द्विवेदी जी के निबन्ध साहित्य का संक्षिप्त परिचय : हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली भाग नौ के अन्तर्गत ललित और शोधपरक निबन्धों का संग्रह किया गया है इस खण्ड में कुल नवासी निबंध संकलित हैं। इन सभी निबन्धों का क्रमश: नाम के साथ निम्नांकित रूप से परिचय प्रस्तुत है। (१) अशोक के फूल - द्विवेदी जी का यह बहुचर्चित ललित निबन्ध है जिसमें अशोक के फूल की उत्पत्ति से लेकर आज तक मिलने वाले इसके महत्त्व का उल्लेख है। (२) शिरीष के फूल - यह लेख भी द्विवेदी जी के प्रकृति चित्रण का मनोरम रूप है। शिरीष के पेड़ एवं फूल को लेकर लिखा गया है। (३) कुटज - पर्वत शोभा में कुटज की शोभा को देखते हुये लेखक का यह शोधपरक ललित निबन्ध है। (४) देवदारु- फलों, वृक्षों के क्रम में ही देवदारु भी द्विवेदी जी का ललित निबंध है। (५) आम फिर बौरा गया है- ललित निबन्धों की शृंखला में द्विवेदी जी का यह लेख समृद्ध शोध लेख है। (६) बसन्त आ गया है- अत्यन्त भावात्मक शैली में लिखा गया यह अत्यन्त छोटा सा लेख है। (७) आत्मदान का सन्देश वाहक बसन्त - बसन्त ऋतु के सम्बन्ध में लिखा गया अनुभूतिपरक यह लेख उत्सवों का काल बसन्त क्या है, धरती सूर्य का ही एक भाग है, धरती सूर्य से मिलने के लिए आकुल तथा आत्मदान में सार्थकता उपशीर्षक में विभाजित एक सुन्दर लेख है। (८) प्राचीन भारत में मदनोत्सव- यह लेख द्विवेदी जी का छोटा किन्तु समृद्ध शोध लेख है। (९) जीवेम शरद: शतम्- वेद की इस ऋचा को लेकर उपनिषदों, महाभारत, भागवत् तथा अन्य विभिन्न हित्यकारों की रचनाओं में आये हुये जीवन विषयक अनेक प्रसंगों के सन्दर्भों पर यह लेख आधारित है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली भाग नौ के अन्तर्गत ललित और शोधपरक निबन्धों का संग्रह किया गया है इस खण्ड में कुल नवासी निबंध संकलित हैं। इन सभी निबन्धों का क्रमश: नाम के साथ निम्नांकित रूप से परिचय प्रस्तुत है।
(१) अशोक के फूल - द्विवेदी जी का यह बहुचर्चित ललित निबन्ध है जिसमें अशोक के फूल की उत्पत्ति से लेकर आज तक मिलने वाले इसके महत्त्व का उल्लेख है।
(२) शिरीष के फूल - यह लेख भी द्विवेदी जी के प्रकृति चित्रण का मनोरम रूप है। शिरीष के पेड़ एवं फूल को लेकर लिखा गया है।
(३) कुटज - पर्वत शोभा में कुटज की शोभा को देखते हुये लेखक का यह शोधपरक ललित निबन्ध है।
(४) देवदारु- फलों, वृक्षों के क्रम में ही देवदारु भी द्विवेदी जी का ललित निबंध है।
(५) आम फिर बौरा गया है- ललित निबन्धों की शृंखला में द्विवेदी जी का यह लेख समृद्ध शोध लेख है।
(६) बसन्त आ गया है- अत्यन्त भावात्मक शैली में लिखा गया यह अत्यन्त छोटा सा लेख है।
(७) आत्मदान का सन्देश वाहक बसन्त - बसन्त ऋतु के सम्बन्ध में लिखा गया अनुभूतिपरक यह लेख उत्सवों का काल बसन्त क्या है, धरती सूर्य का ही एक भाग है, धरती सूर्य से मिलने के लिए आकुल तथा आत्मदान में सार्थकता उपशीर्षक में विभाजित एक सुन्दर लेख है।
(८) प्राचीन भारत में मदनोत्सव- यह लेख द्विवेदी जी का छोटा किन्तु समृद्ध शोध लेख है।
(९) जीवेम शरद: शतम्- वेद की इस ऋचा को लेकर उपनिषदों, महाभारत, भागवत् तथा अन्य विभिन्न हित्यकारों की रचनाओं में आये हुये जीवन विषयक अनेक प्रसंगों के सन्दर्भों पर यह लेख आधारित है।
