एक प्रश्न चार उत्तर : एक प्रश्न चार उत्तर श्री प्रकाश की की रचना है। प्रस्तुत पाठ में श्री प्रकाश द्वारा पूछे गये एक ही प्रश्न का उत्तर...
एक प्रश्न चार उत्तर : एक प्रश्न चार उत्तर श्री प्रकाश की की रचना है। प्रस्तुत पाठ में श्री प्रकाश द्वारा पूछे गये एक ही प्रश्न का उत्तर चार महानुभावों ने अपने-अपने ढंग से दिये हैं। हमारा देश तभी उन्नति कर सकता है जब देश का प्रत्येक नागरिक पूर्णतः ईमानदारी, लगन एवं निष्ठा के साथ अपना छोटे-से-छोटा कार्य करेगा। यही चारों महानुभावों के द्वारा दिये गये उत्तरों का निष्कर्ष है।
सबको ही कुछ न कुछ खब्त होता है। मुझे भी कई बातों का खब्त है। उनमें एक यह है कि जब किसी विदेशी से मेरी मित्रता हो जाती है और उन्हें सहृदय पाता हूँ साथ ही यह समझता हूँ कि हमारे देश में बहुत दिनों से रहने के कारण वे पर्याप्त अनुभव भी प्राप्त कर चुके हैं तो उनके किसी सुअवसर पर मैं पूछता हूँ - 'आप कृपाकर यह बतलावें कि क्या कारण है कि हमारे देश में इतने विशेष पुरुषों के रहते हुए, इतने बड़े-बड़े आंदोलनों के होते हुए भी देश कुछ उन्नति नहीं कर रहा है ? ऐसा मालूम होता है कि हम ज्यों के त्यों पड़े हुए हैं।' अवश्य ही हमारे मित्र इससे चकित होते हैं, उत्तर देते संकोच करते हैं और शिष्टता के नाते क्षमा चाहते हैं। पर मैं उन्हें छोड़ता नहीं और उनको उत्तर देने के लिए बाध्य करता हूँ।
मेरे पहले मित्र एक वृद्ध ईसाई पादरी हैं। वे 36 वर्ष से भारत में ईसाई-मत के प्रचार में तो उतना नहीं, पर सपत्नीक देश के दरिद्र नर-नारियों की सामाजिक सेवा में लगे रहे हैं। मेरे हृदय में उनके लिए बड़ा सत्कार और प्रेम है। उनका उत्तर थोड़े में यह है कि, 'तुम लोग अपने काम में गर्व नहीं लेते।' विस्तार से उन्होंने बताया कि यहाँ पर जब किसी को कोई नौकरी चाहिए तो अतिशयोक्तिपूर्ण शब्दों में वह दरखास्त देता है। बहुत ही 'विनय' और 'सम्मान' के साथ वह आरंभ करता है। अंत में प्रतिज्ञा करता है कि यदि स्थान मिल जायेगा, तो वह सदा अपने मालिक की शुभकामना करेगा। पर स्थान मिलते ही वह अपने काम अर्थात् अपनी जीविका के साधन को ही खराब समझने लगता है। अन्य साथियों से मिलकर काम खराब करने के लिए षड्यंत्र रचने लगता है और मालिक की नाकोंदम कर डालता है। और देशों में भी लोग नौकरी की दरखास्त देते हैं। वे साधारण शब्दों में प्रार्थना-पत्र लिखते हैं और जब स्थान मिल जाता है तो इस तरह काम करते हैं जैसे संसार की गति उन्हीं पर निर्भर करती है और वे यदि काम छोड़ दें तो संसार डूब जाय।
बात इस पादरी मित्र ने बहुत ठीक कही। हमें अपने काम का गर्व नहीं है। दुःख तो इसका है कि मुल्क की परंपरा में अपने काम का गर्व करने का आदेश है। जाति-भेद इसी पर निर्भर करता है। एक जाति का आदमी दूसरी जाति के आदमी द्वारा अपना मान-मर्यादा नहीं चाहता। वह अपनी जातिवालों के बीच अपना उपयुक्त पद और स्थान चाहता है। यह अपनी जीविका के साधनों का बड़ा आदर-सत्कार करता है। बढ़ई अपने औजारों की और दुकानदार अपनी बहियों की निश्चित तिथियों पर पूजा करता हैं। पर लंबी दासता के कारण हम अपनी परंपरा को भूल गये हैं। हम अपना काम छोड़कर दूसरों का काम उठाते हैं। एक काम छोड़कर दूसरा काम लेते रहते हैं। हम अपनी असफलता का दोष दूसरों को देते हैं। स्वयं दुखी रहते हैं, दूसरों को भी दुःखी करते हैं। कोई काम ठीक न कर सकने के कारण अपने को खराब करते हैं, काम को भी खराब करते हैं। 'स्वधर्म निधन श्रेयः' (अपना धर्म या कर्तव्य करते हुए मर जाना श्रेयस्कर है) यह आदेश हम भूल गये। हम अपने काम में गर्व नहीं लेते।
