अनपढ़ता एक अभिशाप पर निबंध। Anpadhta Essay in Hindi! अनपढ़ता के कारण न तो देश के भावी नगारिक ही अच्छे बन पाते हैं और न मनुष्य आत्म-कल्याण और राष्ट्र-कल्याण की ओर उन्मुख हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि देश की निरक्षरता के कारण देशवासियों को सभी प्रकार के घोर कष्टों का सामना करना पड़ा, चाहे वे राजनैतिक हों, सामाजिक हों, आर्थिक हों, धार्मिक हों या वैयक्तिक हों। अशिक्षा के कारण न हम अपना व्यापार बढ़ा सके और न औद्योगिक विकास ही कर सके। शिक्षा के अभाव में न मनुष्य में उद्बोधन शक्ति रहती है, न जागृति। न वह देश और राष्ट्र के कल्याण के विषय में सोच सकता है और न अपने सामाजिक एवं जातीय विकास के लिये। न वह अपने देश के प्राचीन साहित्य को पढ़कर ज्ञानार्जन कर सकता है और न पूर्वजों के त्याग और बलिदानों से प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। अशिक्षित व्यक्ति न अपने घर का वातावरण शिष्ट एवं शान्त बना सकता है और न अपने बच्चों का ही भविष्य निर्माण अच्छी प्रकार से कर सकता है।
"साहित्य संगीत कला विहीनः,
साक्षात् पशु पुछ विषाण हीनः"
प्राचीन काल में हमारे यहाँ समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने गुण और कर्मों के अनुसार शिक्षा प्राप्त करता था। समाज और शासन की ओर से शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। तब तो भारत अन्य देशों का गुरु माना जाता था। परन्तु पिछले एक सहस्त्र वर्षों की अनवरत दासता ने निःसंदेह हमें शिक्षाहीन बना दिया क्योंकि प्रारम्भिक दो-तीन शताब्दियों तक तो हम अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये लड़ते-मरते रहे, किसको ध्यान था पढ़ने-लिखने का। उसके बाद सांस्कृतिक और धार्मिक चक्करों में कुछ शताब्दियाँ बिताई। फिर जो आराम मिला तो अपने को भूल गये उसके बाद तो शताब्दियों तक अंग्रेज छाये रहे, जिनका मूलमन्त्र था कि यदि हम भारत पर शासन करना चाहते हैं तो यहाँ की भाषा तथा साहित्य को समाप्त करना होगा और जितने अधिक-से-अधिक बिना पढ़े-लिखे व्यक्ति होंगे, उतना ही हमारा शासन मजबूत और चिरजीवी होगा। इसलिये अंग्रेज ने भारत में चपरासी, चौकीदार बावर्ची और क्लर्क ही पैदा किये। मुश्किल से एक-एक शहर में एक-एक स्कूल होता था, उसमें भी धनी-मानियों के बच्चे पढ़ने जाते थे। धीरे-धीरे अंग्रेजी शासन के 50 वर्षों के इस जहरीले इंजेक्शन का यह असर हुआ कि भारत में अंगूठाटेक लोग बढ़ते गए और अन्त में उनकी संख्या 99% तक पहुंच गई।
इससे हमारी सबसे बडी हानि और अंग्रेजों के लिये बड़ा लाभ यह हुआ कि हमने अंग्रेजों के आगे सिर नहीं उठाया, क्योंकि समुचित शिक्षा के अभाव में न हमारे पास स्वतन्त्र चेतना-शक्ति थी और न परिमार्जित संस्कार। अंग्रेज जानता था कि हम पढ़-लिखकर सिर उठायेंगे इसलिए शिक्षा समाप्त की गई थी। शिक्षा के अभाव में न मनुष्य में उद्बोधन शक्ति रहती है, न जागृति। न वह देश और राष्ट्र के कल्याण के विषय में सोच सकता है और न अपने सामाजिक एवं जातीय विकास के लिये। न वह अपने देश के प्राचीन साहित्य को पढ़कर ज्ञानार्जन कर सकता है और न पूर्वजों के त्याग और बलिदानों से प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। अशिक्षित व्यक्ति न अपने घर का वातावरण शिष्ट एवं शान्त बना सकता है और न अपने बच्चों का ही भविष्य निर्माण अच्छी प्रकार से कर सकता है। इस प्रकार निरक्षरता के कारण न तो देश के भावी नगारिक ही अच्छे बन पाते हैं और न मनुष्य आत्म-कल्याण और राष्ट्र-कल्याण की ओर उन्मुख हो सकता है, न धर्म-चिन्तन ही कर पाता है और न अपने कर्तव्याकर्तव्य का विवेचन। कहने का तात्पर्य यह है कि देश की निरक्षरता के कारण देशवासियों को सभी प्रकार के घोर कष्टों का सामना करना