भारत की सामाजिक समस्याएँ पर निबंध। Essay on Social Problems in Hindi : आज भारतीय समाज समस्याओं का घर है। इन समस्याओं ने उसे जर्जर कर दिया है। समय बदला, देश की स्थिति बदली, हम स्वतन्त्र हुये परन्तु हमारी सामाजिक विषमतायें आज भी वैसी ही हैं, जैसी दो सौ वर्ष पहले थीं। ये दोष कुछ तो अंग्रेजों ने हमारे समाज को दिये थे और कुछ हमारे ही घर के स्वार्थी धर्म के ठेकेदारों ने। समाज की सबसे प्रमुख समस्या स्त्रियों की है। यद्यपि भारतीय संविधान ने स्त्रियों को पुरुषों के अधिकारों के समान ही अधिकार दिये हैं परन्तु वे केवल नाममात्र के हैं। पति की इच्छा ही उसका सर्वस्व है, पति के दुराचार, अन्याय, अत्याचारों को वह मूक पशु की तरह सहन करती है। उसका संसार घर की चारदीवारी तक ही सीमित है।
भारत की सामाजिक समस्याएँ पर निबंध। Essay on Social Problems in Hindi
आज भारतीय समाज समस्याओं का घर है। इन समस्याओं ने उसे जर्जर कर दिया है। समय बदला, देश की स्थिति बदली, हम स्वतन्त्र हुये परन्तु हमारी सामाजिक विषमतायें आज भी वैसी ही हैं, जैसी दो सौ वर्ष पहले थीं। ये दोष कुछ तो अंग्रेजों ने हमारे समाज को दिये थे और कुछ हमारे ही घर के स्वार्थी धर्म के ठेकेदारों ने। एक समय था जब हमारा देश, हमारा समाज विश्व में मुतश्रेष्ठ समाजों में गिना जाता था। यहाँ की जनता सुखी और धन-धान्य से सम्पन्न थी।
समाज की सबसे प्रमुख समस्या स्त्रियों की है। यद्यपि भारतीय संविधान ने स्त्रियों को पुरुषों के अधिकारों के समान ही अधिकार दिये हैं परन्तु वे केवल नाममात्र के हैं। पति की इच्छा ही उसका सर्वस्व है, पति के दुराचार, अन्याय, अत्याचारों को वह मूक पशु की तरह सहन करती है। उसका संसार घर की चारदीवारी तक ही सीमित है।
वृद्ध रोग वश, जड़ धनी होना। अंध वधिर क्रोधी अति दीना ।
ऐसेहु पतिकंर किये अपमाना। नारि पाव यमपुर दुख नाना ।।
पति देवता की सेवा और बच्चों का पालन-पोषण करने तक ही उसका कर्तव्य है। घर में बैठकर कब किसका विवाह हुआ है कब किसके बच्चा हुआ इन्हीं बातों तक उसकी सामाजिक भावना है। संसार क्या है, इंसान क्या है, मानव जाति किन परिस्थितियों से गुजर रही है, उसे इन फालतू बातों से कोई सम्बन्ध नहीं। वह तो केवल घर की दासी है, आत्मोन्नति और आत्म-संस्कार से मतलब नहीं। बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, विवाह-विच्छेद, विवाह-निषेध आदि ने उसकी और भी दर्दशा कर दी है। न वह स्वतन्त्र वायुमण्डल में साँस ले सकती है और न स्वतन्त्रतापूर्वक किसी से बोल सकती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक को आजीवन कारावास किस विधाता ने इसके भाग्य में लिख दिया है-
“पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्रश्च स्थविरे भावे न स्त्रीस्वतन्त्रयमर्हति॥”