(१०) वर्षा : घनपति से घनश्याम तक- शोध की दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हुये भी द्विवेदी जी का यह लेख सन्दर्भों की दृष्टि से अत्यन्त बोझिल है।
(११) वरसो भी - साप्ताहिक हिन्दुस्तान के १९ जु्रलाई १९७३ के अंक में प्रकाशित यह छोटा सा लेख साहित्यिक एवं राजनीतिक क्षेत्र के लोगों के प्रति एक व्यंग्य चित्र है।
(१२) सौन्दर्य सृष्टि में प्रकृति की सहायता - यह लेख द्विवेदी जी के प्रकृति चिन्तन और उसके प्रतिभावात्मक लगाव का सुन्दर चित्र है।
(१३) आलोक पर्व की ज्योतिर्मयी देवी - मारकण्डेय पुराण की आद्यशक्ति महालक्ष्मी तथा ज्ञान इच्छा और सक्रिय रूप में स्थित त्रिपुरेश्वरी अथवा त्रिपुरा को एक ही शक्ति के रूप में मानते हुये दीपावली के पुण्य पर्व के लिए इनका प्रतिपादन इस लेख में किया गया है।
(१४) अंधकार से जूझना है- ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के परिप्रेक्ष्य में, दीपावली पर्व की महत्ता को प्रकट करने के लिए लिखा गया यह एक छोटा लेख है।
(१५) दीपावली सामाजिक मंगलेच्छा का प्रतिभा पर्व- यह छोटा सा लेख भी पूर्व लेखों के क्रम में ही दीपावली की पावन परम्परा को लेकर लिखा गया है।
(१६) भारत में द्यूत-क्रीड़ा - धर्मयुग के नवम्बर १९७४ के अंक में मुद्रित यह छोटा सा लेख इस देश में द्यूत-क्रीड़ा की प्राचीन परम्परा को लेकर लिखा गया है।
(१७) नया वर्ष आ गया - यह लेख द्विवेदी जी का अत्यन्त समृद्ध शोध लेख है।
(१८) मेरी जन्म भूमि - यह लेख द्विवेदी जी ने अपने ही जन्म-भूमि वाले गाँव ‘‘दूबे का छपरा’’ नामक गाँव के सम्बन्ध में लिखा है-
(१९) घर जोड़ने की माया - यह लेख कबीरदास के सम्बन्ध में लेखक द्वारा लिखी जाने वाली पुस्तक की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखा गया है।
(२०) नाखून क्यों बढ़ते हैं - एक अत्यन्त सामान्य विषय नाखून के बढ़ने को लेकर लिखा गया यह लेख द्विवेदी जी के उदात्त चिन्तन का परिणाम है।
(२१) जिन्दगी और मौत के दस्तावेज - यक्षा द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गये आश्चर्य विषयक प्रश्न को दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत करते हुये मृत्यु के सत्य तथा जीवन की जीजिविषा को लेकर लिखा गया है।
(३९) पूर्वी एशिया के तीर्थ यात्रियों का स्वागत - इसमें लेखक ने वाराणसी में आये तीर्थयात्रियों के स्वागत में अपने भावोद्गार व्यक्त किये हैं।
(४०) स्वागत - प्राच्य संस्कृति परिषद्, सारनाथ के चतुर्थ अधिवेशन १९७० में आध्यात्मिक पद पर किया गया भाषण है।
(४१) कला का प्रयोजन - यह काव्य शास्त्रीय निबन्ध है।
(४२) कवि एक बार सम्हाल - यह निबन्ध लेखक के कल्पना प्रवण भावुकता का अनूठा उदाहरण है।
(४३) बोलो काव्य के मर्मज्ञ - हिन्दी काव्य में नयी कविता विधा के उद्भव काल के समय लिखी गयी एक कविता है।
(४४) पुरानी पोथियाँ - भारतवर्ष में लिखी जाने वाली एवं प्राचीन काल से अब तक के ग्रन्थों की चर्चा इस लेख में की गयी है।
(४५) पुस्तक का महत्व- अत्यन्त छोटे इस लेख में द्विवेदी जी ने पुस्तक के महत्व को किस प्रकार निर्धारित किया जाय- इसी विचार को प्रकट किया है।
(४६) भीष्म को क्षमा नहीं किया गया - साप्ताहिक हिन्दुस्तान १९ जनवरी, १९७८ के अंक में प्रकाशित यह लेख द्विवेदी जी की व्यंजनात्मक अनुभूतियों का सुन्दर उदाहरण है।
