कबीर दास संत ही नहीं समाज सुधारक भी थे निबंध। Kabir Das ji ek samaj sudharak कबीरदास जी कवि थे। इससे भी अधिक क्रांतिकारी¸ समाज सुधारक और ईश्वर भक्त थे। उन्होंने कविता जैसे माध्यम का प्रयोग समाज सुधार के कार्य तथा समाज में फैले पाखंड और भ्रान्तियों को दूर करने के उद्देश्य से किया। कबीर जी ने कहीं से भी विधिवत शिक्षा ग्रहण नहीं की थी। कहते हैं कि उन्हें अक्षर ज्ञान भी नहीं था। फिर भी उनकी कविता का भाव इतना सशक्त बन पड़ा जिसके दृष्टिगत भाषा अथवा शैली का दोष अपदार्थ हो जाता है। यद्यपि कबीर जी पर कई विचारधाराओं का प्रभाव पड़ा तो भी कबीरदास जी का अपना मौलिक दर्शन है। परिणामस्वरुप रविंद्र नाथ ठाकुर की प्रतिष्ठित रचना गीतांजलि पर कबीर की रचना बीजक की गहरी छाप मिलती है। कबीर दास जी के जीवन-वृतांत के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है। परंतु कहते हैं कि ‘चौदह सो पचपन साल गए¸ चंद्रवार इक ठाठ भये, जेठ सुदी बरसाइत को पूर्णमासी प्रकट भए।’
कबीरदास जी कवि थे। इससे भी अधिक क्रांतिकारी¸ समाज सुधारक और ईश्वर भक्त थे। उन्होंने कविता जैसे माध्यम का प्रयोग समाज सुधार के कार्य तथा समाज में फैले पाखंड और भ्रान्तियों को दूर करने के उद्देश्य से किया। कबीर जी ने कहीं से भी विधिवत शिक्षा ग्रहण नहीं की थी। कहते हैं कि उन्हें अक्षर ज्ञान भी नहीं था। फिर भी उनकी कविता का भाव इतना सशक्त बन पड़ा जिसके दृष्टिगत भाषा अथवा शैली का दोष अपदार्थ हो जाता है। यद्यपि कबीर जी पर कई विचारधाराओं का प्रभाव पड़ा तो भी कबीरदास जी का अपना मौलिक दर्शन है। परिणामस्वरुप रविंद्र नाथ ठाकुर की प्रतिष्ठित रचना गीतांजलि पर कबीर की रचना बीजक की गहरी छाप मिलती है।
कबीर दास जी के जीवन-वृतांत के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है। परंतु कहते हैं कि:-
‘चौदह सो पचपन साल गए¸ चंद्रवार इक ठाठ भये
जेठ सुदी बरसाइत को पूर्णमासी प्रकट भए।’
उनका जन्म संवत 1456 के आसपास हुआ था। वह एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से पैदा हुए थे। समाज के भय के कारण वह नवजात शिशु को एक नदी के किनारे छोड़ गई। नीरू और नीमा नामक जुलाहा मुस्लिम दम्पत्ति ने शिशु को उठा लिया और उसका लालन पालन किया वे निर्धन थे। वे कबीर दास की शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध न कर सके। अतः जैसे ही कबीर बड़े हुए उन्होंने कपड़ा बुनने का कार्य सीखा। इस कार्य को वे जीवन पर्यन्त करते रहे और किसी पर आश्रित नहीं हुए। कबीर स्वयं अपनी शिक्षा के बारे में कहते है-
‘मसि काज छुओ नहीं कलम गही नहिं हाथ।’
कबीर दास जी को ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हुई तो भी गुरु की खोज करने लगे। उन दिनों काशी के स्वामी रामानंद की प्रसिद्धि चारों ओर फैली हुई थी। कबीर दास जी उनके पास गए और उनसे गुरु बनकर ज्ञान देने की प्रार्थना की। स्वामी रामानंद ने उन्हें शिष्य बनाना अस्वीकार कर दिया। कबीर दास अपनी धुन के पक्के थे। उन्हें पता था कि स्वामी नित्य गंगा स्नान के लिए जाते हैं। एक दिन उसी मार्ग पर वे गंगाघाट की सीढ़ियों पर लेट गए। प्रातः जब हमेशा की तरह स्वामी रामानन्द जी गंगा स्नान के लिए गए तो उनका पैर कबीरदास की छाती पर पड़ गया। उनके मुख से अकस्मात निकला ‘राम-राम’ कहो भाई। कबीर दास जी की दीक्षा हो गई और यही वाक्य उनका गुरूमंत्र बन गया। वे जीवन भर राम की उपासना करते रहे।
कबीर दास जी को सी राम नाम की उपासना से ही ज्ञान हो गया। ईश्वर से साक्षात्कार हुआ और सत्य का पता चला। इस समय हिन्दू तथा मुसलमान दो धर्म मुख्य रूप से प्रचलित थे दोनों धर्मों को रूढ़ियों ने जकड़ रखा था। हिन्दू जाति-पांति और छुआछूत के अतिरिक्त मूर्तिपूजा¸ तीर्थों तथा अवतारवाद को मानते थे। मुसलमानों में रोजा और बांग का चलन था। कबीर दास ने निर्भीक होकर समाज तथा दोनों धर्मों में व्याप्त रूढ़ियों पर प्रहार किया। हिन्दुओं की मूर्ति पूजा की रीति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कहा-
‘पाथर पूजै हरि मिलें हम लें पूजि पहार।
घर की चाकी कोई न पूजै पीस खाय ये संसार।’
कबीर ईश्वर भक्ति तथा शुद्ध मन से कर्म करने में विश्वास करते थे। उनकी दृष्टि में प्रेम तथा मानवता द्वारा ही ईश्वर प्राप्ति संभव है कोरे किताबी ज्ञान से नहीं। इसलिए उन्होंने कहा है ‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय’
कबीर दास जी की रचनाएं साखी¸सबद और रमैनी बीजक में संग्रहित हैं। कबीर दास जी की भाषा में खड़ी बोली के अतिरिक्त पंजाबी¸ गुजराती¸ राजस्थानी¸ ब्रज और अवधी के शब्द मिलते हैं। कबीर दास जी जीवन पर्यंत समाज सुधार के काम में लगे रहे। एक अंधविश्वास के अनुसार काशी में मृत्यु होने से स्वर्ग और मगहर नामक स्थान में मृत्यु होने से नरक मिलता है। इस अंधविश्वास को समाप्त समाप्त करने के उद्देश्य से कबीर दास जी मृत्यु से पहले मगहर चले गए और वहीं उनका देहांत हो गया।
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