नक्सलवाद : भारत की आंतरिक सुरक्षा को चुनौती एवं इसका प्रबंधन आन्तरिक सुरक्षा भारत की एक गम्भीर समस्या रही है। आजादी को आरम्भ से लेकर अब तक कभी भाषा को लेकर आन्तरिक संघर्ष, कभी सम्प्रदाय/जातियों के मध्य संघर्ष तो कभी क्षेत्रियता को लेकर संघर्ष से सभी भारत की आन्तरिक व्यवस्था में अस्थिरता पैदा करते रहे है। नक्सलवादी संघर्ष भी उनमें से एक रहा है। यद्यपि नक्सलवादी संघर्ष आरम्भ में एक सिधान्तवादी आन्दोलन रहा, इसके प्रति बुद्धिजीवि वर्ग का समर्थन रहा किन्तु कालान्तर में यह सामाजिक – आर्थिक आन्दोलन अपने मूल दर्शन से विमुख हुआ तथा आन्दोलन के जगह संघर्ष में परिवर्तित हो गया। सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा के लिए स्वंय एक चुनौती बन गया। देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब 15 सितम्बर 2009 को दिल्ली में पुलिस अधिकारियो के सम्मेलन में नक्सलवाद को देश का सबसे बड़ा खतरा बताया। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी अपने अभिभाषण में नक्सलवाद को देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए चुनौती माना। अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि वर्तमान का नक्सलवाद पं० बंगाल के नक्सलवादी गाँव 1967 के कानूसन्याल एवं चारूमजूमदार के नेतृत्व वाले नक्सवाद से बिल्कुल अलग हैं। वेदमारवाह (पूर्व डी.जी.पी. नेशनल सिक्योरिटी गार्ड) का मानना है कि “चौथी दुनिया के नाम से संबोधित होने वाले नक्सलवादी समाज का सशस्त्र आन्दोलन भारत में अपने तीसरे चरण में पहुँच चुका है। बीते दो चरणों के मुकाबले यह विद्रोह ज्यादा नुकसानदेह, घातक और विस्फोटक है।”
आन्तरिक सुरक्षा भारत की एक गम्भीर समस्या रही है। आजादी को आरम्भ
से लेकर अब तक कभी भाषा को लेकर आन्तरिक संघर्ष, कभी सम्प्रदाय/जातियों
के मध्य संघर्ष तो कभी क्षेत्रियता को लेकर संघर्ष से सभी भारत की आन्तरिक व्यवस्था
में अस्थिरता पैदा करते रहे है। नक्सलवादी संघर्ष भी उनमें से एक रहा है।
यद्यपि नक्सलवादी संघर्ष आरम्भ में एक सिधान्तवादी आन्दोलन रहा, इसके प्रति
बुद्धिजीवि वर्ग का समर्थन रहा किन्तु कालान्तर में यह सामाजिक – आर्थिक आन्दोलन
अपने मूल दर्शन से विमुख हुआ तथा आन्दोलन के जगह संघर्ष में परिवर्तित हो गया।
सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा के लिए स्वंय एक चुनौती बन गया।
देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब 15 सितम्बर 2009 को दिल्ली
में पुलिस अधिकारियो के सम्मेलन में नक्सलवाद को देश का सबसे बड़ा खतरा बताया।
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी अपने अभिभाषण में नक्सलवाद को देश की आन्तरिक
सुरक्षा के लिए चुनौती माना।
अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि वर्तमान का नक्सलवाद पं० बंगाल के
नक्सलवादी गाँव 1967 के कानूसन्याल एवं चारूमजूमदार के नेतृत्व वाले नक्सवाद
से बिल्कुल अलग हैं।
वेदमारवाह (पूर्व डी.जी.पी. नेशनल सिक्योरिटी गार्ड) का मानना है कि
“चौथी दुनिया के नाम से संबोधित होने वाले नक्सलवादी समाज का सशस्त्र आन्दोलन
भारत में अपने तीसरे चरण में पहुँच चुका है। बीते दो चरणों के मुकाबले यह विद्रोह
ज्यादा नुकसानदेह, घातक और विस्फोटक है।”
पहले चरण में जल, जंगल जमीन पर जनता के अधिकार के लिए माओवादी
विचार के अन्तर्गत नक्सलवाद का विकास हुआ। यह संघर्ष शाषित बनाम शासक का था।
