विज्ञान और धर्म निबंध का सारांश - Vigyan aur Dharm Nibandh ki Summary and Question Answer

Vigyan aur Dharm Nibandh ki Summary and Question Answer : मित्रों आज के लेख में हमने आचार्य रामचंद्र शुक्ल के सुप्रसिद्ध निबंध विज्ञान ...

Vigyan aur Dharm Nibandh ki Summary and Question Answer : मित्रों आज के लेख में हमने आचार्य रामचंद्र शुक्ल के सुप्रसिद्ध निबंध विज्ञान और धर्म का सारांश प्रस्तुत किया है। इस लेख के अंतर्गत हम विज्ञान और धर्म का सारांश तथा प्रश्नोत्तर (Vigyan aur Dharm Nibandh By Ramhandra Shukla Question Answer) और इस निबंध के महत्वपूर्ण बिंदुओं (Important Points) के बारे में जानेंगे।

    विज्ञान और धर्म निबंध का सारांश - रामचंद्र शुक्ल

    प्रस्तुत निबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने विज्ञान से उद्भुत तार्किकता और धर्म से संबद्ध आस्था एवं आस्तिकता के अंतर को स्पष्ट किया है। प्राचीन समय में धर्म के प्रति अंधविश्वास के कारण लोग जीवन में घटी किसी भी घटना को कार्य-कारण की कसौटी पर परखे विना उसे ईश्वरीय देन मानकर संतोष कर लेते थे किंतु विज्ञान ने मनुष्य को ऐसी दृष्टि दी जिसने उसे हर वस्तु से जुड़े प्रत्येक पहलू को तार्किक ढंग से सोचने को मजबूर किया।

    विज्ञान के जिस सिद्धांत ने प्राचीन काल से चली आ रही अवधारणा को बदला- वह थी सृष्टि के विकास की अवधारणा। पूर्व तथा पश्चिम के दार्शनिक एवं तत्त्ववेत्ता सृष्टि के विकास के जिस सिद्धांत को लेकर लगभग एकमत थे, उसके अनुसार सृष्टि का विकास किसी अव्यक्त सत्ता से हुआ है। किंतु वैज्ञानिकों ने वर्षों की शोध के आधार पर जिस प्रमाण पुष्ट सिद्धांत को दुनिया के सामने रखा, उसके अनुसार सृष्टि के विभिन्न जीवों का विकास लाखों वर्षों में धीरे-धीरे होने वाले परिवर्तन के परिणाम से हुआ। हैकल आदि वैज्ञानिकों ने सृष्टि के विकास के इस नियम को केवल मनुष्य, पशु वनस्पति आदि सजीव प्राणियों पर ही नहीं अपितु संपूर्ण सृष्टि के संदर्भ में सिद्ध किया और बताया कि प्रत्येक पदार्थ एक ही मूल रूप से धीरे-धीरे विकसित हुआ है। वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत इस सिद्धांत ने अनादि काल में चले आ रहे उस पौराणिक विश्वास को उलट दिया कि संपूर्ण सृष्टि की रचना ईश्वर द्वारा एक समय में एक ही साथ की गयी।

    सृष्टि के इस विकास सिद्धांत से न केवल चराचर जगत, अपितु धर्म, कर्त्तव्य और सभ्यता के विकास को भी आंका गया। इसके अनुसार जिस प्रकार प्राणी-जगत का विकास धीरे-धीरे होने वाले परिवर्तन का परिणाम है, उसी प्रकार धर्म और आचरण की व्याख्या भी हर युग में परिवर्तित होती रही। आरंभिक काल के मनुष्य के ज्ञान का दायरा बहुत सीमित था, जो बाद में विकसित होता गया।

    लेखक के अनुसार परस्पर सामाजिक व्यवहार से धीरे-धीरे आचरण और धर्म की व्याख्या में परिवर्तन होते गये। आरंभ में जब मनुष्य ने यह देखा कि अलग-थलग रहने की अपेक्षा परस्पर सहयोग और सहभागिता से किसी लक्ष्य को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है तो उसने परिवार में रहना सीखा। एक परिवार में रहते हुए समहित की भावना का विकास हुआ। परिवार के सदस्यों ने एक-दूसरे के सुख-दुःख में साथ रहना सीखा और इसी से परिवार-धर्म तथा लोकधर्म का विकास हुआ।

