शिक्षा का उद्देश्य पर निबंध। Shiksha ka uddeshya essay in hindi : मानव वत्तियों के विकास तथा आत्मिक शान्ति के लिये शिक्षा परमावश्यक है। भारतीय शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य मनुष्य को पूर्ण ज्ञान प्राप्त कराना था, जिससे वह अज्ञान अन्धकार से निकल कर ज्ञान के प्रकाश में विचरण करता था। प्रत्येक देश के भावी नागरिक विद्यार्थी ही होते हैं। देश की आशा देश के नवयुवकों पर होती है। नवयुवक की जैसी शिक्षा व्यवस्था होगी. देश का भविष्य भी वैसा ही होगा। प्रत्येक देश का उत्थान उसकी शिक्षा और विद्यार्थियों पर आधारित होता है। देश की उन्नति-अवनति उसकी शिक्षा-प्रणाली पर निर्भर करती है। यदि किसी देश को युगों के लिए दास बनाना हो, तो उस देश का प्राचीन साहित्य और इतिहास नष्ट कर दीजिये और उसकी शिक्षा-प्रणाली को अपने अनुकूल कर दीजिये।
शिक्षा का उद्देश्य पर निबंध। Shiksha ka uddeshya essay in hindi
मनुष्य सुख और शान्ति के लिए जन्म से ही प्रयास करता है। अपनी उन्नति के लिए सृष्टि के आरम्भ से ही वह प्रयत्नशील रहा है। उसे पूर्ण मानसिक शान्ति शिक्षा द्वारा प्राप्त हुई। शिक्षा के अमोध प्रभाव से वह चमत्कृत हो उठा। उसकी सामाजिक तथा नैतिक उन्नति हुई, वह आगे बढ़ने लगा। अब उसे स्पष्ट अनुभव होने लगा कि बिना शिक्षा के मानव जीवन पशु तुल्य है। वास्तव में बिना शिक्षा के मनुष्य को न अपने कर्तव्य का ज्ञान होता है और न उसको आन्तरिक और बाह्य शक्तियों का विकास ही होता है। अतः मानव वत्तियों के विकास तथा आत्मिक शान्ति के लिये शिक्षा परमावश्यक है। शिक्षा से मनुष्य की बुद्धि परिष्कृत और परिमार्जित होती है। उसे सत् और असत् का विवेक होता है। भारतीय शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य मनुष्य को पूर्ण ज्ञान प्राप्त कराना था, जिससे वह अज्ञान अन्धकार से निकल कर ज्ञान के प्रकाश में विचरण करता था।
प्राचीन काल में यह शिक्षा नगर के कोलाहल और कलरव से दूर सघन वनों में स्थित महर्षियों के गुरुकुलों और आश्रमों में दी जाती थी। छात्र पूरे पच्चीस वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ तथा गुरु के चरणों की सेवा करता हुआ विधिवत् विद्याध्ययन करता था। इन पवित्र आश्रमों में विद्यार्थी की सर्वांगीण उन्नति पर ध्यान दिया जाता था। उसे अपनी बहुमुखी प्रतिभा के विकास का अवसर मिलता था। विज्ञान, चिकित्सा, नीति, युद्ध कला, वेद तथा शास्त्रों का सम्यक अध्ययन करके विद्यार्थी पूर्णरूप से विद्वान् होकर तथा योग्य नागरिक बनकर अपने घर लौटता था। उस समय भारतवर्ष समस्त विश्व को ज्ञान का वितरण करता था, विश्व का यह सबसे बड़ा शिक्षा-केन्द्र था। राष्ट्रभाषा देववाणी संस्कृत थी। देश-देशान्तरों से बहुत से विद्यार्थी यहाँ शिक्षा ग्रहण करने आते थे। तक्षशिला और नालन्दा विश्वविद्यालय उस समय देश के शिक्षा केन्द्रों में प्रमुख थे। शनैः शनैः भारत विदेशियों से पदाक्रान्त हो गया। देश की प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था प्रायः लुप्त-सी होती गई। देश की राष्ट्र-भाषा का स्थान उर्दू तथा फारसी ने ग्रहण कर लिया।
प्रत्येक देश के भावी नागरिक विद्यार्थी ही होते हैं। देश की आशा देश के नवयुवकों पर होती है। नवयुवक की जैसी शिक्षा व्यवस्था होगी. देश का भविष्य भी वैसा ही होगा। प्रत्येक देश का उत्थान उसकी शिक्षा और विद्यार्थियों पर आधारित होता है। देश की उन्नति-अवनति उसकी शिक्षा-प्रणाली पर निर्भर करती है। यदि किसी देश को युगों के लिए दास बनाना हो, तो उस देश का प्राचीन साहित्य और इतिहास नष्ट कर दीजिये और उसकी शिक्षा-प्रणाली को अपने अनुकूल कर दीजिये। अंग्रेजों ने भी अपने शासन को चिरस्थायी बनाने के लिये वही किया। उन्होंने भारतवर्ष की प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था को बिल्कुल समाप्त करके अपनी