भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियाँ एवं समस्याएँ - UPSC Essays : वर्तमान उदारवादी प्रजातांत्रिक देशों में भारत एक महान प्रजातांत्रिक देश है लेकिन इसकी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियां न सिर्फ दूसरे देश से भिन्न हैं बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न देशों में पूर्णतया लोकतंत्र स्थापित नहीं हो पाया है और इसके पड़ोसी देशों में दुनिया भर की विभिन्न प्रकार की शासन प्रणालियां विद्यमान हैं जिससे भारतीय लोकतंत्र प्रभावित है। साथ ही साथ देश के अंदर साम्प्रदायिकता, क्षेत्रावाद, हिंसा, अपराधीकरण, क्षेत्रीय विषमताएं, अशिक्षा, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, जातिवाद, सामाजिक-आर्थिक असमानता भारतीय लोकतंत्र के लिए चुनौती पैदा कर रहे हैं। जब तक इन समस्याओं का सामधान नहीं हो जाता तब तब भारतीय लोकतंत्र सुदृढ़ नहीं हो पाएगा।
भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियाँ एवं समस्याएँ - UPSC Essays
वर्तमान उदारवादी प्रजातांत्रिक देशों में भारत
एक महान प्रजातांत्रिक देश है लेकिन इसकी सामाजिक, आर्थिक
एवं राजनैतिक परिस्थितियां न सिर्फ दूसरे देश से भिन्न हैं बल्कि भारतीय
उपमहाद्वीप के विभिन्न देशों में पूर्णतया लोकतंत्र स्थापित नहीं हो पाया है और
इसके पड़ोसी देशों में दुनिया भर की विभिन्न प्रकार की शासन प्रणालियां विद्यमान
हैं जिससे भारतीय लोकतंत्र प्रभावित है। साथ ही साथ देश के अंदर साम्प्रदायिकता, क्षेत्रावाद, हिंसा,
अपराधीकरण, क्षेत्रीय विषमताएं,
अशिक्षा, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, जातिवाद, सामाजिक-आर्थिक असमानता भारतीय लोकतंत्र
के लिए चुनौती पैदा कर रहे हैं। जब तक इन समस्याओं का सामधान नहीं हो जाता तब तब
भारतीय लोकतंत्र सुदृढ़ नहीं हो पाएगा।
भारत में राष्ट्र निर्माण के मार्ग में जो
विभिन्न बाधाए हैं। इन बाधाओं में साम्प्रदायिकता निश्चित रूप से एक बड़ी बाधा
है। स्वतंत्रता की प्राप्ति के पश्चात जब भारत में संविधान के द्वारा एक धर्मनिरपेक्ष
राज्य की स्थापना की गई गोखले तथा उनके जैसे अनेक व्यक्तियों ने यह आशा की थी
कि राजनीति को धर्म से अलग हो जाने से हिंदुओं और मुसलमानों के पुराने विरोध समाप्त
हो जाएंगे। पंरतु गोखले तथा उनके जैसे अन्य व्यक्तियों को यह आशा पूरी नहीं हुई
और भारत में साम्प्रदायिकता का अंत नहीं हुआ। पिछला पांच-सात वर्षों में राम जन्मभूमि
बनाम बाबरी मस्जिद विवाद के चलते साम्प्रदायिकता के जिस उन्माद को बढ़ावा मिला
है, उसके चलते भारतीय राजनीति साम्प्रदायिकता से इतने गहरे रूप से प्रभावित
हुई है जितना स्वतंत्रता के समय से लेकर अब तक कभी प्रभावित नहीं हुई थी।
साम्प्रदायिकता के अंतर्गत वे सभी भावनाएं तथा
क्रियाकलाप आ जाते हैं, जिनके आधार पर किसी विशेष समूह
के हितों पर बल दिया जाए और उन हितों को राष्ट्रीय हितों के ऊपर भी प्राथमिकता दी
जाए। यह भी उल्लेखनीय है कि वैसी भावनाओं तथा कार्यकलापों के पीछे स्वार्थ
सिद्धि का लक्ष्य होता है। भारतीय राजनीति में उपर्युक्त अर्थ में साम्प्रदायिक
विद्यमान है। धर्म का प्रयोग रानीति में जहां एक ओर तनाव उत्पन्न करने के लिए
किया जाता है। वहीं दूसरी ओर प्रभाव एवं शक्ति अर्पित करने के लिए धर्म को माध्यम
बनाया जाता है।
साधारण शब्दों में सम्प्रदायवाद का अर्थ होता
है- धर्म अथवा सम्प्रदाय के आधार पर एक-दूसरे के विरूद्ध भेदभाव रखना। कुछ
विद्वानों द्वारा साम्प्रदायिकता को परिभाषित किया गया है-
ए एच मेरियम के अनुसार, “साम्प्रदायिकता अपने समुदाय के प्रति वफादारी की
अभिवृत्ति की ओर संकेत करता है जिसका अर्थ भारत में हिन्दूत्व या इस्लाम के
प्रति पूरी वफादारी रखना है।”
डा. ई स्मिथ के शब्दों में “सम्प्रदायिकता को आमतौर पर किसी धार्मिक समूह के स्वार्थों, विभाजक और आक्रोशपूर्ण दृष्टिकोण से जोड़ा जाता है।”
इस प्रकार, अपने धर्म व
सम्प्रदाय को श्रेष्ठ समझना तथा उसके प्रति निष्ठा भाव रखना तथा अन्य धर्मों
एवं सम्प्रदायों के विरूद्ध घृणा रखना उन्हें हानि पहुंचाना ही सम्प्रदायवाद
है।
भारत में मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलिस, इस्लामिक सेवक संघ, मजलिसे मुशब्बरात, हिंदू महासभा, अकाली दल, बजरंग दल, शिव सेना, आदि संगठन साम्प्रदायिक समझे जाने वाले संगठन हैं जो अपने उग्रवादी
क्रियाकलापों के द्वारा भारतीय राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं।
भारत में सम्प्रदायवाद की समस्या के लिए
उत्तरदायी मूल कारण निम्नलिखित हैं:
- मुसलमानों में पृथकत्व की भावना सम्प्रदायवाद का मुख्य कारण हैं।
- मुसलमानों का आर्थिक तथा शैक्षिक पिछड़ापन भी सम्प्रदायवाद का कारण है।
- भारत में साम्प्रदायिकता का एक मुख्य कारण भारत के राजनेताओं की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति है।
- भारत में साम्प्रदायिकता को पाकिस्तानी प्रचार के द्वारा भी बढ़ावा मिला है।
- भारत में हिंदु साम्प्रदायिक संगठन हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद आदि धर्मान्धता की भावनाओं से युक्त संगठनों द्वारा भी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया है।
- भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या का एक प्रमुख कारण सरकार की उदासीनता है।
- भारत में साम्प्रदायिकता का एक कारण संकुचिᛝत दलीय, गुटीय तथा चुनावी राजनीति है।
भारत में सम्प्रदायवाद के निम्नलिखित दुष्परिणाम
सामने आए हैं-
- सम्प्रदायवाद राष्ट्रीय एकता के लिए सर्वधिक घातक सिद्ध हुआ है।