(४७) सर्वकाल नमस्य महामानव - नवभारत टाइम्स वार्षिकांक १९७५ के अंक में प्रकाशित यह अत्यन्त छोटा सा लेख भगवान महावीर और उनके उपदेशों को लेकर लिखा गया है।
(४८) आत्मजयी, भगवान महावीर - यह लेख भगवान महावीर और उनके चरित्र पर लिखा गया है।
(४९) मध्यम मार्ग- यह लेख महात्मा गौतम बुद्ध के आर्य अष्टांगिक मार्ग की अवधारणा को लेकर लिखा गया है।
(५०) धर्म चक्र - यह निबन्ध महात्मा बुद्ध के जीवनादर्शों पर आधारित है।
(५१) शाक्त मार्ग का लक्ष्य अद्वैत - यह एक भाषण है जिसे यहाँ पर निबन्ध के रूप में संकलित किया गया है।
(५२) संविवूपा महामाया - चिन्तन प्रधान इस लेख में द्विवेदी जी ने तर्क और साहित्य को आगमों में शक्ति की संविवूपा स्वरूप के साथ जोड़कर विभिन्न पारिभाषिक शब्दों की व्युत्पत्ति पर व्याख्या की है।
(५३) तांत्रिक वाङ्मय में शाक्त दृष्टि - यह आलोक पर्व से संकलित हास निबन्ध है। गोपीनाथ कविराज के ग्रन्थ तांत्रिक वाङ्मय में शाक्त दृष्टि पर आधारित है।
(५४) भारत की समन्वय साधना धर्म और दर्शन के क्षेत्र में - आलोक पर्व में संकलन से संग्रहित यह लेख द्विवेदी जी के भारतीय धर्म और दर्शन विषयक गहन अनुशीलन की अभिव्यक्ति है।
(५५) संस्कृतियों का संगम - कल्पलता संकलन से संग्रहित यह लेख भी भारतीय मनीषा में विभिन्न संस्कृतियों के समन्वयवादी दृष्टिकोण को लेकर लिखा गया है।
(५६) भारतवर्ष की सांस्कृतिक समस्या - धर्म के समान संस्कृति को अविरोधी वस्तु बताते हुये द्विवेदी जी ने इस लेख में हमारी सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान पर सुन्दर विचार प्रस्तुत किया है।
(५७) हिन्दू संस्कृति के अध्ययन के उपादान - विचार और वितर्क संकलन से संग्रहित यह लेख वस्तुत: द्विवेदी जी के गहन शोधदृष्टि का ज्वलन्त उदाहरण है।
(५८) समाज संस्करण पर विचार - कई अनुच्छेदों में विभक्त तथा विचार और वितर्क संकलन से संग्रहित यह लेख भी सन्दर्भों की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है।
(५९) धार्मिक विप्लव और शास्त्र - कुटज संकलन से संग्रहित यह लेख वस्तुत: लेखक के मन में टूटती आस्थाओं एवं धार्मिक मान्यताओं के रहते रूप की पीड़ा की अभिव्यक्ति है।
(६०) धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् - कल्पलतासंकलन से संग्रहित यह लेख लेखक द्वारा भारतीय धर्म साधन के सम्बन्ध में एक प्रामाणिक लेख है।
(६१) भाव और भगवान - इस लेख में द्विवेदी जी ने भाव और भगवान के सम्बन्धों को स्पष्ट करते हुये विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से भगवान के चिन्तनमय रूप, ऐश्वर्यमय रूप तथा प्रेममय रूप को विवेचित किया है।
(६२) सर्वे : पुंसाम परोधर्म: - शास्त्र अभिनय के इस अंश शीर्षक लेख में परम धर्म को विभिन्न उदाहरण के साथ विवेच्य बनाया गया है, इस विवेचना को प्राचीन युग से लेकर अब तक के एतद् विषयक विभिन्न विषयों को इसका उपजीव्य रखा गया है।
(६३) राष्ट्रीय एकता के प्रतीक शिव - इस शीर्षक में लेखक ने वैदिक युग से आये हुये शिव अथवा रूद्र के रूपों को विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से विवेचित करके उन्हें सांस्कृतिक और भावात्मक एकता का प्रतीक बताया है।
(६४) शव साधना - २६ जून १९४४ को साप्ताहिक आज के अंक में प्रकाशित यह लेख तांत्रिक साधना पर व्यक्त किये गये विचारों का मूर्त रूप है। शव साधना के विभिन्न उपशीर्षक को देते हुए इसकी अच्छाइयों और असावधानी की दुर्घटनाओं के प्रति संकेत किया गया है।