पड़ा, चाहे वे राजनैतिक हों, सामाजिक हों, आर्थिक हों, धार्मिक हों या वैयक्तिक हों। अशिक्षा के कारण न हम अपना व्यापार बढ़ा सके और न औद्योगिक विकास ही कर सके। मैंने वह दृश्य भी देखा है कि जब एक हिन्दी में लिखी चिट्ठी कहीं से आ जाती थी तो लोग उसे पढ़वाने के लिये पढ़े-लिखे की तलाश में निकला करते थे और अंग्रेजी का तार आ गया तो फिर आसानी से पढ़ने वाला नहीं मिलता था। लोग अपना नाम तक न लिख सकते थे और न पढ़ सकते थे। अंगूठे की निशानी लगाकर बेचारे काम चलाते थे। इसलिये जमींदार और साहूकार जैसा चाहते थे, वैसा लिख लेते थे—चाहे एक हजार के दस हजार कर लें या एक बीघे के दस बीघे।
धीरे-धीरे समय बदला, देश में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के प्रति जागृति की भावना फैलने लगी। स्वतन्त्रता-प्राप्ति की आवश्यकता के साथ-साथ जनता ने शिक्षा के महत्व को भी समझा। शिक्षित नागरिक स्वतन्त्रता-प्राप्ति में अधिक सहायक सिद्ध हो सकते थे। देश की निरक्षरता को दूर करने के लिये साक्षरता आन्दोलन प्रारम्भ किया गया। राष्ट्रीय आन्दोलन के फलस्वरूप 1937 ई० में जब प्रान्तों में लोकप्रिय सरकारों की स्थापना हुई तो देश के असंख्य अनपढ़ नर-नारियों को साक्षर बनाने के प्रयत्न प्रारम्भ हुये। गाँव-गाँव में प्रौढ़-शिक्षा केन्द्र तथा रात्रि पाठशालायें खोली गई, पुस्तकालय तथा वाचनालय स्थापित किये गये। 'अशिक्षा का नाश हो, अंगूठा लगाना पाप है’ आदि नारे गांव-गांव में गूंजने लगे। साक्षरता-सप्ताह मनाये जाने लगे तथा प्रत्येक साक्षर व्यक्ति को शपथ दिलायी जाती कि वह कम-से-कम एक व्यक्ति को अवश्य साक्षर बनायें। गाँव वालों को यह समझाया गया कि पुलिस, पटवारी, जमींदार, साहूकार और व्यापारी उन्हें इसलिये लूटते हैं क्योंकि वे पढ़े-लिखे नहीं हैं। वृद्ध पुरुषों और महिलाओं ने भी इसमें सक्रिय भाग लिया। 1939 में ये प्रान्तीय सरकारें समाप्त हो गई, फिर भी साक्षरता-प्रसार आन्दोलन 1947 तक अपने खोखले रूप में चलता ही रहा क्योंकि जो लोग साक्षरता के प्रसार में लगे हुये थे वे भी केवल नाम लिखना या अक्षर ज्ञान ही कराते थे। सन् 1947 के पश्चात् इन आन्दोलनों को और अधिक व्यापक रूप दिया गया। गाँवों में अशिक्षित को शिक्षित करने के साथ-साथ उनके मनोरंजन, स्वास्थ्य तथा ज्ञान की वृद्धि के उपाय भी किये गये। उनके पारिवारिक तथा आर्थिक जीवन को भी उन्नत बनाया गया।
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् देश में फैले अज्ञान के अन्धकार को दूर करने के लिये विशेष प्रयत्न किये गये। पहले जिले में एक दो स्कूल हुआ करते थे और डिग्री कॉलिज तो दो-दो चार-चार जिलों को छोड़कर होते थे। बेचारे गरीब की क्या सामर्थ्य थी कि वह अपने बच्चों को पढ़ा ले। और अब आपको हर तहसील और हर बड़े गाँव में इण्टरमीडिएट कॉलिज मिलेगा, शहरों में इनकी संख्या इतनी है कि कुछ कहते नहीं बनता। फिर भी आप देखिये कि जुलाई में हर कॉलेज में विद्यार्थियों को दाखिले के लिए भीड़ लगी रहती है। लड़कों की शिक्षा के साथ-साथ लड़कियों की शिक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाने लगा है।
खेद है कि 12 पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी भारत की एक चौथाई जनसंख्या आज भी अशिक्षित है। आज भी करोड़ों व्यक्ति ऐसे हैं जिनके लिये काला अक्षर भैंस बराबर। अशिक्षित जनता में प्रजातन्त्र का सफलतापूर्वक निर्वाह कठिन हो जाता है, अपने अधिकार और कर्तव्य के ज्ञान से वे अनभिग होते हैं। अशिक्षा के कारण न वे अपना अच्छा प्रतिनिधि ही चुन सकते हैं और न वे अपने मत का महत्त्व ही समझते हैं।