व्यवस्था में पिता रक्षा करता है, युवा: हमारी अवस्था में पति रक्षा करता है, वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करता है, इस प्रकार स्त्री कभी स्वतन्त्र नहीं रह पाती। भारतीय स्त्री की अवनति का सबसे प्रमुख कारण उसकी ‘आर्थिक पराधीनता है। उसे एक-एक पैसे के लिए हाथ फैलाना पड़ता है। इस आर्थिक स्वतन्त्रता के अपहरण ने उसे अवनति के गर्त में डाल दिया है। नारी समाज को इस प्रकार की हीनावस्था भारतीय समाज के लिये कलंक है। समाज के उत्थान के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि हम स्त्री का आदर करें, उसे अपने समान अधिकार दें। नारी त्याग, बलिदान, तपस्या और साधना की मूर्ति है, वह एक व्यक्ति के लिए जीवनभर साधना कर सकती है और अपने अमूल्य जीवन का बलिदान कर सकती है। प्रसाद जी ने नारी की महिमा में लिखा है-
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में ॥"
समाज की भयानक दुसरी समस्या हरिजनों के प्रति दुर्व्यवहार करना है। जिन्हें हम हरिजन कहते हैं।, वे समाज के सबसे बड़े सेवक और तपस्वी हैं। क्या वे मनुष्य नहीं हैं क्या उन्हें भगवान का नाम लेने तक का अधिकार नहीं, क्या वे उसके मन्दिर में जाकर दर्शन नहीं कर सकते? क्या वे कुएँ से अपनी प्यास बुझाने के लिए जल भी नहीं ले सकते? क्या उनके शरीर में आत्मा या प्राण नहीं फिर ऐसा कौन सा कारण है, जो समाज उन्हें अपने तक नहीं आने देता। हां यह बात अवश्य है कि उनमें हम जैसी बनावट नहीं है।
भगवान पर सबका बराबर अधिकार है, जो उसका प्रेम से स्मरण करता है, वह तो उसी का है। फिर ये धनवान बेचारे हरिजनों को मन्दिर में क्यों नहीं घुसने देते क्या भगवान पर इन्हीं के एकाधिकार है? भगवान राम ने शबरी, जो भील जाति की थी, के झूठे बेर खाये थे। स्वर्गीय गुप्त जी ने लिखा है
“गुह निषाद, शबरी तक का मन रखते हैं, प्रभु कानन में।
क्या ही सरल वचन रहते हैं, इनके भोले आनन में ।।
इन्हें समाज नीच कहता है पर हैं ये भी तो प्राणी ।।
इनमें भी मन और भाव हैं, किन्तु नहीं वैसी वाणी ।।”
शहरों में तो यद्यपि यह दुर्व्यवहार सरकार की कठोर आज्ञाओं के कारण वन्द-सा हो गया है, परन्तु गाँवों में तो अब भी अपनी पराकाष्ठा पर है। अतः हमें उनको भी मनुष्य समझना चाहिये। और उनका आदर करना चाहिये।
हमारे समाज की विवाह प्रथा भी एक विषम समस्या है। मूक पशु को जिस तरह एक खूंटे से दूसरे खूटे पर बाँध दिया जाता है, उसी प्रकार हमारी कन्याओं का भी विवाह होता है। चाहे पति मुर्ख हो, कुरूप हो, काना हो, लंगडा हो, पर उसे उसके साथ जाना है। चाहे रूचि भिन्न हों, विचार भिन्न हों, स्वभाव भिन्न हों, परन्तु लड़की को माता-पिता की आज्ञा माननी पड़ती है। परिणामस्वरूप आये दिन आत्महत्याओं की दुर्घटनायें हो रही है। होना यह चाहिये कि समः लडकी और लड़कों को अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार हो। ऐसा करने से अनमेल विवाह की समस्या स्वतः सुलझ जायेगी। विवाह सम्बन्धी दूसरी समस्या दहेज की है। दहेज की समस्या के कारण कन्या का जीवन माता-पिता को भार मालूम पड़ता है। पहले तो गाँव में कुछ जातिय में ऐसी प्रथा थी कि लडकी का जन्म होते ही उसे आक का दूध पिलाकर सुला दिया जाता र घण्टे आधे घण्टे में वह मर जाती थीं। तभी तो कवि कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् मक के मुख से कहलवाया था कि-