(६५) आधुनिकता के सन्दर्भ में उपासना का स्वरूप - इस लेख में लेखक ने बढ़ती बौद्धिक प्रवृत्ति तथा भावना पक्ष के प्रति होते हुए हास के रूपों को आधुनिक सन्दर्भ में जोड़ते हुये नैतिकता को चेतन धर्म कहा है और जड़ तत्वों से मिश्रित नैतिकता को प्रमुख बताया है।
(६६) हमारी महती परम्परा - इस लेख में चरित्र बल में अग्रणी समझे जाने वाले भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति, विकसित सभ्यता तथा चरित्र बल की महत्ता को प्रकट किया गया है।
(६७) परम्परा और आधुनिकता - इस लेख में लेखक ने परम्परा और आधुनिकता के मध्य सामंजस्य को खोजने का प्रयास किया है तथा आधुनिकता में अपने आपको कोई मूल्य न मानकर मनुष्य के अनुसार भावों द्वारा प्राप्त महनीय मूल्यों को नये संदर्भों में देखने की दृष्टि माना है।
(६८) गुरू शिष्य परम्परा - पूर्वजों की श्रेष्ठ धरोहर के रूप में गुरू-शिष्य परम्परा को भी मानते हुए लेखक ने इन सम्बन्धों की विविध आयामी विवेचना इस लेख में प्रस्तुत की है साथ ही अधिकार और अधिकारी के रूपों का
भी उल्लेख किया है।
(६९) चाणक्य या कौटिल्य - चाणक्य के सम्बन्ध में कोषकारों के मतों से लेकर पुराण, उपनिषद्, साहित्य आख्यायिका इत्यादि में चाणक्य के सन्दर्भों में आये हुए प्रसंगों का उल्लेख करते हुए इनकी प्रखर बुद्धि के कौशल को प्रतिस्थापित किया गया है।
(७०) ज्योतिर्विद आर्यभट्ट - भारतीय ज्योतिष संसार में जाज्वल्यमान नाम आर्यभट्ट तथा उनकी कृतियों के महत्व को प्रतिपादित करते हुए उनके सम्बन्ध में कहे गये अनेक दृष्टान्तों में उनकी महत्ता प्रतिपादित की गयी है।
(७१) तिलक का गीता दर्शन - इस लेख में लोकमान्य तिलक को शीर्षस्थ शोधकर्ता तथा विद्वान् मनीषी मानकर लेखक ने उनके गीता दर्शन के विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत किया है।
(७२) मानव धर्म - इस धर्म में द्विवेदी जी ने धर्म की सर्वकालिक व्याख्या प्रस्तुत करते हुये उसे युगीन सन्दर्भों में अभिनिर्धारित करने की बात इस लेख में की है।
(७३) धार्मिक एवं सच्चरित्र नारी कुटुम्ब की शोभा है - भारतीय परिवार में स्त्री को केन्द्र मानते हुए उसके सच्चरित्र और मर्यादित रहने पर परिवार दृढ़ और सुखी बनता है; यह बात प्रतिपादित की है।
(७४) राजाराममोहन राय - अत्यन्त छोटे इस लेख में द्विवेदी जी ने राजाराममोहन राय की समाज सेवा, कर्मठता, देश के गौरव के प्रति समर्पित भावना तथा सामाजिक बुराइयों के प्रति उनके क्रान्तिकारी चिन्तन का उल्लेख किया है।
(७५) वन्दे मातरम् - यह लेख बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा ‘मेरा दुर्गोत्सव’ नामक लेख के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया है तथा इस लेख में विद्यमान बन्देमातरम् गीत के भाव को विवेचित किया गया है।
(७६) बंकिमचन्द्र - शांति निकेतन में आये हुए कुछ नये मित्रों को बंकिमचन्द्र चटर्जी तथा उनके कृतित्व का परिचय देते हुए लेखक ने इस लेखक की कहानी कही तथा उनकी औपन्यासिक प्रेरणाओं को भी इसमें रूपायित किया है।
(७७) पुण्य पर्व - यह लेख स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में लिखा गया है, जिसमें देश की स्वतंत्रता के स्वत्व की रक्षा की बात कही गयी है।