रीति से शिक्षा देने की व्यवस्था की । सन् 1828 में लार्ड विलियम बैंटिक ने भारतवर्ष में अनेक सुधार किये, तो शिक्षा का भार लॉर्ड मैकाले ने अपने ऊपर लिया। उन्हीं दिनों अंग्रेजी को भारतवर्ष की राष्ट्र भाषा घोषित किया गया था। लॉर्ड मैकाले ने शिक्षा के उद्देश्यों की घोषणा करते हुये कहा था-“मेरा उद्देश्य इस शिक्षा से केवल यही है कि भारत में अधिक-से-अधिक क्लर्क पैदा हों और भारत बहुत दिनों तक हमारा गुलाम बना रहे।" लॉर्ड मैकाले के स्वप्नों के आधार पर निर्मित ब्रिटिश शासनकालीन शिक्षा ने केवल क्लर्क और बाबू ही उत्पन्न किये और उनके मस्तिष्क को इतना संकुचित बना दिया कि वे शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी ही समझने लगे। उस समय की शिक्षा केवल परीक्षामात्र उत्तीर्ण करने तक ही सीमित थी। जीवन की समस्याओं को सुलझाने तथा जीवन को सफल बनाने का उद्देश्य उस शिक्षा का था ही नहीं। व्यावहारिक दृष्टि से हमें कोई लाभ न हुआ।
शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को मनुष्य बनाना, उसमें आत्मनिभर्रता की भावना भरना, चरित्र-निर्माण करना तथा मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति कराना है। परन्तु वर्तमान शिक्षा प्रणाली से इस प्रकार का कोई लाभ नहीं होता है, उसे केवल उदपूर्ति का साधन-मात्र कह सकते हैं। श्रद्धा और भावना जैसी कोई चेतना उसके निकट नहीं होती। आज विद्यार्थी की दृष्टि में न अपने गुरुजनों का आदर है और न माता-पिता का सम्मान। विद्याथी समाज में एक भयानक अराजकता आई हुई है। यह सब हमारे नैतिक पतन के कारण हैं। इसीलिए प्रत्येक राज्य में नैतिक शिक्षा विषय का अनेक स्तरों पर पाठयक्रम में समावेश किया गया है तथा इसका अध्ययन एक स्वतन्त्र विषय के रूप में किया जा रहा है।
स्वतन्त्र राष्ट्र को ऐसी शिक्षा-पद्धति की आवश्यकता होती है, जो देश के लिए अदो नागरिक, कुशल कार्यकर्ता, भावी सेनानी, उत्कृष्ट अर्थशास्त्री तथा राजनीतिज्ञ उत्पन्न कर सके, जो प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक शक्तियों के विकास में पूर्ण योग दे सके। इस दिशा में भारत सरकार विशेष प्रयत्नशील है। केन्द्रीय विकास को "वयस्क शिक्षा कमेटी ने एक विशाल योजना बनाई जो तीन वर्ष के अन्दर पचास प्रतिशत शिक्षा का प्रचार कर देना चाहती थी। एक अन्य समिति ने भारत में सेकेण्डरी शिक्षा को योजना का निर्माण किया था। तीसरी समिति ने विश्वविद्यालय के माध्यम को समस्या को सुलझाया। 1948 में श्री बी. जी. खेर की अध्यक्षता में बेसिक शिक्षा समिति का गठन हुआ, जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण भारत में बेसिक शिक्षा का व्यापक प्रचार करना था। इस योजना के व्यय का भार 70% प्रत्येक राज्य सरकार को वहन करना था। और 30% संघीय सरकार को। 1948-49 में देहली राज्य में पंचवर्षीय बेसिक योजना का कार्य प्रारम्भ हुआ। इस योजना के अन्तर्गत 150 नये प्रारम्भिक विद्यालय खुले। प्रत्येक मील को सीमा में एक प्राइमरी स्कूल बनाने की योजना इसके द्वारा पूरी की गई। सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में नौ व्यक्तियों का एक विश्वविद्यालय कमीशन निर्मित हुआ था, जिसने विश्वविद्यालय शिक्षा पद्धति में सुधार किया। मनोविज्ञान एवं वैज्ञानिक अनुसंधानों के विकास में योग देने के लिये एक अन्य समिति बनाई थी। शारीरिक शिक्षा के पूर्ण विकास के लिये एक संघीय प्रशिक्षण विद्यालय की स्थापना हुई। सन् 1960 ई. में केन्द्रीय सरकार की ओर से संचालित “नेशनल फिजीकल टेस्ट” की समस्त भारत में प्रतियोगितायें हुई थीं। राष्ट्रीय बृहत् पुस्तकालय की स्थापना के लिए भी समिति का गठन हुआ। औद्योगिक शिक्षा को भारतीय सरकार पूर्ण रूप से प्रश्रय दे रही है। नवीन-नवीन औद्योगिक प्रशिक्षण केन्द्र प्रत्येक नगर में खोले जा रहे हैं। यह औद्योगिक शिक्षा स्त्री