भारतीय वीरांगना-झांसी की रानी पर निबंध Jhansi ki Rani Essay in Hindi : जिस स्वतन्त्रता रूपी मधुर फल का आज हम लोग आस्वादन कर रहे हैं, उसका बीजारोपण महारानी लक्ष्मीबाई ने ही किया था। स्वतन्त्रता संग्राम का श्रीगणेश झांसी की रानी के कर-कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ था और इस पवित्र यज्ञ में प्रथम आहुति भी उन्होंने ही दी थी। लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपन्त और माता का नाम भागीरथी था। बालिका के जन्म के समय ये लोग काशीवास कर रहे थे, क्योंकि बाजीराव द्वितीय राजगद्दी से हटा दिये गये थे और वे बिठूर में रहकर अपना जीवन बिता रहे थे। सन् 1835 में भागीरथी के गर्भ से एक कन्या ने जन्म लिया, जिसका नाम मनुबाई रखा गया। आगे चलकर ये ही लक्ष्मीबाई और झांसी की रानी हुई। जन्म के चार, पाँच वर्ष बाद ही मनुबाई की माता का देहावसान हो गया, मोरोपन्त काशी से बिठूर लौट आये। मनुबाई के लालन-पालन का सारा भार अब इन्हीं पर था।
भारतवर्ष त्याग
और बलिदान की भूमि है। यहाँ जितना त्याग पुरुषों ने किया, उतना ही किसी-न-किसी रूप में नारियों ने भी! पुरुषों ने अपनी मातृभूमि की
रक्षा के लिए युद्धों में प्राण दिए, तो स्त्रियों ने भी जौहर
की ज्वाला में भस्मसात् होकर अमूल्य बलिदानों का परिचय दिया। मातृभूमि की रक्षा के
लिए किसी ने अपने भाई को सजाया,
किसी ने अपने पति को।
परन्तु ऐसे उदाहरण कम हैं, जिन्होंने स्वयं ही रणभूमि में स्वतन्त्रता की
बलिवेदी पर अपने को हंसते-हंसते चढ़ा दिया हो। ऐसी आदर्श महिलाओं में झांसी की रानी
लक्ष्मीबाई अग्रगण्य है। अपने देश से विदेशियों को बाहर निकालने के लिये उन्होंने
घोर युद्ध किया। जिस स्वतन्त्रता रूपी मधुर फल का आज हम लोग आस्वादन कर रहे हैं, उसका बीजारोपण महारानी लक्ष्मीबाई ने ही किया था। स्वतन्त्रता संग्राम का
श्रीगणेश झांसी की रानी के कर-कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ था और इस पवित्र यज्ञ में
प्रथम आहुति भी उन्होंने ही दी थी। भारतीयों के लिए उनका आदर्श जीवन अनुकरणीय है।
लक्ष्मीबाई के
पिता का नाम मोरोपन्त और माता का नाम भागीरथी था। बालिका के जन्म के समय ये लोग
काशीवास कर रहे थे, क्योंकि बाजीराव द्वितीय राजगद्दी से हटा दिये
गये थे और वे बिठूर में रहकर अपना जीवन बिता रहे थे। सन् 1835 में भागीरथी के गर्भ
से एक कन्या ने जन्म लिया, जिसका नाम मनुबाई रखा गया। आगे चलकर ये ही
लक्ष्मीबाई और झांसी की रानी हुई। जन्म के चार, पाँच वर्ष बाद ही मनुबाई
की माता का देहावसान हो गया, मोरोपन्त काशी से बिठूर लौट आये। मनुबाई के
लालन-पालन का सारा भार अब इन्हीं पर था। बाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र नानासाहब और
रावसाहब के साथ मनुबाई खेलती और पढ़ती थी। सभी इन्हें छबीली के नाम से पुकारते थे।
पढ़ने और लिखने के साथ-साथ मनुबाई नाना साहब के साथ
अस्त्र-शस्त्रों का भी अभ्यास करती थी किसी विशेष उद्देश्य से नहीं; केवल खेल के बहाने से ही, शस्त्रों के साथ घोड़े पर चढ़ना, नदी में तैरना, आदि गुण भी यथावत् सीख लिये थे। इस विषय में
सुभद्रा जी ने लिखा है-
"नाना के संग पढ़ती थी वह नाना के संग खेली थी।
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी सखी सहेली थी।"
बिठूर के
स्वतन्त्र वातावरण में बाजीराव पेशवा की स्वतन्त्रता से भरी हुई कहानियों ने उसके
हृदय में स्वतन्त्रता के प्रति अगाध प्रेम उत्पन्न कर दिया था।
