दोस्तों आज के इस लेख में छात्रों या विद्यार्थियों को राजनीति में प्रवेश लेना चाहिए अथवा नहीं या राजनीति में छात्रों का प्रवेश उचित है अथवा अनुचित, इस पर एक निबंध प्रस्तुत किया जा रहा है। जिसमें छात्र और राजनीति से संबंधित विचार प्रस्तुत किए गए हैं। इस निबंध के माध्यम से छात्रों के लिए राजनीति में प्रवेश फायदेमंद है या नुकसानदायक इसकी जानकारी मिलेगी। आधुनिक युग में राजनीति दो प्रकार की हो गई है। पहली राजनीति वह है जैसे—छात्र को कक्षा में गणित, इतिहास, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विषयों की शिक्षा दी जाती है। उसी प्रकार नागरिकशास्त्र की तथा उच्च कक्षाओं में नामांतरित होकर उसी विषय की राजनीति विज्ञान के रूप में शिक्षा दी जाती है। बारहवीं कक्षा तक तो राजनीति जैसा कोई नाम भी छात्रों के विषयों में नहीं होता क्योंकि छोटे बच्चे उस विषय को समझ नहीं सकते, प्रबुद्ध एवं बड़े छात्रों के लिए ही उस विषय की उपयोगिता है।
दोस्तों आज के इस लेख में छात्रों या विद्यार्थियों को राजनीति में प्रवेश लेना चाहिए अथवा नहीं या राजनीति में छात्रों का प्रवेश उचित है अथवा अनुचित, इस पर एक निबंध प्रस्तुत किया जा रहा है। जिसमें छात्र और राजनीति से संबंधित विचार प्रस्तुत किए गए हैं। इस निबंध के माध्यम से छात्रों के लिए राजनीति में प्रवेश फायदेमंद है या नुकसानदायक इसकी जानकारी मिलेगी।
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आधुनिक युग में राजनीति दो प्रकार की हो गई है। पहली राजनीति वह है जैसे—छात्र को कक्षा में गणित, इतिहास, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विषयों की शिक्षा दी जाती है। उसी प्रकार नागरिकशास्त्र की तथा उच्च कक्षाओं में नामांतरित होकर उसी विषय की राजनीति विज्ञान के रूप में शिक्षा दी जाती है। बारहवीं कक्षा तक तो राजनीति जैसा कोई नाम भी छात्रों के विषयों में नहीं होता क्योंकि छोटे बच्चे उस विषय को समझ नहीं सकते, प्रबुद्ध एवं बड़े छात्रों के लिए ही उस विषय की उपयोगिता है। इसलिए बी० ए० से यह विषय पढ़ाया जाता है जिसमें राजनीति का स्वरूप, भिन्न-भिन्न वाद, विभिन्न सिद्धान्त तथा विभिन्न शासन-प्रणालियों पर विचार किया जाता है। यह तो हुई वह राजनीति जो कॉलेजों में सिर खफा कर पढ़ी जाती है। दूसरी प्रकार की राजनीति पर नीचे विचार किया जायेगा।
नया युग आया, विचारधाराओं में नई मान्यतायें आई और विद्यार्थी ने भी अपनी शिष्टता सभ्यता और अनुशासनप्रियता का पुराना कलेवर उतार कर फेंक दिया। “काकचेष्टा बकोध्यानम्” और "सुखार्थी वा त्यजेत् विद्या" वाली पुरानी उक्तियाँ रद्दी के टोकरे में फेंक दी गई। उनके स्थान पर तफरीह और कॉलेज में गुटबन्दियों व अनुशासनहीनता जैसी चीजों ने घर कर लिया। जैसे आज के विज्ञान के युग में कोई वस्तु असम्भव नहीं रही और नैपोलियन की डिक्शनरी में असम्भव कोई शब्द ही नहीं था, उसी प्रकार आज के नये विद्यार्थियों के लिये भी कोई वस्तु असम्भव नहीं रही।