यह वह दौर था जब समाज का एक वर्ग नक्सलवाद को व्यवस्था को विद्रोह
सन्दर्भ में एक बुद्धिजीवि आन्दोलन के तौर पर मानता था। पश्चिम बंगाल में तो इस
आन्दोलन के व्यापक व समर्थन प्राप्त हुआ। तब एक वैचारिक आन्दोलन था।
दूसरे चरण में नक्सलवाद का प्रवेश तब हुआ जब इसका सीधा संघर्ष देश के
समाज बलों से हुआ। इस काल खण्ड मे नक्सलवाद का विस्तार हुआ और भारत का लाल
गलियारे का निर्माण हुआ, जो पश्चिम बंगाल से फैलाकर बिहार, झारखण्ड, उडि़सा, छत्तीसगढ़, मध्य
प्रदेश व महाराष्ट्र व आन्ध्र प्रदेश तक पहुंच गया।
यह स्थिति नक्सलवाद के संक्रमाण का रहा। यद्यपि इस काल में सरकार को
नक्सलवाद के तरफ से व्यापक चुनौती पेश की गई सरकार तंत्र की विफलता इन नक्सल
प्रभावित इलाकों में साफ दिखती है। नक्सल उन्मूलन के नाम पर सरकारी पैसों का बन्दरबाट
करने की कोशिश से ज्यादा प्रयास कभी नही दिखा।
विभिन्न सर्वे एवं स्वयसेवी संस्थाओ के अध्ययन इस बात की ओर संकेत
कर रहे है कि नक्सली आंन्दोलन अपने तृतीय चरण में प्रवेश कर चुका है। 25 मई 2013
को पहली बार एक सियासी पार्टी का काफिलें पर हमला इसी ओर संकेत करता है यह पहली
बार देखा गया कि अब नक्सलियो के निशाने पर नीति-नियंता, राजनैतिक
नेतृत्व व राजनैतिक पार्टिया है।
इस चरण में नक्लसलवादी संघर्ष अपने सबसे विभत्स रूप में अवतर्रित
हुआ। क्योंकि अबये वैचारिकी की लड़ाई नहीं रही न ही विकास की समस्या। इस
परिवर्तन की ओ स्वंय नक्सलवाड़ी आन्दोलन को प्रारम्भ करने वालो में से एक
कानूसन्याल ने अपने मौत से पूर्व एक साक्षात्कार में संकेत किया था। “उन्होंने
कहा था कि वर्तमान में जो नक्सलवाड़ी आन्दोलन का नया संसकरण माओवादी है, उसे माक्सवादी
नही कहा जा सकता है।” जिस जल जंगल जमीन के हक के लिए वे हथियार बंद है, उन्ही पर
निर्माण रखने के ऐवज में निजी घरानों व सरकारी महकमों से मोटी रकम वसूलते है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सर्वहारा की बात कर सुनहरे सपने
दिखाकर प्रारम्भ हुआ यह आन्दोलन अब गिरोह बन्द मिलिसिया से तब्दील हो चुका है, जिसका एक
मात्र उद्देश्य हथियारों के बल पर पैसे वसूलने व अपना तंत्र चलाना है।
अब, जब यह स्पष्ट हो चुका है कि नक्सवादी संघर्ष
अपने वैचारिकी को छोड़ राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त है और व्यापक
नरसंहार उनका साधन बन चुके है तो निश्चय ही हमे उनसे निबटने के साधनका प्रबन्धन
करना होगा।
यद्यपि प्रथम चरण में सरकार ने नक्सली आन्दोलन के प्रति नरम रूख
अपनाया और उन्हे मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया यह प्रयास आन्ध्र प्रदेश
में सफल रहा किन्तु अन्य क्षेत्रों में इसका नकारात्मक प्रभाव रहा द्वितीय चरण
में गुड गर्वनेन्स को आधार बनाकर समस्या का समाधान करने का प्रयास किया गया।
गृहमंत्री रहते हुए पी० चिदम्बरम् ने एक निती बनायी थी-क्लीयर, होल्ड
एण्ड डेवलेपमेंट की। इसमें पहले किसी क्षेत्र से माओवादियो का दखल कम किया जाना था, फिर वहा
प्रशासनिक पकड़ मजबूत बनाकर उसके बाद वहा पर आर्थिक विकास कि योजनाये लागू करनी
थी। इस पर उचित प्रबन्धन के साथ कार्य भी हुआ, किन्तु एक सियासी व्यक्ति
के चलते केवल आर्थिक विकास पर कार्य हुआ, जिसमें पी० चिदम्बरम् से लेकर गृहमंत्रालय व
सुरक्षा बल तक ढीले पड़ गये।
जबकि सशस्त्र तरीका उचित नही है। इनसे लड़ने का एकमात्र अचूक है
हथियार है- सीज एण्ड इंगेज (तलासियेव आमना-सामना किजिए) माओवादियो को खत्म करने
का इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है।
नक्सलवादी संघर्ष समाधान हेतु दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य है, हमे
बौद्धिक रूप से इसे पुन: परिभाषित करना होगा इस प्रयास में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री
डा० रमन सिंह की इसलिए तारीफ करनी चाहिए कि पहली बार उन्होने इस छद्वम जनवादी
युद्ध को राष्ट्रीय आतंकवाद की सज्ञां दी। किसी राजनेता ने पहली बार इस
समस्या को उसके राष्ट्रीय संदर्भ में पहचाना।
नक्सलवाद को इस नये दृष्टिकोण से देखते हुए केन्द्र व राज्यो को
आपसी समन्वय से कार्य करने का प्रबन्धन करना होगा। “आन्तरिक सुरक्षा पर आयोजित
मुख्यमन्त्रियो के सम्मेलनमें मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि
केन्द्र सरकार आन्तरिक सुरक्षा से जुड़े मामलो में निती निर्धारण में अक्सर
राज्य सरकारो को विश्वास में नहीं लेती।…….. जरूरत है कि केन्द्र सरकार दलगत राजनितिक से
उपर उठकर राष्ट्र के हित मे सोचे और आतंकवाद तथा नक्सलवाद विरोधी मुहिम मे राज्य
सरकारो के साथ कन्धा मिलाकर काम करे”।
विकास कार्यो का इस प्रकार प्रबन्धन करें जिससे राज्य व सरकारों के
मध्य उचित संमन्वय स्थापित हो सके और नक्सली क्षेत्रों का विकास सम्भव हो
सके।
पी० चिदम्बरम् ने गृहमंत्री रहते हुए सिर्फ केन्द्र व राज्य के बीच
संमन्वय बनाने में सफलता स्थापित की बल्कि दलगल राजनीति से उपर उठकर प्रभावित
राज्यों में जरूरत के मुताबिक केन्द्रीय बल मुहैया कराया।
नयी रणनीति के तहत आपरेशन ग्रीन हन्ट चलाया गया। जिसकी सफलता
भी सामने आयी और सरकार को झुकाने का सपना देखने वाले सरकार के समक्ष 72 दिन तक
हिंसा नहीं करने का प्रस्ताव देने लगे।
यद्यपि मोदी सरकार का रूख अभी नक्सलवाद को लेकर बहुत स्पष्ट नहीं
है। फिर भी विकास कार्यों पर कोई अस्पष्टता नही है। यह नक्सल प्रभावी क्षेत्रों
के विकास प्रबन्धन का परिणाम है कि विभिन्न योजनाओं के 160908 प्रोजेक्ट 10
प्रभावी राज्यों में संचालित है जिनमे से 129037 परियोजनायें 26 जनवरी 2015 तक
पूर्ण हो चुकी थी केन्द्र 9059.00 करोड़ में से 8149.61 करोड़ रूपये अब तक अवमुक्त
कर चुका है।
इसके अलावा 2 स्किल डेवलेपमेंट प्रोग्राम रोशनी व स्किल
डेवलेपमेंट 34 एल० डब्लू० ई० क्षेत्रों में ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा
चलाये जा रहे है। दातेवाड़ा मे हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 24 हजार करोड़
रूपये की स्टील प्लान्ट परियोजना को चालू किया गया। साथ ही 140 किमी० रेल लाइन
रावघाट से जगदलपुर का अनावरण किया जिससे निश्चय ही एल०डब्लू०ई० क्षेत्रों का
विकास होगा।
यह उचित प्रबन्धन का परिणाम है कि, केन्द्र व राज्य
सरकारों ने अपने नितियों में बहुत हद तक बदलाव करना शुरू कर दिया है। विकास के कई
परियोजनाओ को जमीन पर उतारने की कोशिश कि जा रही है। केंन्द्रीय ग्रामीण विकास
मंत्रालय जहा इस दिशा में ठोस पहल कर रहा है, वहीं नक्सल प्रभावी राज्य विशेषकर छत्तीसगढ़, झारखण्ड
और बिहार सरकार भी प्रभावित क्षेत्रो के कल्याण के लिए कई महत्वकाक्षी परियोजनाओ
को अमल में लाने की कोशिश कर रहे है। जिससे नक्सल आदिवादी इलाको मे व्याप्त
शोषण, गरीबी और बेरोजगारी दूर हो सके और वहा के लोग देश की मुख्य धारा में
जुड़ सके।
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