सन् 1842 में
मनुबाई का विवाह झांसी के अन्तिम पेशवा राजा गंगाधर राव के साथ हुआ। मनुबाई झांसी
की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। राजमहलों में आनन्द मनाए गए, प्रजा ने प्रसन्नता में घर-घर दीप जलायें। लक्ष्मीबाई प्रजा के सुख-दुःख का
विशेष ध्यान रखती थीं, उन्होंने राजमाता के पद से अपनी प्रजा को कभी
कष्ट नहीं होने दिया, फलस्वरूप प्रजा भी उन्हें प्राणों से अधिक
चाहती थी। विवाह के नौ वर्ष बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। गंगाधर राव
प्रसन्नता से फूले न समाए, राजभवन में शहनाइयाँ गूंज उठीं। परन्तु जन्म से
तीन महीने बाद ही वह इकलौता पुत्र चल बसा। क्या पता था कि वह लक्ष्मीबाई की गोद को
सदैव-सदैव के लिये सूनी करके जा रहा है। पुत्र वियोग में गंगाधर राव बीमार पड़
गये। अनेक उपचारों के बाद भी जब स्वस्थ न हुए तब उन्होंने अंग्रेज एजेण्ट की
उपस्थिति में ही दामोदर राव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया। रानी के ऊपर अब
विपत्ति के काले बादल मंडरा रहे थे। 21 नवम्बर, 1853 को रानी का सौभाग्य
सूर्य सदा के लिये अस्त हो गया। किसे पता था कि इतने लाड़-प्यार से पली मनुबाई, अट्ठाईस वर्ष की छोटी-सी अवस्था में ही वैधव्य का मुख देख लेगी। सारे राज्य
में भयानक हाहाकार मच गया, राजभवन की चीत्कार सुनकर जनता का हृदय विदीर्ण
होने लगा, परन्तु विधाता की गति के सामने किसकी इच्छा
चलती है।
तलवार चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भायी।
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी दया नहीं
आयी ।।
गंगाधर राव की
मृत्यु के पश्चात् झांसी की रानी को असहाय और अनाथ समझकर अंग्रेजों की
स्वार्थलिप्सा भड़क उठी। वे अपने साम्राज्य विस्तार के चक्कर में थे। उन्होंने
दत्तक पुत्र को अपने एक पत्र में अवैधानिक घोषित कर दिया और रानी को झांसी छोड़ने
की आज्ञा हुई। परन्तु लक्ष्मीबाई ने स्पष्ट उत्तर दिया कि “झांसी मेरी है, मैं प्राण रहते इसे नहीं छोड़ सकती।"
रानी ने विचार
किया कि अंग्रेज कूटनीतिज्ञ हैं। इनके साथ कूटनीति से ही काम लेना चाहिये। रानी ने
पाँच हजार रुपये पेंशन के रूप में स्वीकार कर लिये और गुप्त रूप से अपनी
शक्ति-संचय में लग गई। लक्ष्मीबाई ने स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम में श्रीगणेश
के लिए जो तिथि और समय नियत किया,
दुर्भाग्य से वह समय से
पूर्व ही समस्त भारत में आरम्भ हो गया, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
प्रमुख रूप से परन्तु गुप्त नीति से उनका संचालन कर रही थी। जगह-जगह पर अंग्रेज
कटने लगे, सर्वत्र शासन-व्यवस्था शिथिल पड़ गई। धीरे-धीरे
अंग्रेजों ने देशव्यापी विद्रोह को काबू में किया, परन्तु आग धधकती रही, उपद्रव पूर्णरूप से शान्त नहीं हुये।
सन् 1858 आरम्भ
हो चुका था। ह्यरोज ने झांसी की ओर प्रस्थान किया, झांसी की रानी पहले से
ही पूर्ण प्रबंध किये गये तैयार बैठी थी। अंग्रेज उन्हें साधारण स्त्री समझ बैठे
थे। उन्हें क्या पता था कि यह साधारण स्त्री उनके दाँत खट्टे कर देगी। पच्चीस
मार्च को घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनों ओर से गोलियों की बौछारें होने लगीं।
कभी तोपों से गोले दागे जाते। रानी अपनी सेना के साथ दुर्ग में थी और बड़ी सतर्कता
और तत्परता से दुर्ग की रक्षा कर रही थी, रानी के तोपची धड़ाधड़