“पुत्रीति जात महतीह चिन्ता कस्मै प्रदेयेति महान् वितर्कः।
दत्वा सुखं प्राप्स्यति वां न वेत्ती, कन्या पितृत्व खुल नाम कष्टम।।"
प्रसन्नता की बात है कि भारत सरकार ने दहेज पर प्रतिबंध लगा दिया है। परंतु इस कुरीति की जड़े ही हरी चली गई हैं कि उखाड़ने से भी नहीं उखड़ती। जिस तरह पैठ में बैलों का मोल तोल होता है, एक खरीददार के बाद दूसरा आता है और जो अच्छी कीमत लगा देता है उसी को बैल मिल जाता है, इसी प्रकार शादी के बाजार में लड़के बिक रहे हैं, चाहे लड़की वाला अपना मकान बेचे या भूखों मरे। वास्तव में यह सामाजिक समस्या बड़ी भयंकर है, इसे किसी-न-किसी तरह छोड़ देना चाहिए, इसी में समाज का हित है।
जिस सती प्रथा को राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारक ने बन्द करा दिया था अब वह स्वतन्त्र भारत में फिर से सिर उठाने लगी है। राजस्थान में रूप कुंवर के सती होने की घटना को भारत सरकार ने बड़ी कठोरता से लिया है। आगे इस प्रकार की घटनाओं को रोकने के लिए सरकार ने संसद में विधेयक पेश कर सती होने को कानून विरोधी घोषित कर दिया है। सती प्रथा को प्रोत्साहित करने वालों को 1988 के इस कानून में कठोरतम दण्ड की व्यवस्था की गई है।
जाति-पांति का भेदभाव भी आज की एक सामाजिक समस्या है। समाज इसी के कारण। आज विश्रृंखलित है। न समाज में परस्पर प्रेम है, न सहानुभूति, न राष्ट्र का कल्याण है, न्याय। सामूहिक और सामाजिक हित की बात तो कोई सोचता ही नहीं। ब्राह्मण, ब्राह्मण के लिए वैश्य के लिए, और क्षत्रिय, क्षत्रिय के लिए ही कुछ करता है। इस जाति-पांति का विशाल रूप प्रान्तीयता में परिवर्तित हो जाता है। बंगाली, बंगाली का ही हित और पंजाबी पंजाबी का ही हित सोचता है। यही संकीर्ण विचारधारा उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। देश की एकता में ये विचारधारायें कुठाराघात कर रही है। साम्प्रदायिकता की भावना से प्रेरित होकर हमें कभी कोई काम नहीं करना चाहिये। हमारे सामने सदैव देश-हित और राष्ट्र कल्याण का आदर्श होना चाहिए।
आजकल विद्यार्थियों के एक वर्ग की अनुशासनहीनता भी एक भयंकर सामाजिक समस्या बनती जा रही है। आज का विद्यार्थी उद्दण्ड है, अनुशासनहीन है। आज वह भयानक से भयानक और जघन्य से जघन्य कुकृत्य करने को भी तैयार है। आज उसे न माता-पिता का भय है और न गुरुजनों के प्रति श्रद्धा है। बड़े-बड़े अपराधों में विद्यार्थियों के नाम सुने जाते हैं। चरित्रहीनता उनका सिरमौर बन गई है। क्या होगा इस देश का?