बड़े खेद की बात है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के 72 वर्ष के बाद भी देशवासी अज्ञानान्धकार के कुयें में उसी तरह गोते लगा रहे हैं, जैसे पहिले। यह एक अभिशाप है, देश के मस्तक पर कलंक है। इसके दो कारण हैं—एक तो शिक्षा इतनी महंगी हो गयी है कि सर्वसाधारण उसका भार वहन करते-करते थक जाता है। दूसरे हम लोगों का ध्यान भी शिक्षा की ओर कम है और बातों में जैसे झूठ बोलना, मक्कारी, बदमाशी और इसी प्रकार के कार्यों में हम अधिक प्रवीणता प्राप्त करते जा रहे हैं, अपेक्षाकृत शिक्षा के। यदि हम अपने देश का कल्याण चाहते हैं, तो प्रत्येक देशवासी का शिक्षित होना परम आवश्यक है। भारत सरकार ने शिक्षा पर, विशेष रूप से प्रौढ़-शिक्षा हमसे पर अधिक बल दिया है। प्रौढ़-शिक्षा सम्बन्धी ठोस योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये समस्त भारत में प्रौढ़-शिक्षा विभागों की स्थापना की गई तथा सांध्यकालीन प्रौढ पाठशालायें कार्यरत हैं। इस योजना से निश्चित ही भारत में निरक्षरता में कुछ-न-कुछ कमी आई है।
“सब ते भले विमूढ़ जिन्हें न व्यापै जगत गति”
मूर्खों के लिए गोस्वामी जी का यह व्यंग्य इसलिए सार्थक है कि जहाँ समझदार और बुद्धिमान व्यक्ति के लिए संसार में पग-पग पर ठोकरें हैं चिन्तायें हैं, उलझनें हैं, वहाँ मूर्ख आराम से निश्चित होकर अपनी जिन्दगी काट जाता है। उसे अपने कर्तव्यों के विषय में सोचना पड़ता है, न उसे घर की इज्जत सताती है और न बाहर की चिन्ता। उसे समाज से न कोई सरोकार रहता है और न देश से कोई सम्बन्ध। कोल्हू के बैल की तरह जिस रास्ते पर आप उसे डाल दीजिये उसी को अपने जीवन का लक्ष्य समझकर वह चलता चला जायेगा। अब प्रश्न यह है कि पशु से मानव को पृथक् करने वाली ऐसी कौन-सी विशेषतायें हैं? क्योंकि वे सभी गुण जो मनुष्यों में होते हैं पशुओं में भी पाये जाते हैं। देखिए जहाँ मनुष्य अपने स्वार्थ में प्रवीण होता है वहाँ पश और पक्षी भी अपने हानि-लाभ को खूब जानते हैं। आप अपने परिवार से प्रेम करते हैं, तो गाय भैंस भी अपने बछड़े को खूब दुलार करती हैं। डण्डे से आप भी डरते हैं और वे भी। गाने-बजाने से आप भी प्रसन्न हो जाते हैं उधर सर्प और मृग भी बीन और वीणा पर अपनी जाने दे देते हैं। यदि आप कलाकार और गुणी हैं, तो सर्कस का कुत्ता और हाथी भी बड़ी-बड़ी करामातें दिखा देता है। यदि आप परिवार-वृद्धि में दक्ष हैं, तो कुत्ते और बिल्ली आप से इस विषय में कहीं ज्यादा निपुण हैं। यदि आप कहें कि हम ईश्वर की पूजा करते हैं, तो हमने सर्पों को भी सत्यनारायण की कथा सुनते देखा है। यदि नृत्य वादन में आप अपने को निपुण मानते हैं, तो रीछ भी नाच ही लेता है और यदि आप सौन्दर्योपासक हैं, तो बन्दर भी ससुराल जाने से पूर्व सिर पर टोपी रखकर शीशे में अपने व्यक्तित्व का निरीक्षण कर ही लेता है। यदि आप कहें कि हम वीर योद्धा हैं और मल्ल युद्ध में चतुर हैं तो क्या आपने कभी सांडों को बाजार में लड़ते नहीं देखा? रास्ते बंद हो जाते हैं और उन दोनों का उस समय तक युद्ध होता है, जब तक कि जय और पराजय का निर्णय नहीं हो जाता। यदि आप देश-प्रेम और जाति-प्रेम का दावा करते हैं, तो चींटियों, बन्दरों और कौओं से ज्यादा जाति-प्रेम आपके अन्दर कभी हो नहीं सकता। चीनी या गुड़ के एक कण को खाने के लिए चींटी जब तक अपनी समस्त अड़ोसिन-पड़ोसिन को नहीं बुला लायेगी, खायेगी नहीं। यदि एक बन्दर बिजली के तार पर लटक जायेगा या एक बन्दर का बच्चा कहीं फंस जायेगा तो सारे बन्दर इकड़े होकर छुड़ाने का प्रयत्न करेंगे, जबकि मनुष्यों में यह गुण दिखाई ही देना बन्द होता जा रहा है। अतः यदि इन समानधर्मी प्राणियों में कोई अन्तर है तो वह केवल शिक्षा और शिक्षा पर आधारित ज्ञान का है। अतः आप समझ गये होंगे कि पशु से मनुष्य बनने के लिये शिक्षा कितनी अनिवार्य है। अतः यदि आप निरक्षर हैं, तो पशु ही हैं।
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