- साम्प्रदायिकता के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो जाता है।
- सम्प्रदायवाद देश में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न करता है।
- सम्प्रदायवाद के आधार पर होने वाले दंगो में अनेकों व्यक्तियों की जानें जाती हैं व अनेक व्यक्ति घायल होते हैं।
- साम्प्रदायिक दंगों में अनेक दुकानें लूट ली जाती हैं तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति का विनाश होता है।
- सम्प्रदायवाद व्यक्तियों का नैतिक पतन करता है।
- साम्प्रदायिकता देश के विकास में बाधा पहुंचाती है।
- सम्प्रदायवाद समाज की एकता में बाधक है।
भारतीय लोकतंत्र को सम्प्रदायवाद से युक्त
करने के लिए निम्न उपाय अपनाए जाने चाहिए-
- भारत को सम्प्रदायवाद से युक्त करने के लिए संम्पूर्ण भारत में समाचार पत्रों, रेडियो तथा टेलीविजन के माध्यम से साम्प्रदायिकता के विरूद्ध प्रचार करके भ्रातृत्व की भावना उत्पन्न की जानी चाहिए।
- सम्प्रदायवाद को दूर करने के लिए सर्वधर्म सम्मेलनों तथा कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए।
- भारत से सम्प्रदायवाद को खत्म करने के लिए यह आवश्यक है कि शासन को अपनी तुष्टीकरणर की नीति का त्याग कर देना चाहिए।
- भारत से सम्प्रदायवाद को दूर करने के लिए राजनीतिक दलों को अपनी स्वार्थपरकता का त्याग कर देना चाहिए।
- सम्प्रदायवाद को दूर करने के लिए साम्प्रदायिक संगठनों पर कानून द्वारा प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
- ऐसे काननों का निर्माण किया जाना चाहिए जिनका उद्देश्य किसी सम्प्रदाय विशेष के हितों की रक्षा करना नहीं वरन सार्वजनिक हित हो।
- सम्प्रदायवाद को समाप्त करने के लिए शिक्षा, नौकरियों, व्यवसायों व राजनीतिक संस्थाओं में सम्प्रदायिकता के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
- सम्प्रदायवाद को दूर करने के लिए सरकार को अपनी भाषा संबंधी नीति को ठीक करना चाहिए।
भारत में राष्ट्र निर्माण के राष्ट्र निर्माण
के मार्ग में जो बाधाएं मौजूद हैं। उनमें क्षेत्रवाद महत्वपूर्ण है। देश में जो
विभिन्नताएं पायी जाती हैं उनकी अभिव्यक्ति क्षेत्रीयतावाद के माध्यम से भी
होती है, पंरतु यह उल्लेखनीय है कि प्रादेशिकता या क्षेत्रवाद पर आधारित विभिन्नता
ने भारत में बहुत ही भयवाह स्थिति प्राप्त कर ली है। इसने शांति एवं व्यवस्था
को बनाए रखने में तो बाधा उपस्थित की ही है, साथ ही साथ इसने
देश की अखंडता को भी जबर्दस्त चुनौती प्रस्तुत की है।
भारतीय संदर्भ में क्षेत्रीयतावाद से तात्पर्य
राष्ट्र की तुलना में किसी क्षेत्र विशेष अथवा राज्य की अपेक्षा एक छोटे क्षेत्र
के लगाव उसके प्रति भक्ति या विशेष आकर्षण रखने से है। स्पष्टत: क्षेत्रवाद
राष्ट्रीयता की वृहत भावना का विरोध है। इसका ध्येय संकुचिᛝत
क्षेत्रीय स्वार्थों की पूर्ति करना है। भारत में क्षेत्रवाद क्षेत्र के अतिरिक्त
भाषा एवं धर्म से भी संबंधित रहा है। इन तीनों तथ्यों के एक साथ मिलने से
विघटनकारी प्रवृत्ति और प्रबल हो जाती है। क्षेत्रवाद के संबंध में एक उल्लेखनीय
बात यह है कि यह एक देशव्यापी समस्या है। क्षेत्रीय मुद्दों को लेकर भारत के
विभिन्न भागों में बहुधा आंदोलन एवं अभियान चलते रहते हैं।
यूं तो भारत में प्रादेशिकता अथवा क्षेत्रवाद
कोई नवीन घटना नहीं है फिर भी स्वतंत्रता के पू्र्व स्वतंत्रता प्राप्त के लिए
चल रहे प्रयासों के दौरान यह मुखर रूप धारण नहीं कर पाया, वास्तव में भारतीय रानीति में आज क्षेत्रवाद जिस रूप में पाया जाता है
वह मूलत: स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की ही घटना है।
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद ने कई रूप धारण
किए हैं एवं कई तरह से उसने राजनीति को प्रभावित किया है-
- कुछ राज्यों द्वारा भारत संघ से अलग होकर स्वतंत्र राज्य के दर्जे की मांग क्षेत्रीयतावाद का सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण रूप रहा है।
- भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद की अभिव्यक्ति कुछ लोगों में अलग राज्य के दर्जें की प्राप्ति में हुई है।
- पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग के रूप में भी क्षेत्रवाद सामने आया है।
- अंतर-राज्य विवाद भी क्षेत्रवाद का एक रूप है।
- उत्तर-दक्षिण अवधारणा भी क्षेत्रवाद का ही एक रूप है।
- अधिकाधिक स्वतंत्रता की मांग क्षेत्रवाद का ही एक रूप है।
भारत में क्षेत्रवाद के उदय एवं बने रहने के लिए
उत्तरदायी कारक निम्नलिखित है:
- आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में असमान विकास तथा इन क्षेत्रों में विकास तथा इन क्षेत्रों में विकास के अभाव से जनता में निराशा का जन्म हुआ है। जिससे भी क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिला है।
- रोजगार को लेकर भूमिपूत्र की अवधारणा का जन्म हुआ है अर्थात असम में असम गण परिषद। महाराष्ट्र में शिव सेना और झारखंड में झारखंड युक्ति मोर्चा जैसे राजनीतिक दलों ने भूमिपुत्र की अवधारणा को अपना राजनीतिक हथकंडा बनाया है जिससे भी क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिला है।
- कुछ राजनीतिक दल क्षेत्रीय भावना को उभारकर अपनी दलीय स्वार्थ की पूर्ति करते रहते हैं जिसके कारण क्षेत्रवाद की समाप्ति नहीं हो पाती है।
- क्षेत्रीय दलों के निर्माण और सशक्तिकरण ने भी क्षेत्रवाद को बढ़ावा दिया है।
- विभिन्न करकों के प्रभाव में भारत के संघवादी व्यवस्था में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति को बल मिला है जिनके विरोध में राज्यों के द्वारा अत्यधिक स्वयत्तता की मांग की गयी है जिसे भी क्षेत्रवाद का उत्तरदायी कारक कहा जा सकता है।