सामाजिक जागृति का अभाव भी हमारी एक सामाजिक समस्या है। हम जहाँ भी जो कुछ भी करते हैं वह अपने लिये करते हैं। न हमें देश का ध्यान है, न अपने नगर का और न पड़ौस का। हमारे सभी काम अपने संकुचित 'स्व' पर आधारित होते हैं, परमार्थ और परोपकार का नाम तक नहीं है। समाज हित हमसे बहुत दूर रह गया है। हमें इस कलुषित मनोवृत्ति को त्याग देना चाहिये। समाज के प्रति भी हमारे बहुत से कर्तव्य हैं, उत्तरदायित्व हैं। अतः हमें सदैव समाज कल्याण के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये
"निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी ।
हम हों समष्टि के लिये व्यष्टि बलिदानी ।।"
इसी प्रकार देश में बेरोजगारी की समस्या भी समाज के आगे मुँह बाये खड़ी है। जब बड़े बड़े पढ़े लिखों को हाथ पर हाथ रखे बेकार बैठे देखा जाता है, तो बड़ी लज्जा आती है, इस देश के दुर्भाग्य पर। इसी प्रकार निरक्षरता की समस्या भी इतने विशाल देश में एक भयानक समस्या है। बिना पढ़ा-लिखा व्यक्ति ने अपने अधिकार को समझ पाता है और न अपने कर्तव्य का ही उसे ज्ञान होता है। भारत की नई सरकार इसको दूर करने के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में प्रौढ़-शिक्षा, योजना के अन्तर्गत प्रौढ़ पाठशालायें स्थापित कर रही हैं।
वर्तमान में परीक्षाओं में नकल भी एक भयंकर सामाजिक समस्या बन गयी है। निर्भीकता और उद्दण्डता कुछ छात्रों के मन और मस्तिष्क में रहती है। इसे कैसे दूर किया जा सकता है? यह समस्या भी भारतीय शिक्षकों एवं समाज-सुधारकों के आगे प्रश्नवाचक चिन्ह के रूप में मुंह बाये खड़ी है और इस समस्या का समाधान दूर-दूर तक नजर नहीं आता है?
उपरिलिखित समस्याओं में समय आने पर कुछ सुधार भी सम्भव दृष्टिगोचर होता है परन्तु नैतिक पतन की विकराल समस्या समाज के सामने मुँह फाड़े खड़ी है मानो वह पूरे समाज को निगल जाने के लिये आतुर है। अध्यापक-विद्यार्थी, व्यापारी उद्योगपति, राजनेता और अभिनेता, कृषक और मजदूर पढ़े-लिखे और बिना पढ़े-लिखे इसे गाजर का हलुआ समझ बैठे हैं। कुम्भकार के आबे (गड्ढा) में एक घड़े को बचाया जा सकता है पर जब पूरे आबे में ही आग लग रही हो तो बताइये कौन बचाये?
उपरोक्त समस्याओं से ग्रसित भारतीय समाज के सन्मुख भ्रष्टाचार की समस्या विकराल रूप धारण कर उपस्थित हुई है जिसने न केवल सामाजिक जीवन को अपितु समाज के आर्थिक, राजनीतिक धार्मिक न्यायिक, सुरक्षा एवं प्रशासनिक ढांचे को हिलाकर रख दिया है। उसने ऐसा भयावह संकामक रूप धारण कर लिया है कि बिरले ही इससे अछूते रह पाते हैं। वर्तमान में ऐसा प्रतीत होता है कि भ्रष्टाचार हमारे समाज का आचार बन गया है। न्याय-प्रणाली इसका सामना करने में असहाय सी लगती है। काला धन और मुद्रा स्फीति का पोषण भ्रष्टाचार द्वारा अबाध गति से हो रहा है। शासन तंत्र जो स्वयं इस भयंकर रोग से ग्रसित है कैसे इसको रोक सकता है।
सामाजिक चेतना से ही इसका उपचार संभव है। अत: प्रत्येक नागरिक का यह धर्म है, कर्तव्य है कि वह किसी भी स्थिति में किसी भी स्तर पर भ्रष्टाचार का पोषक न बने।
इसी प्रकार की अन्य छोटी-मोटी समस्यायें हैं जो हमारे समाज को निष्प्राण किये दे रही हैं। हमें उन्हें दूर करने के लिये भगीरथ प्रयत्न करना चाहिये, जिससे कि समाज का अधिक अहित न हो सके। हमारी राष्ट्रीय सरकार भी इन सामाजिक विषमताओं को समूल नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील है। तभी हमारा देश वास्तविक उन्नति कर सकेगा, अन्यथा हमारी अमूल्य स्वतन्त्र भी कोई मूल्य नहीं रहेगा।
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