अंग्रेजों को उड़ा रहे थे। शत्रुओं के पैर काँपने लगे थे, परन्तु उनके पास अत्यधिक शक्ति थी, अतः वे पीछे न हटे। युद्ध
होता रहा, पर 31 मार्च तक अंग्रेज रानी के दुर्ग पर
अधिकार न कर सके। लक्ष्मीबाई ने वीर तात्या टोपे से सहायता की याचना की, वह भी समय पर आ पहुँचा, दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध होने लगा। एक न
एक विश्वासघाती देशद्रोही हर जगह रहता है, दूल्हा जी सरदार, जो कि दुर्ग के दक्षिण द्वार पर था, अंग्रेजों से मिल गया।
उसने अंग्रेज सैनिक दुर्ग के कोठे पर चढ़ा लिये। दुर्ग में भयानक मारकाट होने लगी।
रानी ने एक बार अपने गढ़ के कोठे पर से अपनी प्यारी झांसी को देखा और अपने दत्तक
पुत्र दामोदर राव को लेकर किले से बाहर निकल आई। विदेशियों ने रानी को पकड़ने का
प्रयत्न किया, परन्तु शत्रुओं का विध्वंस करती हुई लक्ष्मीबाई
आगे बढ़ती चली गई, किसी के हाथ न आई। श्रीमती सुभद्रा कुमारी
चौहान ने उनकी रणचातुरी का वर्णन इस प्रकार किया है
"रानी थी या दुर्गा थी, या स्वयं वीरता की अवतार
।
देख मराठे पुलकित होते, उसकी तलवारों के वार ।।”
अंग्रेज वॉकर
उनका निरन्तर पीछा कर रहा था। दूसरे दिन उसने भंडारे में रानी को जा घेरा, रानी ने उसे बुरी तरह से घायल करके वहीं डाल दिया और स्वयं आगे बढ़ गई। एक दिन
और एक रात निरन्तर चलते-चलते रानी कालपी पहुँची, तभी उनके प्यारे घोड़े ने
अपना दम तोड़ दिया।
रानी ने उसकी
वहाँ अन्त्येष्टि की। अब रानी के सामने कालपी की रक्षा का प्रश्न था। अंग्रेज वहाँ
भी पहुँच गए, गोलाबारी होने लगी। चौबीस को कालपी पर भी
अंग्रेजों का अधिकार हो गया। महारानी लक्ष्मीबाई तथा राव साहब वहाँ से भी भाग निकले
और सीधे ग्वालियर पहुँचे और उस पर अधिकार कर लेने का निश्चय किया। ग्वालियर के
राजा सिन्धिया राव पहले से ही अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे। ग्वालियर
में रानी का अंग्रेजों से घमासान युद्ध हुआ, खून की नदियाँ बहने लगीं।
अकेली लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये। जबकि रानी अपने घोड़े पर बैठे
हुये एक नाला पार कर रही थी तभी एक अंग्रेज ने पीछे से आकर रानी पर प्रहार किया, जिससे उनके शरीर का समस्त दक्षिण भाग कट गया। इसके तुरन्त पश्चात् उसने उनके
सीने पर एक और प्रहार किया। परन्तु इसी दशा में उन्होंने अपने शत्रु के
टुकड़े-टुकड़े कर दिये और स्वयं भी स्वर्ग सिधार गई। शरीरांत होते ही उनके एक
प्रिय सेवक ने उनके मृत शरीर में अग्नि लगा दी जिससे शत्रु उनके शरीर को स्पर्श
करके अपवित्र न कर सके। युद्ध समाप्त हो गया, झांसी और कालपी पर यूनियन
जैक फैराने लगा, ग्वालियर तो पहले से ही उनके अधिकार में था।
महारानी
लक्ष्मीबाई ने देश को स्वतन्त्रता का अमर संदेश दिया। स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर
स्वयम् बलिदान होकर भारतीयों के लिये एक आदर्श-पथ प्रशस्त किया। उनका त्याग और
बलिदानपूर्ण जीवन भारतीयों के लिए आज भी अनुकरणीय है। जिस स्वतन्त्रता संग्राम का
बीजारोपण महारानी लक्ष्मीबाई ने किया था, 15 अगस्त, सन् 47 को वही वृक्ष फल के भार से झुक उठा। उनके जीवन की एक-एक घटना आज भी
भारतीयों में नव-स्फूर्ति और नवचेतना का संचार कर रही है। आज उनकी यशोगाथा हमारे
लिए उनके जीवन से अधिक मूल्यवान है।
बढ़ जाता है मान
वीर का रण में बलि होने से।
मूल्यवती होती
सोने की, भस्म यथा,
सोने से।।
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