    लंबे समय तक साथ रहने से मनुष्य में परस्पर स्नेह और सहानुभूति की भावना का विकास हुआ। अपने अच्छे कार्यों के लिए मिलने वाले साधुवाद ने उसे और अच्छे कामों को करने के लिए प्रेरित किया और बुरे कामों के लिए उसमें पश्चाताप का भाव जागा। इस प्रकार विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार धर्म का कोई पहले से निश्चित रूप नहीं था और न ही उसे किसी अलौकिक सत्ता द्वारा बनाया गया। धर्म का विकास मनुष्य द्वारा अपने समय और समाज की आवश्यकता के अनुसार किया गया। इसी कारण धर्म की परिभाषा और अवधारणा समय के साथ-साथ बदलती रही। 

    विज्ञान और धर्म निबंध के मुख्य बिंदु

    1. शिक्षा एवं विज्ञान के प्रसार और उससे उत्पन्न बुद्धिवादिता ने युगों से चली आ रही जगत्-संबंधी अवधारणाओं को बदल दिया। 
    2. विज्ञान द्वारा प्रस्तुत कार्य-कारण-श्रृंखला ने सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को अमान्य घोषित किया। 
    3. दार्शनिकों के अनुसार किसी अव्यक्त सत्ता अथवा प्रकृति ने सृष्टि का निर्माण किया किंतु वैज्ञानिकों ने सृष्टि के विकास के संदर्भ में संसार को नयी दृष्टि दी। 
    4. सृष्टि के विकास की नयी व्याख्या के अनुसार इस पृथ्वी पर क्रम-क्रम से एक ढांचे के जीव से दूसरे ढांचे के जीव लाखों वर्षों की परिवर्तन-परंपरा के प्रभाव से बराबर उत्पन्न होते गये। 
    5. सृष्टि के इस विकास-सिद्धांत का प्रभाव मनोविज्ञान, धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र आदि पर भी पड़ा और उन्होंने भी अपनी व्यवस्था इस सिद्धांत के अनुकूल बदली। 
    6. इसके प्रभाव से यह माना जाने लगा कि धर्म और लोक-व्यवहार भी हमेशा एक-जैसे नहीं रहे। समय के साथ-साथ इनका भी क्रमशः विकास होता रहा है। 
    7. एक समय में प्रचलित मान्यताएँ, परंपराएँ और नैतिक अवधारणाएँ दूसरे समय में बदलती रहीं और अंततः परस्पर स्नेह और सहायता की प्रवृत्ति को धर्म का मूल आधार मान लिया गया। 
    8. विज्ञान और शिक्षा के प्रसार ने धर्म को विभिन्न मतों और संप्रदायों के संकीर्ण दायरे से निकालकर मानवता के विशाल आधारफलक पर स्थापित किया। 

    विज्ञान और धर्म निबंध के प्रश्न उत्तर

    प्र० 1 : लेखक ने दार्शनिक अनुमान और वैज्ञानिक निश्चय में क्या अंतर बताया है? 
    उत्तर : लेखक के अनुसार दर्शन अनुमान और संकेतों के आधार पर चलता है किंतु वैज्ञानिक ब्यौरों की छानबीन करते हुए तथ्यों के आधार पर अपनी बात को स्थापित करते हैं। 

    प्र० 2 : विकासवाद का सिद्धांत सर्वप्रथम किसने दिया? 
    उत्तर : प्राणियों की उत्पत्ति से संबद्ध विकासवाद का सिद्धांत सर्वप्रथम डारविन ने दिया। 

    प्र० 3 : सुप्रसिद्ध प्राणिविज्ञान विशारद हैकल किस देश के थे? 
    उत्तर : प्राणिविज्ञान विशारद हैकल जर्मनी के थे। 

    प्र० 4 : हैकल के प्राणिविज्ञान-संबंधी ग्रंथ का नाम बताइए। 
    उत्तर : हैकल के प्राविविज्ञान-संबंधी ग्रंथ का नाम है : 'प्राणियों की शरीर रचना'।

    प्र० 5 : विकास-नियम की चरितार्थता सर्वप्रथम कहाँ सिद्ध की गयी? 
    उत्तर : विकास-नियम की चरितार्थता सर्वप्रथम सजीव सृष्टि, अर्थात, जीव-जंतुओं और वनस्पति में सिद्ध की गयी।