दूसरे मित्र एक वृद्ध सरकारी कर्मचारी आई.सी.एस. (आई.ए.एस.) के सदस्य हैं। 30 वर्ष से अधिक भारत में गवर्नमेन्टी नौकरी कर हाल में पेन्शन लेकर वापिस स्वदेश गये। न जाने कैसे मेरी उनसे बड़ी मैत्री हो गई। वही सवाल मैंने उनके सामने पेश किया। उत्तर मिला - 'तुम लोग जिम्मेदारी नहीं समझते।' विस्तार में इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति का समष्टि की तरफ जो कर्तव्य होता है, उसे हम नहीं जानते। जो काम उठाया उसे करना चाहिए - यह गुण हम भूल गये। किसी को किसी पर विश्वास नहीं रह गया है। खाने की दावत हो तो न मेजबान को यह विश्वास कि मेहमान समय से आवेंगे, न मेहमान को विश्वास कि समय पर जाने से खाना मिल जाएगा। न गृहस्थ को विश्वास कि धोबी और दरजी वायदे पर कपड़े दे जायेंगे, न धोबी और दरजी को विश्वास है कि हमें समय से दाम मिल जायेंगे। रेलगाड़ी पर चढ़नेवालों को यह विश्वास नहीं कि पहले से बैठे मुसाफिर उन्हें स्थान देंगे, पहले से बैठनेवालों को यह विश्वास नहीं कि नया मुसाफिर धीरे से आकर उचित स्थान लेगा और व्यर्थ का शोर न मचायेगा, न और प्रकार से तंग करेगा। सड़क पर चलनेवालों का यह विश्वास नहीं कि आगे चलनेवाला अपना छाता इस तरह से खोलेगा कि उस की नोक से मेरी आँख न फूट जायगी, या पीछे चलनेवाला मुझे व्यर्थ धक्का न देगा। किसी को किसी पर यह विश्वास नहीं कि केले, नारंगी का छिलका या सूई, पिन आदि इस तरह वह न छोड़ेगा, जिससे दूसरों को कष्ट न पहुँचे। माँगी चीज ठीक हालत में वापिस करेगा, इत्यादि, इत्यादि। हम केवल अपनी तात्कालिक सुविधा देखते हैं, सारे संसार को अपने आराम के लिए बना समझते हैं। दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों का अनुभव नहीं करते। इसी कारण हम सब एक-दूसरे के प्रति अविश्वसनीय और अस्पृश्य हो गये हैं। हम अपना धार्मिक आदर्श भूल गये - 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।', 'हम अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते।'
तीसरा व्यक्ति एक स्त्री है। सात-आठ वर्षों से अपने को भारतीय बनाकर बड़े प्रेम और श्रद्धा से, बड़ी तत्परता से वे भारत की सेवा कर रही हैं। असहयोग-आंदोलन में वे जेल भी जा चुकी हैं। कई कारणों से भारतीयों का निकटतम अनुभव उन्हें कई कार्यक्षेत्रों में हुआ है। उनको भी मैंने घेरा। उनका उत्तर था - 'तुम लोग बड़े आलसी हो।' अर्थात् हम लोगों ने श्रम का महत्त्व ही नहीं पहचाना है। मेहनत करना तो हमने मरभुक्खों का काम समझ रखा है। बड़े लोगों का काम को केवल बैठे रहना है। हम भूल गये कि संसार में जो बड़े हुए हैं, वे सब अथक परिश्रमी रहे हैं। जब हम परिश्रम ही न करेंगे, तो सफलता कैसे पावेंगे ? आरंभशूर तो हम हैं, पर हममें लगन नहीं है। इसी कारण न हम अपने रोजगार में और न अपने गृहस्थी संबंधी या सार्वजनिक कार्य में सफल होते हैं। रोने, पीटने, झींकने में जितना समय हम बिताते हैं, उतना यदि काम में बितायें तो हम देश की और अपनी काया पलट सकते हैं। 'हम लोग बड़े आलसी हैं।'
