समृद्धि, शांति सभी स्थितियाँ सिलसिलेवार क्रम से अवतरित होती चलती हैं। लेखक अन्य यात्राओं की तरह इस यात्रा में भी पर्याप्त सहानुभूति रखता है, क्योंकि मारिशस का दर्द भारत से ले जाये गये दासों से जुड़ा है, जिन्होंने आधुनिक मॉरिशस को अपने परिश्रम से सींचा है। यहां के वातावरण में रंगों और स्वाद का अद्भुत संगम है। चारों ओर फैला नीला समुद्र बेहद आकर्षित करता है। यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य देखते ही बनता है। प्रातः काल पौ फटते ही आसमान का सारा नजारा बदल जाता है। सुनहरा, पीला, गुलाबी रंग अबीर की तरह, सफेद बादलों में बिखर जाता है। समुद्र इन्द्रधनुषी रंगों में नहा जाता है। निर्मल स्वच्छ जल, एक ही रंग के इतने बहुआयामी प्रतिबिम्ब! प्रकृति का यह चमत्कार देख, आंखों को अवर्णनीय सुख मिलता है। दक्षिण-पूर्वी तट पर बसा सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर माहेबर्ग किसी समय मॉरिशस की राजधानी था। इसे 'पर्यटकों के स्वर्ग' नाम से जाना जाता है। 720 वर्गमील क्षेत्र में फैला यह छोटा सा द्वीप आसमान की ऊँचाई से तालाब के पानी में गिर पड़े हरे पत्तल जैसा दिखता है। इस नन्हे द्वीप में पहाड़ हैं। रूपहले मैदान हैं। नदी की छलछलाती धाराएँ हैं, झरने, तालाब, जंगल, सब कुछ हैं जो एक देश में प्रायः होते हैं।
शिल्प
प्रत्येक रचना अपना संगठित रूप, आकार लेने के लिए शिल्प (क्राफ्ट) की मदद लेती है। शिल्प के द्वारा रचना की मांग के अनुसार उसकी प्रस्तुतिकरण और कला कौशल को निखारा जाता है। विचारों, भावों, घटनाओं, दृश्यों, का तकनीकी संयोजन शिल्प के अंतर्गत होता है। अतः ‘यात्राएँ' भी एक सशक्त शिल्प की परिधि में कैद हैं। परंतु 'यात्राएँ का शिल्प पारम्परिक शैली का शिल्प नहीं है। उसमें तो पर्याप्त नवीन प्रयोग किये गये हैं। रेखांकित करने योग्य तथ्य यह है कि 'यात्राएँ' में शिल्प का कोई पुराना रूप न होकर नया है जो कोई ठोस रूप नहीं लेता है, जो स्थूल तौर पर न प्रस्तुत होकर 'यात्राएँ' के प्रस्तुतिकरण में बड़ी कलात्मकता से विलय हो गया है। इसमें लेखकीय अनुभूति के साथ पाठक की अनुभूति जुड़ जाती है और लेखक अपनी यात्राओं के दौरान घटनाओं में खो जाता है, वास्तव में यही शिल्पण की सूक्ष्म प्रक्रिया 'यात्राएँ में विद्यमान है। लेखक ने अपने यात्रा संस्मरणों को इतनी सुंदरता और कलात्मकता से एक दूसरे से जोड़ा है कि वे एक बिम्ब का रूप ले लेते हैं। ऐसा लगता है मानो पाठक के सामने फिल्म चल रही हो। वर्णित दृश्य पाठक के मानस पटल पर फिल्म की तरह सजीव हो उठते हैं। इस तरह वर्णित दृश्य पाठक पर प्रभाव डालते चलते हैं। वास्तव में यात्रा संस्मरणों को रोचकता और वर्णनात्मक शैली और धारा प्रवाहता के साथ प्रस्तुत करना कठिन कार्य है, लेकिन हिमांशु जोशी इस कठिन मार्ग को बड़ी कलात्मकता से पार करते हैं। इस तरह उनके द्वारा प्रयुक्त शैली, शिल्प, बिम्ब रचना को अस्तित्व में लाने वाले साधन बन जाते हैं न कि रचना में ढूंढने वाले स्थूल शस्त्र।
भाषा से ही विचार, व्यवहार, रचना सभी अस्तित्वमान होती है। एक भाषा दिखावे की होती है और एक साधन की। 'यात्राएँ की भाषा दिखावे की न होकर अभिव्यक्ति की भाषा है, कहने, बोलने की भाषा है। 'यात्राओं के कई कठिन दृश्य और जटिल भाव भंगिमाएँ सरलता से अवतरित हो जाती हैं। शब्दों का इतना सार्थक प्रयोग हुआ है कि वे भ्रमित न करते हुए उचित अर्थ ही ध्वनित करते हैं। यह लेखकीय कमाल है कि वह अपने शब्दों, को सीधे अर्थ में प्रयोग करता है उसके शब्द चयन, वाक्य संरचना, एक स्तर पर आकर उसकी भाषा शैली को स्वतंत्र रूप प्रदान करते हैं यही वह स्तर है जहां वह जब चाहे किसी भी परिस्थिति में, मूड में किसी भी प्रसंग को अपने शब्दों के द्वारा प्रस्तुत कर देता है। ऐसी अवस्था में शब्द उसके गुलाम बन जाते हैं, लेखक शब्दों का गुलाम नहीं बनता। 'यात्राएँ' की भाषा में शालीनता है, गंभीरता है, धारा प्रवाहता, लयात्मकता है। एक मिठास है। मुहावरों का प्रयोग ‘यात्राएँ' की भाषा को और निखारता है। 'यात्राएँ' की हिन्दी अपने परिष्कृत, परिमार्जित रूप में होते हुए भी प्रसंगवश, आवश्यकतानुसार घटनाओं और वर्णनों को युग, परिवेश की दृष्टि से प्रामाणिकता में इस्तेमाल करने के आग्रह के कारण अन्य भाषाओं के शब्दों का वरण करती है जिससे 'यात्राएँ' में प्रयुक्त हिन्दी और अधिक ऊर्जावान और सृजनात्मक बन जाती है। यह प्रवृत्ति 'यात्राएँ के सभी यात्रा वृत्तांतों में दिखाई देती है। अंततः कहा जा सकता है कि 'यात्राएँ' के सजीव और जीवन्त वर्णन के लिए, सजीव और जीवंत हिन्दी का प्रयोग किया गया है।
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