    प्र० 6 : प्राचीन एवं अधुनातन मनुष्य के ज्ञान-विज्ञान-संबंधी अंतर को स्पष्ट कीजिए। 
    उत्तर : प्राचीन समय का मनुष्य सहज विश्वासी था। आसपास की वस्तुओं और घटनाओं की गहरी छानवीन की अपेक्षा उन्हें उसी रूप में लेना उसकी प्रकृति थी। वह हर बात के कारण के मूल में न जाकर उसे ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार कर लेता था। किंतु आधुनिक काल में भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, प्राणिविज्ञान आदि का विकास होने से कार्य-कारण-संबंध-दृष्टि की स्थापना होने लगी। नये ज्ञान-विज्ञान की उन्नति से बौद्धिकता पर बल दिया जाने लगा और धर्म के स्थापित नियमों की अपेक्षा विज्ञान की तार्किकता का महत्त्व स्थापित हुआ।

    प्र० 7 : विभिन्न संप्रदायों की पौराणिक सृष्टि-कथाएँ वैज्ञानिकों के विकास-नियम के किस प्रकार विरोधी ठहरती हैं? 
    उत्तर : पौराणिक एवं धार्मिक सृष्टि कथाओं के अनुसार संपूर्ण सृष्टि का नियंता एवं निर्माता ईश्वर है। सभी वस्तुएँ एवं जीव-जंतु उसी के द्वारा एक साथ निर्मित किये गये हैं। किंतु वैज्ञानिकों द्वारा स्थापित विकास का नियम' यह सिद्ध करता है कि संपूर्ण प्राणिजगत, जीव जंतु आदि समय के अंतराल से धीरे-धीरे विकसित हुए । अपनी आरंभिक अवस्था में किसी जीव में जो विशिष्टताएँ थी, वे समय और आवश्यकता के अनुसार बदलती गयीं और उसी के अनुसार उस विशिष्ट जीवधारी का स्वरूप भी बदलता गया। इस प्रकार जहाँ पौराणिक सृष्टि कथाओं में जीवों की उत्पत्ति की बात कही गयी है वहाँ वैज्ञानिक नियम विकास के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं।

    प्र० 8 : वैज्ञानिकों के अनुसार सृष्टि विकास का सिद्धांत क्या है? 
    उत्तर : विभिन्न दार्शनिकों ने सृष्टि के विकास के संबंध में जो विचार व्यक्त किये उनके अनुसार ईश्वर ने संसार की
    सभी वस्तुओं का निर्माण एक साथ किया और इस प्रकार सृष्टि अस्तित्व में आयी। किंतु विभिन्न शोधों और प्रमाणों के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया कि पृथ्वी के सभी प्राणी लाखों वर्षों की परिर्वतन श्रृंखला के प्रभाव से विकसित हुए। सुप्रसिद्ध प्राणिविज्ञानी डारविन ने सृष्टि के विकास को सहज विकास (Natural Selection) की संज्ञा दी और कहा कि सभी प्राणी एक ही पूर्वज की संतान हैं। समय के प्रभाव से धीरे धीरे अपनी आवश्यकता के अनुसार इनकी संरचना में परिवर्तन आता गया, आवश्यक अंगों का विकास होता गया और अनावश्यक अंग विलुप्त होते गये। 'अपनी मान्यता को पुष्ट करने के लिए उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि मान लीजिए किसी प्राणी ने अपनी आवश्यकता और लाभ के लिए अपने पंखों से उड़ना सीख लिया तो उसकी संतानें भी उस लाभ को अपना लेंगी और उसे आने वाली पीढ़ी तक बढ़ाती चलेंगी। अपने अनुपयोगी अंगों का प्रयोग न करने के कारण वे धीरे-धीरे विलुप्त होते जाएंगे और धीरे-धीरे एक लंबे अंतराल के बाद जो नयी जाति (Breed) विकसित होगी, वह अधिक श्रेष्ठ और उत्कृष्ट होगी। इसी प्रकार हर्बर्ट स्पेंसर ने भी प्राणियों के विकास को एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया बताया, जिसके अनुसार प्राणी अपनी विशेषताओं और आदतों को तब तक बदलते रहते हैं जब तक वे आस-पास के वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल नहीं लेते। 

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