धर्म और विज्ञान पर निबंध। Essay on Science and Religion in Hindi! धर्म और विज्ञान दोनों ने ही मानव जाति के उत्थान में पूर्ण सहयोग दिया है, धर्म ने आन्तरिक और विज्ञान ने बाहरी; धर्म ने मानव की मानसिक एवं आत्मिक उन्नति की ओर तथा विज्ञान ने भौतिक उन्नति की ओर, धर्म ने मानव हृदय का परिष्कार किया और विज्ञान ने बुद्धि का। अतः संसार में धर्म और विज्ञान दोनों ही मानव-कल्याण के लिये आवश्यक तत्व हैं और भविष्य में भी रहेंगे। यह दूसरी बात है कि किसी काल विशेष में धर्म की प्रधानता हो और किसी में विज्ञान की। धर्म, मानव हृदय की एक उच्च और उदात्त, पुनीत और पवित्र भावना है। धार्मिक भावना से मनुष्य में सात्विक प्रवृत्तियों का उदय होता है। परोपकार, समाज सेवा, सहयोग, सहानुभूति की भावनायें जागृत होती हैं। धर्म के लिये मनुष्य को शुभ कर्म करने चाहिये और अशुभ कर्मों का परित्याग कर देना चाहिये। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि मानसिक प्रवृत्तियाँ मनुष्य के पुण्य कर्मों में प्रायः प्रतिरोध उपस्थित करती है। धार्मिक मनुष्य भौतिक सुखों की अवहेलना करता है कष्ट देता है परन्तु अपने कर्म के मार्ग से विचलित नहीं होता।
आज के युग में
धर्म की पकड़ समाज पर उत्तरोत्तर क्षीण होती जा रही है। लोगों में नास्तिकता घर
करती जा रही है, इसका एकमात्र
कारण है विज्ञान की उन्नति। विज्ञान का प्रभाव आज विश्वव्यापी धर्म और विज्ञान है।
आज से दो शताब्दी पूर्व यह दशा नहीं थी। धर्म-परायण जनता विज्ञान और वैज्ञानिकों को
घृणा की दृष्टि से देखती थी, उसका विचार था कि
वैज्ञानिक अनुसंधान धार्मिक
ग्रन्थों की शिक्षा के प्रतिकूल हैं तथा विज्ञान से
नास्तिकता बढ़ती है। आज भी कुछ ऐसी ही विचारधारा जनता में देखने को मिलती है। धर्म और विज्ञान दोनों
ने ही मानव जाति के उत्थान में पूर्ण सहयोग दिया है, धर्म ने आन्तरिक और विज्ञान ने बाहरी; धर्म ने मानव की मानसिक एवं आत्मिक उन्नति की ओर तथा
विज्ञान ने भौतिक उन्नति की ओर, धर्म ने मानव
हृदय का परिष्कार किया और विज्ञान ने बुद्धि का। मनुष्य को भौतिक सुख-शान्ति की
जितनी आवश्यकता है उससे भी अधिक मानसिक सुख-शान्ति की है। मनुष्य कितना ही धनवान
हो, कितना ही ऐश्वर्य-सम्पन्न
और समृद्धिवान् हो, परन्तु वह भी
मानसिक शान्ति के लिये भटकता देखा गया है। इसी प्रकार यदि मनुष्य समाज में सामान्य
स्थान प्राप्त करके जीवनयापन करता है, तो उसे सांसारिक सुख-शान्ति भी आवश्यक है। अतः संसार में धर्म और विज्ञान
दोनों ही मानव-कल्याण के लिये आवश्यक तत्व हैं और भविष्य में भी रहेंगे। यह दूसरी
बात है कि किसी काल विशेष में धर्म की प्रधानता हो और किसी में विज्ञान की।
धर्म, मानव हृदय की एक उच्च और उदात्त, पुनीत और पवित्र भावना है। धार्मिक भावना से
मनुष्य में सात्विक प्रवृत्तियों का उदय होता है। परोपकार, समाज सेवा, सहयोग, सहानुभूति की भावनायें जागृत होती हैं। धर्म के
लिये मनुष्य को शुभ कर्म करने चाहिये और अशुभ कर्मों का परित्याग कर देना चाहिये।
काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि मानसिक प्रवृत्तियाँ मनुष्य के पुण्य कर्मों में प्रायः प्रतिरोध
उपस्थित करती है। धार्मिक मनुष्य भौतिक सुखों की अवहेलना करता है कष्ट देता है
परन्तु अपने कर्म के मार्ग से विचलित नहीं होता। हिन्दू धर्म के अनुसार मनुष्य की
आत्मा अमर है और शरीर नश्वर है। मृत्यु के पश्चात् भी मनुष्य अपने सूक्ष्म शरीर से
अपने किये हुये शुभ और अशुभ कर्मो का फल भोगता है। धार्मिक लोग स्वर्ग, नरक और परलोक में आस्था रखते है। इसलिये उनका
विचार है कि इस अल्प जीवन में सुख भोगने की अपेक्षा अपने परलोक को सुधारने का
प्रयत्न करना चाहिये और इसके लिये पुण्यार्जन परमावश्यक है।
इन धार्मिक
शिक्षाओं से असंख्य भारतीयों का जीवन शुभ्रत्व की ओर बढ़ा, उन्होंने मनुष्यत्व से देवत्व प्राप्त किया। कितने ही उच्च
कोटि के महापुरुषों ने अपना जीवन धर्म और परहित के लिये उत्सर्ग कर दिया, पथ-भ्रष्टों को प्रकाश दिया, उनके प्रभाव से कितने ही नीच और दुष्ट अक्तियों
का जीवन सुधर गया। ऐसे महापुरुषों के लिए जनता के हृदय में श्रद्धा उमड़ पड़ी।
उनके संकेत पर अनेकों देवालयों की स्थापना हुई। उन महापुरुषों की सेवा-सुश्रुषा के
लिये उनके भक्त आर्थिक सहायता प्रदान करते, उनकी पूजा और अर्चना करते थे। उनके सदुपदेशों से जनता
कल्याण-लाभ करती थी, धर्म का प्रभाव
संसार के कोने-कोने में छा गया। छोटे तथा बड़े सभी नगरों में धार्मिक मठों और
मन्दिरों की स्थापना की गई।
उत्थान के
पश्चात् पतन अवश्यम्भावी होता है। शनैः शनैः धर्म के वास्तविक सिद्धान्तों में विकार
उत्पन्न होने लगे। कुछ धर्मोपदेशकों, साधुओं, महात्माओं और
पंडितों में मिथ्याडम्बर की भावना भर गई। त्याग, सेवा, पथ-प्रदर्शन की
भावनायें समाप्त हो गयीं। जनता उनके भुलावे में आकर पथ भ्रष्ट होने लगी। धीरे-धीरे
ईश्वर पूजा, भूत पूजा में
परिवर्तित हो गई। इस प्रकार जो धर्म समाज को उन्नति की ओर ले जा रहा था, वह अन्यविश्वास और अन्ध-श्रद्धा में बदलकर पतन का
कारण बन गया। पंडित पुरोहित तथा धर्म गुरु धन लेकर यजमान का स्थान स्वर्ग में
सुनिश्चित कराने लगे।
अन्धविश्वास के
अन्धकार से निकलकर मानव ने बुद्धि और तर्क की शरण ली। विज्ञान धीरे-धीरे उन्नति
करने लगा। लोगों में आँखों देखी बात या धर्म की कसौटी पर कसी हुई बात पर विश्वास
करने की प्रवृत्ति जागृत हुई। विज्ञान की भी मूल-प्रवृत्तति यही है, धर्म-ग्रन्थों में लिखी हुई या उपदेशकों द्वारा
कही हुई बात को वह सत्य नहीं मानता, जब तक कि तर्क द्वारा या नेत्रों के प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा तर्क सिद्ध न हो
जाये। परिणामस्वरूप धर्म और विज्ञान दो विरोधी धारायें बन गई। धर्म की आड़ लेकर जो
अपने स्वार्थ साधन में संलग्न थे, उनके हितों को
विज्ञान से धक्का पहुंचा। वे वैज्ञानिकों के मार्ग में विघ्न उपस्थित करने लगे,
"उधरे अन्त न होई निवाहू',
जब धर्म के बाह्य आडम्बरों की पोल खुल गई तो
जनता सत्य के अन्वेषण में प्राण-पण से लग गई। जो सुख और समृद्धि धार्मिकों को