- पिछले दिनों विशेषत: 1990 के बाद भारत में जबर्दस्त रूप से गठबंधन की राजनीति की शुरुआत हुयी है जिसके कारण क्षेत्रीय दलों के समर्थन के लिए पैकेज की राजनीति का प्रचलन हुआ है पैकेज की राजनीति ने तो क्षेत्रावाद को जबर्दस्त बढ़ावा दिया है।
- भाषावाद ने क्षेत्रवाद को बढ़ाया है भाषायी आधार पर जब से राज्यों का निर्माण हुआ। तब से क्षेत्रवाद को भाषावाद से जबर्दस्त बढ़ावा मिला है।
हिंसा भारतीय लोकतंत्र तथा राष्ट्रीय एकता व
अखंडता के लिए सर्वधिक गंभीर चुनौती है। यह भारतीय लोकततांत्रिक व्यवस्था को
पंगु बना देती है तथा देश के अर्थिक व सामाजिक ढांचे को छिन्न-भिन्न कर देती है।
भारत में हिंसक घटनाओं का इतिहास वैसे तो प्राचीन है लेकिन वर्तमान समय में इसमें
खतरानाक रूप से बढ़ोत्तरी हो रही है।
भारतीय समाज में हिंसा कई रूपों में दृष्टिगोचर
हो रही है:
1. जातिगत
हिंसा
2. साम्प्रदायिक
हिंसा
3. उग्रवादी
गुटों की हिंसा
4. वर्गीय
हिंसा
5. चुनावी
हिंसा
6. रानीति
से पेरित हिंसा
7. हित
समूहों के द्वारा की जाने वाली हिंसा
भारत में अलगाववाद से हिंसा को जबर्दस्त बढ़ावा
मिला है अलगाववादी घटनाएं या आंदोलन जिनमें नागा आंदोलन, द्रविडनाड आंदोलन, मिजा माँग,
पंजाब में अलगाववाद, उल्फा आंदोलन और जम्मू-कश्मीर में
अलगाववाद आदि प्रमुख हैं।
भारतीय समाज में हिंसा के पीछे के कई कारणों को
निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है:
- जब व्यक्तियों की शासन से आशाएं तथा अपेक्षाएं पूरी नहीं हो पाती हैं तो उनमें तीव्र अंसतोष व निराशा उत्पन्न होती है जिससे हिंसा का जन्म होता है।
- बेरोजगारी, निर्धनता, तस्करी आदि आर्थिक क्रियाकलाप भी कई प्रकार से हिंसा को बढ़ावा देते हैं।
- भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था की त्रुटियां जैसे प्रशासन में अनावश्यक देरी होना, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, अकुशलता आदि भी हिंसा का वातावरण उत्पन्न करता है।
- कई बार केंद्र तथा राज्य स्तर पर योग्य नेतृत्व का अभाव होने पर हिंसा का जन्म हुआ है।
- हमारे राजनीतिक दल और उसके नेता सत्ता प्राप्ति के लिए देश के लिए जातीय हिंसा की स्थिति को अपना लेते हैं।
- भारत संघ के पंजाब तथा जम्मू कश्मीर रज्य में पाकिस्तान हिंसक तत्वों को प्रोत्साहन दे रहा है चीन तथा पाकिस्तान मिजो तथा विद्रोहियों को सैनिक व अन्य सहायता देकर उकसाते रहते हैं।
हिंसा के निम्नलिखित दुष्परिणाम सामने आए है:
- हिंसा तथा अलगाववाद से देश की एकता तथा अखंडता को खतरा उत्पन्न हुआ है।
- भारत में हिंसा के अत्यधिक प्रयोग ने लोकतंत्र को कमजोर किया है।
- हिंसात्मक प्रवृत्तियों के कारण देश के आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, औद्यौगिक व शैक्षिक आदि विविध क्षेत्रों में समुचिᛝत विकास में अनेक बाधाएं उपस्थित हो रही है।
- हिंसा के कारण देश में पृथक स्वायत्तशासी राज्यों की मांगो में वृद्धि हुई है।
हिंसा को नियंत्रित तथा समाप्त करने के लिए
निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं:
- हिंसा को समाप्त करने के लिए संवेदनशील शासन की स्थपना की जानी चाहिए।
- हिंसा को दूर करने के लिए क्षेत्रीय असंतुलन समाप्त किया जाना आवश्यक है।
- हिंसा को दूर करने के लिए आर्थिक स्थिति में सुधान करना जरूरी है।भारतीय शासन से भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता को दूर करके शासन को कार्यकुशल बनाया जाए।
- भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों में आम सहमति कायम हो।
- भारत में हिंसा को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि भारत सरकार को हिंसा का प्रोत्साहन देने वाले पड़ोसी देशों को उनकी भाषा में चेतावनी देनी चाहिए।
हिंसा के निम्नलिखित दुष्परिणाम सामने आए हैं:
- हिंसा तथा अलगाववाद से देश की एकता तथा अखंडता को खतरा उत्पन्न हुआ है।
- भारत में हिंसा के अत्यधिक प्रयोग ने लोकतंत्र को कमजोर किया है।
- हिंसात्मक प्रवृत्तियों के कारण देश के आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, औद्योगिक व शैक्षिक आदि विविध क्षेत्रों में समुचिᛝत विकास में अनेक बाधाएं उपस्थित हो रही हैं।
- हिंसा के कारण देश में पृथक स्वायत्तशासी राज्यों की मांगों में वृद्धि हुई है।
हिंसा को नियंत्रित तथा समाप्त करने के लिए
निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं:
- हिंसा को समाप्त करने के लिए संवेदनशील शासन की स्थापना की जानी चाहिए।
- हिंसा को दूर करने के लिए क्षेत्रीय असंतुलन समाप्त किया जाना आवश्यक है।
- हिंसा को दूर करने के लिए अर्थिक स्थिति में सुधार करना जरूरी है।
- भारतीय शासन से भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता को दूर करके शासन को कार्यकुशल बनाया जाए।
- भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों में आम सहमति कायम हो।
- भारत में हिसा को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि भारत सरकार को हिंसा का प्रोत्साहन देने वाली पड़ोसी देशों को उनकी भाषा में चेतावनी देनी चाहिए।
वर्तमान समय में हिंसा तथा अलगाववाद भारतीय
लोकतंत्र के समक्ष एक गंभीर चुनौती के रूप में हैं। ये भारतीय लोकतंत्र के
क्रियान्वयन को बहुत प्रभावित करते हैं। हिंसा तथा अल्रगाववाद भारत राष्ट्र की
एकता व अखंडता के लिए घातक हैं। अत: सरकार को हिंसा व अल्रगाववाद भारत को रोकने के
लिए समचित प्रबंध करना चाहिए। साथ ही भारत की जनता की आतंकवादी व अलगाववादी
गतिविधियों का विरोध करने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