और पुरुषों को भिन्न-भिन्न संस्थाओं में दी जाती है। परिगणित एवं पिछड़ी हुई जातियों की शिक्षा-दीक्षा के लिये भारत सरकार अनेक छात्रवृत्तियाँ दे रही है। उन्हें सब प्रकार से प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिससे वे भी अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें। पुरातत्व विभाग की भी स्थापना की गई है, जो इसके द्वारा भारत की प्राचीन वस्तुओं की खोज एवं संरक्षण में व्यस्त है। प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यता की गौरवपूर्ण खोज की जा रही है। अखिल भारतीय शिक्षा समिति की सिफारिश से 6 वर्ष से 11 वर्ष की आयु वाले बच्चों के लिये बेसिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने बालकों के लिए इण्टरमीडियेट तक निःशुल्क शिक्षा कर दी है। 1965 में समस्त उत्तर प्रदेश में कन्याओं के लिये निःशुल्क शिक्षा का प्रबन्ध कर दिया गया है। प्रशिक्षित अध्यापकों की व्यवस्था की जा रही है। केन्द्रीय सरकार की आर्थिक सहायता से उत्तर प्रदेश सरकार ने 1960 में 48 नार्मल स्कूल खोले जिनमें अध्यापकों को समुचित प्रशिक्षण दिया जा रहा था परन्तु 95 में आकर वे फिर बन्द कर दिये गये क्योंकि प्रशिक्षितों की बाढ़ आ गई थी। प्रौढ़ों की शिक्षा का भी प्रबन्ध किया गया है, उनके लिए पुस्तकालय तथा वाचनालय स्थापित किये गये हैं। रेडियो, फिल्म प्रदर्शन एवं अन्य उपायों से सुदूर ग्रामों में शिक्षा का प्रचार हो रहा है। शिक्षा के विकास को तेज करने और उसकी गतिविधियों में सफल परिवर्तन लाने के लिये सन् 1973 में उत्तर प्रदेश में शिक्षा निदेशालय को तीन भागों में बाँटकर तीन शिक्षा निदेशक बना दिये हैं। एक उच्च शिक्षा के लिये, दूसरा माध्यमिक शिक्षा के लिए और तीसरा बेसिक शिक्षा के लिये। विज्ञान की प्रगति देखने के लिये विज्ञान प्रगति अधिकारी और प्रारम्भिक शिक्षा की देख-रेख के लिये बेसिक शिक्षाधिकारी नियुक्त किये गये हैं।
आज का प्रबुद्ध छात्र वर्ग इस घिसी-पिटी शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन के लिये स्वयं जाग उठा है, वह चाहता है कि उसे बेरोजगारी का शिकार न बनना पड़े। वह चाहता है कि उसकी शिक्षा व्यावहारिक और रचनात्मक हो। शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति लाने के लिये उसे नई रचनात्मक शिक्षा देने के लिये स्वर्गीय श्री जयप्रकाश नारायण ने छात्र-समुदाय को एक स्नेह सूत्र में संगठित होने का आह्वान करते हुए 17 फरवरी, 1969 को पटना (बिहार) में छात्रों के एक विशाल समारोह में छात्र मशाल ज्योति प्रज्ज्वलित की जो सारे देश में घूमती हुई 6 मार्च, 1979 को राजघाट नई दिल्ली में महात्मा गाँधी की समाधि पर पहुँची। राष्ट्रपिता की समाधि पर फूल चढ़ाकर शिक्षा में क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिये निरन्तर प्रयास करने का संकल्प लिया। बाद में लाखों छात्र “बरबाद किया जिसने भारत को उस शिक्षा को खत्म करो।" छात्र उठे हैं फिर ललकार शिक्षा बदले यह सरकार आदि नारे लगाते हुए दस लाख छात्रों के हस्ताक्षरों से युक्त एक याचिका संसद के दोनों सदनों को दी गई जिसमें शिक्षा-पद्धति में आमूल परिवर्तन की माँग की गई थी।
छात्रों द्वारा प्रारम्भ किये गये उस अभियान की सफलता की कामना करते हुए लोकनायक ने अपने संदेश में कहा था “देश का राजनैतिक चेहरा तो बदल गया है, परन्तु छात्र समस्या वैसी ही है। उनके मन में असंतोष की जो चिंगारियाँ विद्यमान हैं, वे अब प्रकट हो रही हैं। यदि इस असंतोष को रचनात्मक दिशा न दी गई तो अराजकता पैदा होगी और देश का भविष्य अस्थिर हो जायेगा। इसी संदर्भ में शैक्षिक क्रान्ति की ज्योति जलाकर छात्र-मानस को स्वस्थ दिशा में मोड़ने का प्रयास किया गया है। शैक्षिक क्रान्ति सम्पूर्ण क्रान्ति का एक अंग है।"
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