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अब प्रश्न उठता है कि क्या विद्यार्थी को देश की वास्तविक राजनीति में भाग लेना चाहिये या नहीं। कम-से-कम मैं इस निश्चित मत का हूँ कि एक अच्छे विद्यार्थी को पढ़ने के अतिरिक्त इतना समय ही नहीं होता कि वह इधर-उधर की खुराफातों में लगा रहे। उसे तो रोज पढ़ने के लिए प्रतिदिन जितना समय मिलता है वह भी कम मालूम पड़ता है इसलिए वह रात को सोने के घण्टों में कमी करके पढ़ता है। दूसरी बात यह है कि पहले आप योग्य बनिये फिर महत्वाकांक्षा कीजिये। योग्य व्यक्ति के पीछे तो सफलतायें स्वयं आती हैं, योग्य आप बनें नहीं और नेता बनने का प्रयत्न करने लगे तो आप कभी सफल नहीं होंगे। तीसरी बात यह है कि आप अपने अधिकार और कर्तव्य का पालन कीजिये। आपको मालूम होना चाहिये कि आप विद्यार्थी हैं। अतः आपके क्या कर्तव्य हैं और क्या-क्या अधिकार हैं। यदि आपने अपने कर्तव्य में कमी की तो आप असफल हुए और यदि आपने वह काम किया जो आपके अधिकार से बाहर है तो आप दूसरों की दृष्टि से गिरे। आन्दोलन, सत्याग्रह, हड़ताल और तोड़-फोड़, मैं समझता हूँ कि न तो यह विद्यार्थी का कर्तव्य ही है और न उसका अधिकार ही है। चौथे जब विद्यार्थी राजनीति में भाग लेने लगता है तो न। वह पूरा समय पढ़ने को ही दे सकता है और न पूरा समय राजनीति में ही लगा सकता है। इसलिए वह बीच में ही लटका रहता है, अर्थात् न पूर्ण ज्ञान ही प्राप्त कर सका और न पूरा नेता ही बने पाया। इस प्रकार उसका भविष्य अन्धकारमय बन गया और उसके जीवन में अनुशासनहीनता घर कर गई।
हाँ, इतना अवश्य है कि विद्यार्थी को कूप-मण्डूक भी नहीं होना चाहिए। उसे अध्ययन से बचे समय में अपनी सामान्य ज्ञान-वृद्धि के लिए देश-विदेश में घटने वाली घटनाओं पर मनन और चिन्तन करना चाहिये । भिन्न-भिन्न वादों पर विचार करना, देश की विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों पर विचार विनिमय करके अपना ज्ञानावर्धन करना अच्छे विद्यार्थियों के लक्षण हैं। विद्यार्थी, क्योंकि समाज का ही एक अंग है, अतः समाज की प्रत्येक गतिविधि से वह आँखें बन्द करके रहे, यह भी सम्भव नहीं है, परन्तु यह सम्भव है कि वह उनमें लिप्त न हो, केवल दर्शक मात्र बना रहे क्योंकि विद्यार्थी का लक्ष्य विद्या प्राप्त करना है, न कि नारेबाजी और हुल्लड़बाजी करना। हाँ, यदि सन् 1942 की सी स्थिति आ जाए और आन्दोलन के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा न रहे, तो फिर लाचारी है।
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अतः हमें ध्यान रखना चाहिये कि हमारे माता-पिता अपने परिश्रम से पैदा किये हुए धन को हमारे ऊपर इसलिए खर्च करते हैं कि हम पढ़-लिखकर कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकें और एक सुयोग्य नागरिक बन सकें जिससे उनका मान बढ़े। जब हम किसी आन्दोलन या हुल्लड़बाजी में पड़कर पुलिस के डण्डे के नीचे आ जाते हैं और महीनों खाट पर पड़े रहकर सिसकते रहते हैं तब उनको कितना दु:ख होता है। जब हमें पकड़कर पुलिस जेल भेज देती है तो उनको क्या-क्या कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं, यह हम कल्पना भी नहीं कर सकते। विद्यार्थी जीवन में ही राजनीति के चक्कर में पड़ने वाला विद्यार्थी कभी सफल राजनीतिज्ञ नहीं बन पाता, कारण उसमें समुचित एवं आवश्यक बौद्धिक क्षमता का अभाव होता है। उसकी वही हालत होती है कि “धोबी का कुत्ता, न घर का रहा, न घाट का” और क्योंकि वे शुरू से ही अनुशासनहीन और उद्दण्ड हो जाते हैं इसलिए उनका जीवन भी सफल नहीं हो पाता।
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