सन 1947 में भारत विभाजन के दौरान साम्प्रदायिक
दंगों (हिंदू मुस्लिम) ने विकराल रूप धारण कर लिया था। उस समय से लेकर यह कभी
साधारण तो कभी उग्रता के साथ मौजूद रहा है। देश की स्वतंत्रता के बाद पहले दशक
छिट-पुट घटनाओं के अलावा देश की साम्प्रदायिक स्थिति ज्यादा हिंसक नहीं थी। सन
1961 में मध्य प्रदेश के जबलपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगे तथा उसके बाद उत्तर
प्रदेश में अलीगढ़ तथा अन्य स्थानों के दंगों से साम्प्रदायिक द्वेष का नया दौर
शुरू हुआ। 1964 में बिहार, बंगाल,
मध्य प्रदेश में साम्प्रदायिक दंगे व्यापक रूप से फैले। लगभग तीन वर्षें तक
स्थिति लगभग शांत रही। उसके उपरांत बिहार के रांची में भड़का सांप्रदायिक दंगा अन्य
शहरों में भी फैल गया। सांप्रदायिक दंगों का यह चक्र 1970 तक लगातार चलता रहा और
यह बिहार के अलावा महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल,
कश्मीर, असम तक फैल गया। इस दौरान यह संप्रदायिक दंगा निकृष्टतम
स्तर तक पहुंच गया। इसमें 1100 हिंसक घटनाएं घटी सन 1972 से 1976 के दौरान उन
घटनाओं में निश्चित रूप से कमी आयी और हिंसक घटनाओं की संख्या 1976 से घटकर 521
से 169 रह गयी पंरतु इसके बाद स्थिति ठीक उसके विपरीत हो गयी। इसके बाद
सांप्रदायिक हिंसक घटनाओं की संख्या में वृद्धि होती रही। उदाहरणत: वर्ष 1977 में
188, 1978 में 230, 1979 में 304, 1981 में 319, 1982 में 474 हिंसक सांप्रदायिक
घटनाएं घटित हुईं। 1984 की सांप्रदायिक हिंसा ने आंध्र पदेश राज्य के हैदराबाद
एवं महाराष्ट्र के मुंबई और ओरंगाबाद
शहरों को पूरी तरह अपनी चपेट में ले लिया। सनृ 1989 में बिहार के भागलपुर के दंगे
का रूप भी कफी वीभत्स था। अधिकाशं साम्प्रदायिक दंगे हिंदू-मुस्लिम के बीच ही
हुए हैं। पंरतु 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री की हत्या के बाद उत्पन्न
हिंदू-सिख दंगा एवं अनेक बार मुस्लिमों में सिया-सुन्नी समप्रदायों के बीच की
सामप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुयी हैं। दिसंबर 1992 में अयोध्या के कार सेवकों
द्वारा विवादित बाबरी मस्जिद गिरा दिए जाने के कारण लगभग पूरे देश में सांप्रदायिक
हिंसा की लपटें फैल गईं।
27 फरवरी, 2002 को
गुजरात के पंचमहल जिले के गोधरा रेलवे स्टेशन पर एक खास समूह के उपद्रवियों
द्वारा साबरमती एक्सप्रेस पर हमला कर चार डिब्बों में आग लगा दी गयी जिसमें 58
व्यक्ति जिंदा जल गए एवं 43 अन्य घायल हो गए। मरने वालों में अधिकतर राम सेवक
थे, जो अयोध्या में यज्ञ में शामिल होकर लौट रहे थे। इस
लोमहर्षक कांड के विरोध में विश्व हिंदू परिषद द्वारा 28 फरवरी को गुजरात व
महाराष्ट्र बंद का आवहान किया गया। बंद के दौरान गुजरात के राज्य व्यापी हिंसा
में लगभग दो सौ लोग मारे गए। बंद के दौरान हुई हिंसा एवं लूटपाट में करोड़ो की सम्पत्ति
भी जलकर राख हुयी। स्थिति की गंभीरता के कारण अहमदाबाद,
राजकोट बडोदरा सहित 36 शहरों व कस्बों में प्रशासन को कर्फ्यू लगाना पड़ा स्थ्िाति
पर नियंत्रण हेतु भारी मात्रा में अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती की गयी। गुजरात में
भड़की हिंसा कमोवेश लगभग 2 माह तक चलती रही तथा वहां के मध्यावधि विधान सभा चुनाव
दिसंबर 2002 तक साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति रही। देश में साम्प्रदायिक हिंसा
फैलाने में पाक खुफिया एजेंसी आई. एस. आई. तथा पकिस्तान समर्थित अन्य आतंकवादी
गिरोहों का हाथ भी बताया जाता रहा है।
भारतीय प्रशासन में भ्रष्टाचार के बड़े पैमाने
पर विद्यमान होने के कौन-कौन से तथ्य जिम्मेदार रहे हैं, इसके विश्लेषण से पूर्व भ्रष्टाचार का अर्थ स्पष्ट हो जाना चाहिए।
आमतौर पर भ्रष्टाचार का अर्थ घूसखोरी से लगाया जाता है पंरतु भ्रष्टाचार मात्र
घूसखोरी ही नहीं है वस्तुत: इसका क्षेत्र उसकी कही व्यापक है। पक्षपात, जातीयता, भाई-भतीजावाद आदि तथ्यों के प्रभाव में
रहकर कार्य करना तथा सामान्य कार्येां के निष्पादन में अनावश्यक देर भी भ्रष्टाचार
के अन्य पक्ष हैं। केंद्रीय निरीक्षण आयोग ने भ्रष्टाचार के विभिन्न प्रकार की
एक लंबी सूची तैयार की है जिसके अंतर्गत कुछ प्रकार के इस मामलों को भ्रष्टाचार
के रूप में स्वीकार किया गया है।
भारतीय प्रशासन में व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार
के विद्यमान होने के लिए कौन-कौन से तथ्य जिम्मेदारी हैं यह एक विचारणीय प्रश्न
है भारतीय प्रशासन के कार्यकरण के जांच के लिए अब तक गठित विभिन्न आयोगों ने
प्रशासन में भ्रष्टाचार से संबंधित जो रिपोर्ट प्रस्तुत की है उससे उन तथ्यों का
ज्ञान होता है जो भ्रष्टाचार के लिए उत्तरदायी हैं। प्रशासन में भ्रष्टाचार के
लिए उत्तरदायी तथ्यों को निम्नलिखित रूप में रखा जा सकता है:
- भारतीय प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए उत्तरदायी में ऐतिहासिक तथ्यों को रखा जा सकता है। यद्यपि भारतीय प्रशासन में भ्रष्टाचार ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात गंभीर रूप धारण किया परंतु इसकी नीवं स्वंत्रता प्राप्ति के पूर्व ही पड़ चुकी थी तथा निम्न श्रेणी के प्रशासनिक पदों पर कार्यरत कर्मचारियों में भ्रष्टाचार पाया जाता था। स्वतंत्रता प्राप्ति एवं देश विभाजन के चलते प्रशासन के उच्च श्रेणी के पदों पर कार्यरत कर्मचारियों में भ्रष्टाचार पाया जाता था। स्वंत्रता प्राप्ति एवं देश विभाजन के चलते प्रशासन के उच्च श्रेणी के पदों पर कार्यरत अंग्रेज तथा मुस्लिम पदाधिकारियों द्वारा भारी संख्या में क्रमश: इगलैंड तथा पाकिस्तान पदों को भरने के लिए पदोन्नति पद रिक्त हुए। ऐसे उच्च प्रशासनिक पदों को भरने के लिए पदोन्नति एवं आकस्मिक भर्ती का सहारा लिया गया और योग्यता पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। पदोन्नति के माध्यम से जो कर्मचारी ऊपर गए वे पहले से ही भ्रष्ट थे। इस प्रकार भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक व्याप्त हो गया।