(७८) वह चला गया - यह लेख महात्मा गाँधी के देहावसान के पश्चात् उन्हीं के लिए लिखा गया एक भाव चित्र है। इसमें उनके जीवन के विभिन्न संयम, नियम एवं आदर्शों का भी उल्लेख किया गया है।
(७९) महात्मा के महाप्रयाण के बाद - पूर्व लेखक क्रम में ही यह लेख में भी महात्मा गाँधी के लिए एक श्रद्धाञ्जलि पुष्प है। इसमें भी लेखक ने चरित्रबल, नैतिकता, अहिंसा, सत्य, मानव सेवा, इत्यादि उदात्त गुणों वाले महात्मा गाँधी के विभिन्न सिद्धान्तों और आदर्शों को स्थापित किया गया है।
(८०) डरो मत - मध्य-प्रदेश सन्देश पत्र में २९ नवम्बर १९५८ को प्रकाशित इस लेख में द्विवेदी जी ने भय दूर करने के लिए तत्वों के चिन्तन की आवश्यकता पर बल दिया है तथा यह प्रतिपादित किया गया है कि तत्व चिन्तन से मनुष्य, भय को जीत सकता है इसलिए तत्व चिन्तन मनुष्य का सहज धर्म है इसके लिए लेख में विभिन्न ग्रन्थों का दृष्टान्त भी लेखक ने प्रस्तुत किया है।
(८१) तत: किम् - इस लेख को विभिन्न उपशीर्षकों में विभाजित करके लेखक ने मानवतावादी दृष्टिकोण, वुद्धि वैभव की समस्या, अंतरात्मा की भूख, नाल्पे सुखमस्ति तथा बुद्धि तत्व को वैâसे सन्तुष्ट किया जाय, आदि विषयों की सुन्दर विवेचना की है।
(८२) गतिशील चिन्तन - यह लेख एक संस्मरण लगता है। इसमें भारतीय समाज और उसके गतिशील चिन्तन के विभिन्न बिन्दुओं का रेखांकन किया गया है। लेख के अन्त में लेखक की भावुक शैली का रूप तथा अतीत के प्रति लगाव भी व्यक्त हुआ है।
(८३) आन्तरिक शुचिता भी आवश्यक है - इस लेख में भी द्विवेदी जी ने अपने देश के संस्कारों की चर्चा करते
हुए गाँधी जी की आन्तरिक शुचिता को उनके नेतृत्व की महान उपलब्धि बताकर उससे प्रेरणा लेने की बात कही है।
(८४) आस्था का अभाव - १९ अप्रैल १९६७ को लिखे गये इस लेख में आधुनिक समाज, युवा पीढ़ी तथा विशेषत: शिक्षण संस्थाओं में आने वाले युवाओं के भीतर आस्था के अभाव तथा उसे दूर करने के उपाय के सम्बन्ध में उल्लेख है तथा साथ ही अनुकरणीय आचरण की बात कही गयी है।
(८५) प्रायश्चित् की घड़ी - यह लेख द्विवेदी जी का चिन्तन प्रधान लेख है। इसके अन्तर्गत लेखक ने भारत वर्ष में प्रचलित विभिन्न संकीर्ण मान्यताओं, रूढ़ियों, परम्पराओं तथा सामाजिक मत वैभिन्य को समाप्त करके नये युग मूल्यों के अनुसार उनमें एक नया परिवर्तन लाकर सामाजिक प्रायश्चित् की बात कही है। इसके लिए उन्होंने विभिन्न ग्रन्थों को उपजीव्य बनाया है।
(८६) क्या निराश हुआ जाय - ४ अक्टूबर १९७४ को लिखा गया यह चिन्तन प्रधान लेख भी सामाजिक दुर्व्यवस्था का चित्र प्रस्तुत करता है जिसमें विभिन्न संस्मरणों का उल्लेख करते हुए लेखक ने इसके परिवर्तन के लिए उपाय भी सुझाये हैं।
(८७) मनुष्य का भविष्य - १ जून १९७८ का यह लेख कुछ चिकित्सकों को सम्बोधित किया गया भाषण सा लगता है। इसमें बढ़ती हुई वैज्ञानिक प्रगति के विकासात्मक तथा विनाशात्मक दोनों रूपों का विवेचन है।
(८८) पण्डितों की पंचायत - काशी के पंचाङ्ग निर्माताओं की पंचायत में उपस्थित होने पर लेखक द्वारा शास्त्र के विभिन्न मतों का उल्लेख किया गया है।
(८९) जज का दिमाग खाली है - इस संस्मरणात्मक निबन्ध में द्विवेदी जी ने भारत के अतीत स्वर्णिम युग को चित्रित करते हुए आधुनिक युग की दयनीयता पर दु:ख प्रकट किया है। प्रतीकात्मक एवं भावात्मक शैली का यह छोटा सा लेख अत्यन्त प्रभावकारी है।
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