चौथा व्यक्ति एक बड़ी वृद्धा स्त्री थी। वे संसार में प्रसिद्ध थीं। मेरे कुल से उनका बड़ा प्रेम था। मेरी पितामही तुल्य थीं। उनको भी मैंने तंग किया - 'आपने तो अपने 40 वर्ष हमारे देश की विविध सेवाओं में लगा दिये हैं। आपको बतलाना ही होगा कि हमारा क्या दोष है, जिससे हमारी उन्नति नहीं होती ?' थोड़े में उनका उत्तर था - 'तुम लोगों में उदारता नहीं है। विस्तार से उदाहरण दे-देकर उन्होंने बतलाया कि भारत में लोग दूसरों को आगे नहीं बढ़ाते। स्वयं को ही आगे रहना चाहते हैं।' गुणी नवयुवकों को अपनी योग्यता दिखलाने का मौका नहीं देते। उनके मरने के बाद उनका काम ही खराब हो जाता है। वास्तव में वृद्धा की बातें ठीक थीं। अंत तक पिता पुत्र को घर का काम नहीं बतलाता। कितने ही कुटुंब इसके कारण नष्ट हो गये। बड़े-बड़े गुणी अपनी विद्या साथे लेकर मर गए। इस कारण कितने ही वैज्ञानिक आविष्कार, औषधियाँ आदि लुप्त हो गईं। पेशों में इतनी प्रतिद्वंद्विता हो गई है कि बड़ा छोटे को काम नहीं सिखलाता। सार्वजनिक जीवन में तो इतनी बीभत्स दीख पड़ती है कि चित्त व्याकुल हो जाता है। कितना काम बिगड़ता है, इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया जाता।
सारांश यह है कि ठीक समय से उपयुक्त काम न उठाकर और अपने काम में गर्व न रखकर, उसके करने में दूसरों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को न अनुभव कर, अपने काम की एक-एक तफसील को समझकर, उसमें दत्तचित्त होकर परिश्रम के साथ उसे स्वयं न कर और उदाहरता के साथ उसे दूसरों को न सिखाकर हम अपना नाश कर रहे हैं। चारों मित्रों ने एक-एक अंश हमारे दोषों का बतलाया। उन सबको मिलाकर मैंने उत्तर पूर्ण कर दिया। यदि और भी सूत्रवत् सत्य कोई जानना चाहे तो मैं कहूँगा कि हम नागरिक कर्तव्यों और अधिकारों को भूल गये हैं। बड़ेसे-बड़े नेता के होते हुए भी हम साधारण-जन उनसे कोई लाभ नहीं उठा रहे हैं। हम उनकी मूर्ति की स्थापना करते हैं, उनका जय जयकार पुकारते हैं और इसी में अपने धर्म की इतिश्री समझते हैं। हम उनके कहे अनुसार चलते नहीं; आदेशों के अनुरूप अपने जीवन का संगठन नहीं करते। यही कारण है कि हम वहीं के वहीं है। संसार वेग से चला जा रहा है, हम तटस्थ हैं, सामने सब कुछ है, जो आकर हमारा काम कर दे। दूसरा क्या कर सकता है, जब हम खुद कुछ नहीं करना चाहते ? यदि हम ख्याल रखें कि देश-भक्ति केवल व्याख्यान देने में नहीं है, किन्तु ठीक तरह से काम करने में है, यदि हम यह अनुभव कर सकें कि हम कर्तव्य ठीक प्रकार करते हैं तो हम किसी भी देशभक्त से कम नहीं हैं - और बहुत से बड़े लोग हैं जो इस नाम से प्रसिद्ध किये गये हैं - यद्यपि हमारा कार्यक्षेत्र संकुचित ही क्यों न हो, हम केवल धोबी, दरजी, किसान, मजदूर, दुकानदार, पहरेदार, गाँव-शिक्षक ही क्यों न हों - तो हमारा देश एकदम जाग उठेगा, उसके एक-एक अंग में जान आ जायेगी। हमारे व्यक्तिगत जीवन के संगठित होते ही सारा देश और मनुष्य-समाज स्वतः संगठित हो जायेगा। देश को केवल उपयुक्त नागरिकों की आवश्यकता है, किसी दूसरे प्रकार के मनुष्य या वस्तु की नहीं है, नहीं है, नहीं है।
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