- महायुद्ध के कारण उत्पन्न अभावों ने भी नागरिक सेवाओं एवं भ्रष्टाचार की बीमारी को फैला दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में आर्थिक आवश्यकताओं को देखते हुए कंट्रोल परमिट तथा राशनिंग की व्यवस्था की गई। इसने चोर बाजारी के दरवाजे को खोल दिया। सरकारी कर्मचारियों में रिश्वत प्राप्त करने हेतु काले धन का प्रयोग होने लगा तथा जिसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार धीरे-धीरे पूरे प्रशासन में फैल गया।
- भ्रष्टाचार को फैलाने में आर्थिक कारणों का महत्चपूर्ण हाथ रहा है। कर्मचारियों को वेतन कम मिलता है, महंगाई भत्ते उतने नहीं मिलते जितनी महंगई बढ़ती है।
- भ्रष्टाचार हमारे समाज की जड़ में समाया हुआ है यहां व्यक्ति की महानता एवं परिवार की श्रेष्ठता का मापदंड धन बन गया है। इससे भी भ्रष्टाचार फैलता है।
- भ्रष्टाचार को जन्म देने वाले सभी कारणों में राजनीतिक कारण काफी महत्वपूर्ण है। भरत में राजनीतिक नेता आम निर्वाचन के समय पूंजीपतियों से धन प्राप्त करते हैं और पूंजीपतियों से प्राप्त धन उनके लिए निर्वाचन जीतने में काफी सहायक होता है। निर्वाचन के बाद पूंजीपतियों तथा कुछ अन्य प्रकार के दबाव समूहों को ध्यान में रखकर ही वे नेता कार्य करते हैं। उनके हितों की पूर्ति के लिए राजनीतिक नेता असैनिक सेवकों के पदस्थापन एवं हस्तांतरण का सहारा लेते हैं। अधिकांश लोक सेवक अपने राजनीतिक नेताओं के मनोनुकूल काम करने लगते हैं। इससे भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
- प्रशासकीय अनिश्चित भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में सहायक रही है।
- विकासशील देशों की भांति भारत में भी नागरिक चेतना अभाव पाया जाता है। जनता अपनी शिकायतों को दूर करने के लिए जोरदार आवाज नहीं उठाती। लोकमत की चिंता किए बिना वह अवैध कार्य करती है।
- भारत में लोक सेवकों का प्राप्त संरक्षण ने भी भ्रष्टाचार को प्रश्रय दिया है।
भारतीय लोक सेवा में व्याप्त भ्रष्टाचार को
दूर करने के लिए सरकार ने अब तक नई समितियों एवं आयोगें का गठन किया है जिन्होंने
विभिन्न प्रकार के सुझाव भी दिए हैं। गोरखला रिपोर्ट, एपलबी रिपोर्ट (1953), संस्थानम कमेटी (1963) एवं
प्रशासनिक सुधार आयोग (1966) द्वारा प्रस्तुत सुझाव भ्रष्टाचार को दूर करने से
भी संबंधित रहे है। भारत में भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए कई तरह की संस्थाओं
के रूप में लोकपाल तथा लोकायुक्त की दिशा में प्रयास सम्मिलित है। भारत में अब तक
प्रशासनिक भ्रष्टाचार के स्वरूप एवं विभिन्न समितियों एवं आयोगों की रिपोर्ट को
ध्यान में रखते हुए भ्रष्टाचार के उपचार के लिए निरोधात्मक तथा सकारात्मक निम्नलिखित
उपाय अपनाए जा सकते है-
- चूंकि प्रशासनिक भ्रष्टाचार राजनीतिक भ्रष्टाचार से घनिष्ठ रूप से संबंधित है इसलिए निर्वाचन प्रक्रिया को सरल बनाकर मंत्रियों तथा अन्य महत्वपूर्ण नेताओं को पूँजीपत्तियों के प्रभाव से मुक्त किया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में मंत्री तथा अन्य राजनीतिक नेता, लोक सेवकों पर अनावश्यक दबाव नही डालेंगें।
- फाइलों के संबंध में निर्णय लेने के लिए एक समय निर्धारित होना चाहिए। यदि उस समय के अदंर निर्णय नहीं लिया जाता तो संबंधित पदाधिकारी से ‘कारण बताओं’ पूछा जाना चाहिए। साथ ही साथ इस बात की जांच की भी व्यवस्था होनी चाहिए कि फाइलों का निष्पादन उचित ढंग से हो रहा है या नहीं।
- आई.ए.एस., आई.पी.एस. तथा आई.एफ.एस. के पदाधिकारियों के लिए ऐसे साक्षात्कार की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे योग्य एवं सक्षम व्यक्ति ऐसी सेवाओं में आ सकें।
- बढ़ती इुई महंगाई से उत्पन्न कठिनाई को ध्यान में रखते हुए लोक सेवकों के वेतनमान में वृद्धि होनी चाहिए।
- पदाधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप की यथाशीघ्र जांच की व्यवस्था होना चाहिए और यदि वह भ्रष्टाचार का दोषी पाया जाए तो उसके विरुद्ध जल्द कार्यवाही की जानी चाहिए।
- साधारण न्यायालयों के कार्यभार तथा निम्न न्यायलयों के मंत्रियों तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से प्रभावित होने की संभावना को देखते हुए पदाधिकारियों के विरुद्ध आरोप की जांच के लिए विशेष न्यायालय का गठन भी वांछनीय है।
- ईमानदार पदाधिकारियों को पदोन्नति तथा अन्य प्रकार के प्रोत्साहन मिलने चाहिए ताकि अन्य पदिधिकारी भी पदोन्नति पाने एवं प्रसिद्धि पानेकी कोशिश करें।
अंत में गलत या सही कार्यों के प्रचार के माध्यम
से भी लोक सेवकों की नैतिकता को प्रभावित किया जा सकता है। इससे प्रशासन के प्रति
जनता की जागरूकता में भी वृद्धि होगी और लोक सेवकों के कार्य संपादन में भी अनुकूल
प्रभाव पड़ेगा।
क्षेत्रीय असंतुलन भी भारतीय लोकतंत्र के समक्ष
एक चुनौती के रूप में विद्यमान है। भारत विश्व के अधिकतम जनंसख्या वाले देशों
में दूसरे स्थान पर है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या लगभग 100
करोड़ हो गयी। क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्व में सातवां स्थान है। इसका
क्षेत्रफल 32,87,786 वर्ग किलोमीटर
है। भारत में भौगौलिक आधार पर अनेक विषमताएं पायी जाती हैं। पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश अत्यधिक उपजाऊ भूमि वाले क्षेत्र हैं तो राजस्थान
