नदी की आत्मकथा पर निबंध Nadi ki Atmakatha Essay in Hindi : हिमगिरी से निकलकर कल कल छल छल करती निरंतर प्रवाहमान मैं नदी हूं। पर्वतराज मेरी माता है समुद्र मेरा पति है। माता की गोद से निकल कर कहीं धारा के रूप में और कहीं झरने के रूप में इठलाते हुई आगे बढ़ती हुई वसुधा के वक्षस्थल का प्रचालन करती हूं सिंचन करती हूं। अंत में पति अंक में शरण लेती हूं। हृदय की विशालता देख कर मुझे दरिया कहा गया। सदा सतत बहाव के कारण प्रवाहिणी मेरा नाम पड़ा। जलप्रपात के कारण मुझे निर्झरिणी नाम से पुकारा गया। निरंतर सरकने या चलते रहने के कारण मुझे सरिता नाम दिया गया और अनेक स्त्रोत के कारण स्त्रोतस्विनी कहा गया है। मेरे सर्वाधिक पवित्र रूप को गंगा कहा गया है। गंगा के समानांतर बहने वाले रूप को यमुना नाम से पहचाना गया। दक्षिण भारत की गंगा को गोदावरी कहा गया। सतलुज की सहायक होने के कारण मुझे ऋग्वेद में सरस्वती नाम से पहचाना गया। पवित्रता की इस श्रृंखला में मुझे कावेरी, नर्मदा तथा सिंधु नाम दिए गए।
हिमगिरी से निकलकर कल कल छल छल करती निरंतर प्रवाहमान मैं नदी हूं। पर्वतराज मेरी माता है समुद्र मेरा पति है। माता की गोद से निकल कर कहीं धारा के रूप में और कहीं झरने के रूप में इठलाते हुई आगे बढ़ती हुई वसुधा के वक्षस्थल का प्रचालन करती हूं सिंचन करती हूं। अंत में पति अंक में शरण लेती हूं।
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हृदय की विशालता देख कर मुझे दरिया कहा गया। सदा सतत बहाव के कारण प्रवाहिणी मेरा नाम पड़ा। जलप्रपात के कारण मुझे निर्झरिणी नाम से पुकारा गया। निरंतर सरकने या चलते रहने के कारण मुझे सरिता नाम दिया गया और अनेक स्त्रोत के कारण स्त्रोतस्विनी कहा गया है। मेरे सर्वाधिक पवित्र रूप को गंगा कहा गया है। गंगा के समानांतर बहने वाले रूप को यमुना नाम से पहचाना गया। दक्षिण भारत की गंगा को गोदावरी कहा गया। सतलुज की सहायक होने के कारण मुझे ऋग्वेद में सरस्वती नाम से पहचाना गया। पवित्रता की इस श्रृंखला में मुझे कावेरी, नर्मदा तथा सिंधु नाम दिए गए।
भूमि सिंचन मेरा धर्म है। मुझसे नहरें निकालकर खेती तक पहुंचाई जाती हैं सिंचाई से भूमि उर्वरा होती है अनाज अधिक पैदा होता है। अन्न ही जीवन का प्राण है। मैं जीवो की प्राणदात्री हूं। मैं पेड़-पौधों का सिंचन करती हूं और प्राणियों की प्यास बुझाती हूं।
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मेरी धारा को ऊंचे प्रपात के रूप में परिवर्तित करके विद्युत का उत्पादन किया जाता है। विद्युत वैज्ञानिक संविदा का सूर्य है। भौतिक उन्नति का मूल कारण है। आविष्कार और उद्योगों का प्राण है। यह दैनिक चर्चा में मानव की चेरी है और बुद्धि प्रयोग में वह मानवीय चेतना का कंप्यूटर है। यदि मेरे जल से विद्युत तैयार ना हो तो उन्नति के शिखर पर पहुंची विश्व सभ्यता वसुधा पर औंधी पड़ी कराह रही होगी।
मैं परिवहन के लिए भी उपयोगी माध्यम सिद्ध हुई हूं। परिवहन समृद्धि का अनिवार्य अंग है। प्राचीन काल में तो प्रायः संपूर्ण व्यापार ही मेरे द्वारा होता था किंतु आज जबकि परिवहन के अन्य सुगम साधन विकसित हो चुके हैं तब भी भारत भर में नौका परिवहन योग्य जलमार्गों द्वारा 66 लाख टन सामान की धुलाई की जाती है। यही कारण है कि मेरे तट पर बसे नगर व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण समझे जाते हैं।