स्वर्गीय कल्पना में थी, उन्हें
वैज्ञानिकों ने अपनी खोजों से इस संसार में प्रस्तुत कर दिखाया। धर्म ईश्वर की
पूजा करता था, विज्ञान ने
प्रकृति की उपासना की। विज्ञान न (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश) पाँचों तत्वों को अपने वश में किया। उसने अपनी रुचि के अनुसार
भिन्न-भिन्न सेवायें लीं, इस प्रकार मानव
ने जीवन और जगत् को सुखी और समृद्ध बना दिया। वैज्ञानिकों ने अपने अनेक आश्चर्यजनक
परीक्षणों से जनता में तर्क बुद्धि उत्पन्न करके उनके अन्धविश्वासों को समाप्त कर
दिया। आज के वैज्ञानिक मानव ने क्या नहीं कर दिखाया।
यह मनुज
जिसका गगन में जा रहा है यान
काँपते जिसके करों को देखकर परमाणु ।
खोल कर अपना हदय गिरि, सिन्धु, भू, आकाश,
है सुना जिसको चुके निज गृह्यतम इतिहास।
खुल गये परदे, रहा अब क्या अजेय,
किन्तु नर को चाहिये नित विघ्न कुछ दुर्जेय ।।
धर्म का स्वरूप
विकृत होकर जिस प्रकार बाह्यडम्बरों में परिवर्तित हो गया था, उसी प्रकार विज्ञान भी अपनी विकृति की ओर
अग्रसर है। प्रत्येक वस्तु का उत्कर्ष के पश्चात् अपकर्ष अवश्यम्भावी होता है,
विज्ञान ने जब तक मानव की मंगलकामना की तब तक
वह, उत्तरोत्तर उन्नतिशील
रहा। जो विज्ञान मानव-कल्याण के लिये था, आज उसी से मानवता संत्रस्त है। परमाणु आयुधों के विध्वंसकारी परीक्षणों ने आज
समस्त विश्व को भयभीत कर दिया है। धर्म के विकृत स्वरूप ने जनता को भौतिकवाद की ओर
अग्रसर किया था, विज्ञान का
दुरुपयोग जनता को प्रलय की ओर अग्रसर कर रहा है।
मानव की
सर्वांगीण उन्नति और वैभव के लिये यह आवश्यक है कि धर्म और विज्ञान में सामंजस्य
और समन्वय स्थापित हो। जिस प्रकार अकेला विज्ञान संसार को शान्ति प्रदान नहीं कर
सकता, उसी प्रकार अकेला धर्म भी
संसार को समृद्ध नहीं बना सकता अतः धर्म पर विज्ञान का और विज्ञान पर धर्म का
अंकुश नितान्त आवश्यक है। लोक मंगल के लिए धर्म और विज्ञान का देखिये
अन्योन्याश्रित होना परमावश्यक है। आज के वैज्ञानिक के विषय में महाकवि दिनकर की
भावनायें देखिये-
व्योम से पाताल तक सब कुछ उसे है ज्ञेय,
पर, न यह परिचय मनुज
का, यह न एक श्रेय।
श्रेय उसका, बुद्धि पर चैतन्य
उर की जीत,
श्रेय, मानव को असीमित
मानवों से प्रीत,
एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान,
तोड़ दे जो बस, वही ज्ञानी, वही विद्वान् ।।
सारांश यह है कि
धर्म और विज्ञान परस्पर एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, अपितु एक-दूसरे के पूरक हैं। बिना धर्म के विज्ञान का काम
नहीं चल सकता और बिना विज्ञान के धर्म का काम नहीं चल सकता। हृदय और मस्तिष्क का
समन्वय ही संसार में सुख, समृद्धि और
शान्ति स्थापित कर सकता है, धर्म और विज्ञान
आपस में मित्र हैं, शत्रु नहीं।
मित्र, मित्र की सहायता करता है
तभी विजय होती है और यदि मित्र शत्रु से जा मिले या पृथक् हो जाए, तो एक मित्र की विजय भी पराजय में परिवर्तित हो
जाती है। आज के विश्व को शान्ति भी चाहिये और समृद्धि भी।
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