जैसे मरुस्थल में अल्प मात्रा में भी कृषि उपज सम्भव नहीं है। किसी क्षेत्र में
अनाज का किसी क्षेत्र में कपास, चाय आदि का उत्पादन होता
है। किसी क्षेत्र में खनिज संपदा का अपार भंडार है। इसके साथ ही भारत में जाति, धर्म व सांस्कृतिक विभिन्नताएं भी विद्यमान हैं।
क्षेत्रीय असंतुलन ने भारतीय लोकतंत्र को बहुत
प्रभावित कियाहै। भारत में क्षेत्रीय असंतुलन ने क्षेत्रावाद तथा पृथकतावाद की
भावना को जन्म दिया है। भारत में क्षेत्रीय असंतुलन के निम्नलिखित परिणाम सामने
आए हैं:
- क्षेत्रीय असंतुलन पृथक राज्यों की मांग को जन्म देता है।
- क्षेत्रीय असंतुलन ने हिंसात्मक राजनीति को जन्म दिया है। इसके कारण विभन्न राज्यों में आंदोलन, संघर्ष, तनाव आदि की स्थितियां पैदा हो रही हैं।
- क्षेत्रीय असंतुलन ने ही भूमि पुत्र की अवधारणा को जन्म दिया है। भुमि पुत्र की अवधारणा का अर्थ है कि किसी राज्य कि निवासियों द्वारा उस राज्य में बसने और रोजगार प्राप्त करने के संबंध में विशेष संरक्षण प्रदान किया जाए।
- क्षेत्रीय असंतुलन राष्ट्रीय एकता में बाधक है।
- क्षेत्रीय असंतुलन के परिणामस्वरूप क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का जन्म होता है।
लोकतंत्र के सफल क्रियान्वयन के लिए यह आवश्यक
है कि क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करके संपूर्ण देश के संतुलित विकास के लिए प्रयास
किए जाएं। क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते
हैं:
- आर्थिक दृष्टि से पिछड़े क्षेत्र के विकास को उच्च प्राथमिकता दी जाए।
- औद्योगिक उत्पादन की नई-नई तकनीकों का प्रचार व प्रसार किया जाए।
- कृषि के उत्पादन के लिए उन्न्नतिशील बीजों, रासायनिक खादों, सिंचाई के साधनों व कृषि यंत्रों के प्रयाग के लिए कृषकों को प्रेरित किया जाए।
- शहरों और गांवों की विकास दर में बहुत अंतर है। गांवों के विकास के लिए ग्रामीण समन्वित विकास कार्यक्रम लागू किए जाने चाहिए।
- विदेशी घुसपैठ पर अंकुश लगाया जाए। इसके अतिरिक्त उन राज्यों के मूल निवासियों को विशेष संरक्षण प्रदान किया जाए।
- विभिन्न क्षेत्रों के लिए बनाए गए विकास कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। इसके लिए ईमानदार तथा कर्मठ अधिकारियों की नियुक्ति की जाए।
आधुनिक युग लोकतंत्र का
युग है। लोकतंत्र में संप्रुभत्ता जनता में निहित होती है। जनता अपनी इस शक्ति का
प्रयोग स्वयं या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से करती ह। जनता के द्वारा अपनी इस
शक्ति का सही रूप में प्रयोग तभी किया जा सकता है जबकि यह शिक्षित हो, किंतु भारत की अधिकांश जनसंख्या निरक्षर है इसीलिए भारत में लोकतंत्र का
सफल क्रियान्वयन संभव नहीं हो सका है। वर्तमान में निरक्षरता भारतीय लोकतंत्र के
समक्ष एक गंभीर चुनौती है। भारत में साक्षरता का राष्ट्रीय प्रतिशत मात्र 52.21
है।
निरक्षण मानव जाति के
लिए अभिशाप है। निरक्षर व्यक्ति को अपने अधिकार तथा कर्तव्यों का कोई ज्ञान
नहीं होता है। परिणामस्वरूप न तो वह अपने अधिकारों को प्रयोग कर सकता है और न
कर्तव्यों का पालन ही उचित रूप से कर सकता है।
भारत में निरक्षरता के
निम्नलिखित दुष्परिणाम सामने आए हैं:
- निरक्षरता तथा अज्ञानता के कारण भारत के विकास की गति बहुत धीमी चल रही है।
- निरक्षर व्यक्ति का जीवन के सभी क्षेत्रों में शोषण किया जाता है।
- निरक्षरता ने भारतीय समाज में आर्थिक और सामाजिक विषमाओं को जन्म दिया है।
- निरक्षरता तथा अज्ञानता के कारण अपराधों में वृद्धि होती है।
- निरक्षरता समाज में अंधविश्वासों को प्रोत्साहित करती है जिससे देश व समाज का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
- निरक्षरता ने नारी उत्पीड़न के रूप में दहेज प्रथा को जन्म दिया है।
निरक्षरता को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय
अपनाए जा सकते हैं-
- निरक्षरता को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि देश के सभी व्यक्तियों को उचित शिक्षा प्रदान की जाए, जिससे वे अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर सकें।
- बड़ी आयु की स्त्रियों तथा पुरुषों के लिए प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चलाया जाए।
- प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य तथा नि:शुल्क होनी चाहिए।
- जनता में शिक्षा प्राप्ति के प्रति जागरुकता उत्पन्न की जानी चाहिए।
- विद्यार्थी को उसकी रुचि के अनुरूप ही शिक्षा प्रदान की जाए।
- शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिससे जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि की समस्याओं का हल किया जा सके समुचित शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय एकीकरण का महत्वपूर्ण साधन है।
इस प्रकार निरक्षरता मानव समाज तथा भारतीय
लोकतंत्र के लिए अभिशाप है। निरक्षरता को शिक्षा के द्वारा ही दूर किया जा सकता
है। शिक्षा मनुष्य की वह शक्ति है जो उसमें चिंतन, मनन
तथा तर्क के आधार पर विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता विकसित करती है। शिक्षा के
द्वारा ही व्यक्ति को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का सम्यक् ज्ञान हो सकता
है। अर्थिक शोषण तथा दमन से मुक्ति का मूलमंत्र शिक्षा है। संक्षेप में, भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, आर्थिक व
राजनीतिक समस्याओं का समाधान शिक्षा से ही संभव है।
जातिवाद भारतीय लोकतंत्र को प्रभावित करने वाला, सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा निर्णायक तत्व हैं। भारतीय लोकतंत्र पर