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मेरे जल से प्राणी अपनी प्यास बुझाते हैं, बहता नीर में स्नान करके ना केवल आनंदित होते हैं अपितु स्वास्थ्यवर्धन भी करते हैं। आज का अभिमानी नागरिक कह सकता है कि हम तो नगर निगम द्वारा वितरित जल पीते हैं जो नलों से आता है। अरे! आत्म अभिमानी मानव। यह न भूल कि यह जल मेरा ही है जिसे संग्रहित करके रासायनिक विधि द्वारा शुद्ध तथा पर बनाकर नलों के माध्यम से तुम्हारे पास पहुंचाया जाता है। इसलिए कहती हूं मेरा जल अमृत है और पहाड़ों से जड़ी बूटियों के संपर्क के कारण औषधि युक्त है।
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मेरे तट तीर्थ बन गए। शायद इसलिए घाट को तीर्थ कहा गया क्योंकि तीर्थ भवसागर पार करने के घाट ही तो है। सात पुरियों- अयोध्या, मथुरा, माह, काशी, कांची, अवंतिका, तथा द्वारिका एवं असम के पवित्र धार्मिक स्थान मेरे तट पर ही बसे हैं। इतना ही नहीं वर्तमान भारत के बापू महात्मा गांधी और प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू लाल नेहरू, बहादुर शास्त्री की समाधियां भी मेरे ही यमुना तट को अलंकृत कर रही हैं। मेरे गंगा जमुना, नर्मदा आदि रूपों को मोक्ष दायिनी का पद प्रदान कर मेरी स्थिति पाई जाती है और आरती उतारी जाती है।
मेरे जल में स्नान पुण्यदायक कृत्य माना गया है। अमावस्या, पूर्णमासी, कार्तिक पूर्णिमा, गंगा दशहरा तथा अन्य पदों पर मेरे दर्शन, स्नान तथा मेरे जल से सूर्य की अर्चना तो हिंदू धर्म में पवित्र धर्म कर्म की कोठी में सम्मिलित हैं।
मैं मानव के आमोद-प्रमोद के काम आई, उसके मनोरंजन का साधन भी बनी। एक ओर मानव मेरी धारा में तैराकी का आनंद लेने लगा तो दूसरी ओर जल क्रीडा से प्रसन्न रहने लगा। नौका विहार का आनंद लेने के लिए तो वह मचल उठा। चांदनी रात हो समवयस्क हमजोलियों की टोली हो, गीत-संगीत का मूड हो, तालियों की गड़गड़ाहट हो, तो उसमें नौका विहार के समय किसका ह्रदय नहीं उछलेगा?
भारतेंदु हरिश्चंद्र तो मेरे रूप को देखते हुए मुग्ध होकर कहते हैं-
नव उज्जवल जलधार हार हीरक सी सोहती।
बिच बिच छहरति बूंद मनु मुक्तामणि पोहति।।
मनो मुग्धकारी फूल के साथ कष्टदायक और चुभने वाले कांटे भी होते हैं। अति शीतल अग्नि प्रकट हो जाती है जिसके कारण बरसाती नाले पवित्र जल को गंदा करने लग जाते हैं तो मेरा जल गंदा हो जाता है। में अमर्यादित होकर जल प्लावन का दृश्य उपस्थित कर देती हूं। तब मेरे कारण काफी हानि होती है। कुछ काल पश्चात मेरी दुखी आत्मा अपना रोष प्रकट कर पुनः अपने मंगलकारी रूप में परिवर्तित हो जाती है।
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मानव मरने के बाद भी मेरी ही शरण में आता है। उसकी अस्थियां मुझे ही समर्पित की जाती है। आदि काल से अब तक कितने ही ऋषि, मुनियों, महापुरुषों, समाज सुधारको, राजनीतिज्ञ और अमर शहीदों के फूलों से मेरा जल उत्तरोत्तर पवित्र हुआ है। अतः मेरे पवित्र जल में डुबकी लगाने का अर्थ मात्र स्नान नहीं उन पवित्र आत्माओं के सानिध्य से अपने को कृतार्थ करना भी है।
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