जातिवाद का प्रभाव प्रत्येक स्तर पर प्रत्येक क्षेत्र में स्पष्ट दिखाई देता
है। यह सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है कि भारत में राजनीतिक व्यवस्था
तथा सामाजिक व्यवस्था एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। सामाजिक व्यवस्था को
महत्वपूर्ण पहलूओं में जातिवाद एक महत्वपूर्ण पहलू है जो कमोवेश पूरे राष्ट्र
में राजनीति को प्रभावित करता है।
जातिवाद एक जाति के लोगों की वह भावना है जो उन्हें
अपनी जाति-विशेष के हितों की रक्षा के लिए प्रेरित करती है। यह भावना अपने जातीय
स्वार्थों की पूर्ति के लिए अन्य जातियों के हितों की अवहेलना करने तथा उनका हनन
करने के लिए प्रेरित करती है। यहां तक कि प्रशासन व राजनीति में भी उनके द्वारा
जाति के आधार पर आचरण किया जाता है।
के. एम. पनिक्कर के शब्दों में, “राजनीतिक दृष्टिसे उपजाति के प्रति निष्ठा का भाव
भी जातिवाद है।”
डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद के अनुसार, “जातिवाद, राजनीति में परिणत
जाति के प्रति निष्ठा है”।
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पर जाति का प्रभाव
निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है:
- भारत में प्राय: सभी राजनीतिक दल लोकसभा तथा राज्य विधान सभा के चुनावों में प्रत्याशियों का चयन जाति के आधार पर ही करते हैं।
- भारत में मुख्य रूप से पिछले कुछ वर्षों में यह प्रवृत्ति देखने को मिली है कि राजनीतिक दलों का निर्माण जातिगत आधार पर होने लगा है।
- भारत में निर्वाचन में भारतीय मतदाताओं का व्यवहार भी निश्चित रूप से जातिवाद से प्रभावित रहा है।
- भारत में विभिन्न जातियां संगठित होकर राजनीतिक तथा प्रशासनिक निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं।
- भारत में केंद्र तथा राज्य के मंत्रिमंडलों का निर्माण भी जातिगत आधार पर ही किया जाता है।
- राजनीतिक पूरस्कारों के वितरण में भी जातिवाद को देखा जा सकता है।
- भारत में अखिल भारतीय स्तर की राजनीति की अपेक्षा राज्यों की राजनीति में राजनीति में जाति का प्रभाव अधिक है।
जाति के निम्नलिखित दुष्परिणाम सामने आए हैं:
- जातिवाद ने भारतीय समाज में जातीय एवं वर्गीय संघर्षों को जम्न दिया है।
- जातिवाद समाज के विकास में बाधक है।
- जाति के आधार पर निर्वाचित व्यक्ति अपनी जाति को ही सभी प्रकार ही सुविधाएं प्रदान करने का प्रयास करता है। इससे राजनीतिक भ्रष्टाचार उत्पन्न होता है।
- जातिवाद भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक है।
- जातिवाद की भावना के प्रेरित मतदाता अपनी जाति के अयोग्य प्रत्याशियों को निर्वाचित कर देते हैं। अत: जातिवाद योग्य व्यक्तियों के चयन में बाधक है।
भारतीय लोकतंत्र को जातिवाद के दुष्प्रभावों से
बचाने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जाने चाहिए:
- भारतीय लोकतंत्र को जातिवाद के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए जातिसूचक शब्दों के प्रयोग पर रोक लगानी चाहिए। इससे राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि होगी।
- जातिवाद को दूर करने के लिए सरकार द्वारा जातीय संगठनों के निर्माण तथा प्रकाशनों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।
- जातिवाद को दू करने के लिए जातिगत आधार पर होने वाले राजनीतिक चुनावों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।
- भारत से जातिवाद को दूर करने के लिए अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
- जातिवाद को दूर करने के लिए समाज सुधारक संस्थाओं व सरकार के द्वारा जातिवाद के विरुद्ध प्रचार करना चाहिए।
- जातिवाद को दूर करने के लिए जनता को शिक्षित करना परम आवश्यक है।
- भारत से जातिवाद को दूर करने के लिए जातीय आधार पर आरक्षण की व्यवस्था समाप्त कर दी जानी चाहिए। इसके स्थान पर आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
- जातिवाद की भावना को समाप्त करने के लिए समाज में व्याप्त आर्थिक एवं सामाजिक असमानता को समाप्त करने की व्यवस्था करनी चाहिए तथा समाज में सभी लोगों को समान रूप से रोजगार तथा प्रतिष्ठा प्राप्त होनी चाहिए।
भारत में प्राचीनकाल से ही असमानता की स्थिति
विद्यमान है तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग 50 वर्ष बाद भी बनी हुई है।
प्रारंभ से ही समाज चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में विभाजित था। इन चारों वर्गों में से ब्राह्मण को
समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। दूसरे स्थान पर क्षत्रीय आते थे। तीसरे
स्थान पर वैश्य तथा सबसे निम्न स्थान शूद्रों को प्राप्त था। इस वर्ण व्यवस्था
का आधार कार्य विशेषीकरण था। कालांतर में वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म हो गया
तथा प्रत्येक वर्ग में जातियों और उपजातियों का जन्म हुआ। परिणामस्वरूप भारतीय
समाज विभिन्न वर्गों, जातियों तथा उपजातियों में विभाजित
होता चला गया। प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक स्तर उसकी जाति के आधार पर निश्चित
होने लगा। उच्च जातियों के लाग निम्न जातियों को घृणा की दृष्टि से देखने लगे।
यहां तक कि अपना विकास करने वाली सामान्य सुविधाओं से भी वंचित रखता गया।
परिणामस्वरूप, इस निम्न समझी जाने वाली जातियों की उन्नति
एवं विकास रुक गया। इस प्रकार, भारतीय समाज में जाति पर
आधारित सामाजिक असमानता अर्थात ऊँच-नीच का प्रचलन हुआ।
इसके अतिरिक्त सामाजिक असमानता का एक रूप है
पुरुष वर्ग द्वारा स्त्रियों की उपेक्षा करना। यद्यपि प्राचीनकाल में स्त्रियों
को पुरुषों के समान समझा जाता था। उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त था।
कालांतर में स्त्रियों को पुरुषों से हीन मान लिया गया। पुरुषों के द्वारा उन पर
शासन तथा अत्याचार किए जाने लगे उनकी सभी स्वेतंत्रताएं समाप्त कर दी गयी। उनकी
स्थिति बहुत दयनीय हो गई। बाल विवाह, सती प्रथा, नारी अशिक्षा जैसी बुराइयां समाज में उत्पन्न हो गईं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय
संविधान के द्वारा सामाजिक समानता के आदर्श को अपनाया गया। भारत में विद्यमान
सामाजिक असमानाताओं को दूर करने के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 के द्वारा
धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर जीवन के किसी संशोधित करके इसका नाम नागरिक
अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 कर दिया गया है।
संविधान के द्वारा अनुसूचित जातियों एवं
जाजातियों की उन्नति तथा विकासके लिए उन्हें संसद तथा विधानसभाओं में 2020 ई तक
के लिए आरक्षण प्रदान किया गया है।
भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में
शिक्षा, वृद्धावस्था, बिमारी तथा अंग हानि आदि जैसी अयोग्यता
की स्थिति में राजकीय सहायता की व्यवस्था की गयी है। समाज के कमजोर वर्गों तथा
विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के हितों की रक्षा के लिए तथा मेहनतकश
लोगों के लिए उचित व मानवोचित परिस्थितियों व स्त्रियों के लिए प्रसुति आदि की
सुविधाओं की व्यवस्था का प्रावधान किया गया है।
भारतीय संविधान के द्वारा स्त्री तथा पुरुष को
समान स्थिति प्रदान की गई है। स्त्रियों की दिशा सुधारने के लिए सरकार के द्वारा
कानूनों का निर्माण करके सती प्रथा, बाल विवाह, दहेज प्रथा आदि को दंडनीय अपराध घोषित किया गया है। नारियों की शिक्षा के
लिए सरकार के द्वारा विशेष प्रयत्न किए जा रहे हैं।
यद्यपि भारतीय संविधान के द्वारा सामाजिक
असमानता के सभी रूपों को समाप्त करने का प्रयास किया गया है किंतु व्यवहार में
स्थिति यह है कि आज भी भारतीय समाज जातिगत आधार पर विभाजित है। आज भी जन्म के
आधारपरउच्च व निम्न जातियां पायी जाती हैं। आज भी निम्न जातियों को घृणा की
दृष्टि से देखा जाता है। संविधान द्वारा अस्पृश्यता को गैर कानूनी घोषित किए
जाने के बावजूद समाज में अस्पृश्यता की भावना विद्यमान है। देश की प्रशासनिक
सेवाओं में आज भी उच्च वर्ग का ही प्रभुत्व है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात
से ही हमारे राजनेताओं द्वारा सामाजिक न्याय के नाम पर स्वार्थ की राजनीति की
जाती है। दलितोत्थान के नाम पर समाज के कुछ विशेष वर्गों को शिक्षा प्राप्ति से
लेकर रोजगार प्रदान करने तक आरक्षण की जो संवैधानिक सुविधा प्रदान की गयी ऊँचे व
नीचे कहे जाने वाले समाज के वर्गों के बीच की खायी और गहरी ही हुई। आरक्षण ने
भारतीय समाज तथा लोकतंत्र में नए तनावों को जन्म दिया है जो वर्गीय संघर्ष, हरिजन समस्या, हिंदु-मुस्लिम संघर्ष के रूप में
सामने आया है।
संवैधानिक व्यवस्थाओं को होते हुए भी व्यवहार
में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार तथा सुविधाएं प्राप्त नहीं हैं। आज भी
दहेज प्रथा, सती प्रथा जैसी अमानवीय घटनाएं होती हैं तथा
नौकरी में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। आज भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में
उनका शोषण किया जा रहा है।
आर्थिक असमानता भारतीय लोकतंत्र के लिए एक
चुनौती के रूप में विद्यमान है। भारत में जातीय व्यवस्था के साथ ही आर्थिक
असमानता का जन्म हुआ है। प्रत्येक व्यवसाय से जुड़ा हुआ था।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में
विद्यमान आर्थिक असमानता को समाप्त करने के लिए अनेक प्रयास किए गए हैं। भारतीय
संविधान का लक्ष्य आर्थिक न्याय की स्थापना करना है। इसके लिए भारतीय संविधान
के मूल अधिकारों को अंतर्गत बेगार लेना दंडनीय तथा मनुष्य का क्रय-विक्रय, अवैध बाल श्रम तथा स्त्रियों से उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक किसी
कार्य का कराया जाना कानूनन निषिद्ध कर दिया गया है। इसका उद्देश्य भारत में
विद्यमान आर्थिक असमानता को दूर करना है। देश में विद्यमान आर्थिक असमानता को दूर
करनेके लिए राज्यनीति के निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत आय की असमानताओं को कम
करने, अर्थिक संसाधनों के स्वामित्व व नियंत्रण सामान्य
जनहित के अनुकूल किए जाने संपत्ति व उत्पादन के साधनों के केन्द्रीकरण को रोकने
सभी क्षेत्रों में श्रमिकों जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक वेतन, अच्छा जीवन-स्तर, अवकाश व आराम का समय तथा उनकी
सामाजिक व सांस्कृतिक उन्नति के अवसर उपलब्ध कराने,
औद्योगिक संस्थाओं तथा कारखानों में श्रमिकों को प्रबधंन में भागीदार बनाए जाने, रोजगार के अधिक उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान किया गया है।
भारत में आर्थिक असमानता निर्धनता, बेरोजगारी तथा महंगाई के रूप में विद्यमान है समाजवादी ढांचे के समाज की
स्थापना की घोषणा होने के बावजूद आर्थिक असमानता समाप्त नहीं हो सकी है। भारत
सकरार की लोककल्याण की नीतियों के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय निर्धनता की सीमा
रेखा के नीचे रहते हुए अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वस्तुत: भारत विश्व का
सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होते हुए भी इतना निर्धन है कि यह तृतीय विश्व के
देशों की श्रेणी में आता है।
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