मेरा प्रिय कवि सूरदास पर निबंध। Mere Priya Kavi Surdas : जिस प्रकार गुलाब को फूलों का राजा माना जाता है उसी प्रकार मैं साहित्यकारों में भक्त शिरोमणि सूरदास को कवियों का शिरोमुकुट मानता हूं । पांच सौ वर्ष बीत जाने पर उनकी कविता आज भी काव्य रसिकों को रस मग्न करती है और भक्तों को भाव विभोर करती है। यही भक्त शिरोमणि सूरदास मेरे प्रिय कवि हैं। भक्त सूरदास का जन्म संवत 1535 में दिल्ली के निकट सीही ग्राम में हुआ था। वे सारस्वत ब्राह्मण थे। उनके जन्मांध होने अथवा बाद में अंधे होने के बारे में विद्वानों में मतभेद है। अधिकांश विद्वान उनकी जन्मांध होने की पुष्टि करते हैं। यह कहना तो असंभव है कि इनकी शिक्षा-दीक्षा किस प्रकार हुई किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि साधुओं की संगति और ईश्वरप्रदत्त अपूर्व प्रतिभा के बल पर ही उन्होंने बहुत ज्ञान प्राप्त कर लिया।
हिंदी के सैकड़ों
साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने मां भारती के मंदिर में पद्य और गद्य विधाओं के रूप
में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं। जैसे सभी पुष्प अपनी सुगंध के कारण सबको
अच्छे लगते हैं ऐसे ही मैं हिंदी के सभी साहित्यकारों के सम्मुख श्रद्धा से सिर
झुकाता हूं। फिर भी जिस प्रकार गुलाब को फूलों का राजा माना जाता है उसी प्रकार
मैं साहित्यकारों में भक्त शिरोमणि सूरदास को कवियों का शिरोमुकुट मानता हूं । पांच
सौ वर्ष
बीत जाने पर उनकी कविता आज भी काव्य रसिकों को रस मग्न करती है और भक्तों को भाव
विभोर करती है। यही भक्त शिरोमणि सूरदास मेरे प्रिय कवि हैं।
भक्त सूरदास
का जन्म संवत 1535 में दिल्ली के निकट सीही ग्राम में हुआ था। वे
सारस्वत ब्राह्मण थे। उनके जन्मांध होने अथवा बाद में अंधे होने के बारे में
विद्वानों में मतभेद है। अधिकांश विद्वान उनकी जन्मांध होने की पुष्टि करते हैं।
यह कहना तो असंभव है कि इनकी शिक्षा-दीक्षा किस प्रकार हुई किंतु इतना अवश्य कहा
जा सकता है कि साधुओं की संगति और ईश्वरप्रदत्त अपूर्व प्रतिभा के बल पर ही
उन्होंने बहुत ज्ञान प्राप्त कर लिया। युवावस्था में वे आगरा और मथुरा के बीच गौघाट
पर साधु जीवन व्यतीत करते थे। संगीत के प्रति उनकी स्वाभाविक रुचि थी। मस्ती के
क्षणों में बैरागी सूर अपना तानपुरा छेड़कर गुनगुनाया करते थे। यहीं उनकी
पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक महाप्रभु स्वामी वल्लभाचार्य जी से भेंट हुई। सूरदास ने
एक पद उन्हें गाकर सुनाया। स्वामी जी को यह पद बहुत पसंद आया और उन्होंने सूरदास
जी को अपने मत में दीक्षित कर लिया तथा श्रीमद् भागवत की कथा को सुललित गेय पदों
में रुपांतरित करने का आदेश दिया। श्रीनाथ जी के मंदिर की कीर्तन सेवा का भार भी
इनको मिल गया।
सूरदास रचित तीन
ग्रंथ प्राप्त हैं- सूरसागर, सूरसारावली और साहित्य लहरी। सूरसागर सूरदास जी की
सर्वश्रेष्ठ और वृहद् रचना है। इसमें प्रसंगानुसार कृष्ण लीला संबंधी कई पद
संग्रहित हैं। सूरदास के कृष्ण तो सौंदर्य, प्रेम और लीला के अवतार हैं। इनके कुल पदों की
संख्या सवा लाख कही जाती है किंतु अभी तक प्राप्त पदों की संख्या दस
हजार से
अधिक नहीं है।
सूरदास उच्च कोटि के
भक्त थे। भक्त होने के साथ ही पर एक प्रसिद्ध कवि भी थे। उनकी भक्ति में कवि सुलभ
कल्पना का स्वाभाविक योग है।
सूरसागर में भगवान
कृष्ण की बाल लीलाओं एवं बाल प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण और विवेचन है। बाल
लीलाओं का जितना स्वाभाविक एवं सरस चित्रण सूरदास कर सकते हैं उतना हिंदी का कोई
अन्य कवि कभी नहीं कर सका। रामचंद्र शुक्ल जी का मानना है श्रृंगार और वात्सल्य के
क्षेत्र में जहां तक सूर की दृष्टि पहुंची वहां तक और किसी कवि की नहीं। इन दोनों
क्षेत्रों में इस महाकवि ने मानो किसी के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं । 1-2 चित्रों
में हम इसकी परख कर सकते हैं।
बालकों की स्पर्धा
सीन प्रकृति का रूप देखिए-
मैया
कबहि बढ़ेगी चोटी?
किती
बार मोहि दूध पियत भइ, यह
अजहू है छोटी।
तू
जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लाँबी मोटी।
काचो
दूध पियावति पचि-पचि, देत
न माखन रोटी।
सूर का श्रृंगार
वर्णन भी केवल कवि परंपरा का पालन मात्र ना होकर जीवन की सफलता और पूर्णता की
अभिव्यक्ति करता है। गोपियों का विरह वर्णन तो एक विशेष महत्व रखता है। उनके पद
वर्ण्य विषय का मनोहारी चित्र प्रस्तुत करते हैं और साथ ही सरस भाव की स्पष्ट
व्यंजना करते हैं।
राधा और कृष्ण अभी
अनजान हैं किंतु सौंदर्य का आकर्षण उनमें विकसित होने लगा है। प्रथम मिलन में
प्रेम उम्रड़ पड़ता है। कृष्ण खेलने निकले हैं- खेलन हरि निकसे ब्रज खोरी और वहीं
पर-
औचक
ही देखी तहँ राधा, नैन
बिसाल भाल दिए रोरी।
सूर
श्याम देखत ही रीझे नैन नैन मिली परी ठगौरी।।
आंखों का जादू हो
गया। परिचय कि आकुलता बढ़नी स्वाभाविक थी। कृष्ण ने आगे बढ़कर पूछ ही लिया-
बूझन
श्याम कौन तू गोरी?
कहां
रहति, काकी
तू बेटी, देखी
नाहीं कबहुँ ब्रज खोरी।
राधा भी कम ना थी।
उसने भी मुंह फिराकर उत्तर दिया-
काहे
को हम ब्रज तन आवति खेलति रहति आपनी पौरी।
सुनति
रहति स्त्रवन नन्द ढोटा, करत
रहत माखन दधि चोरी।।
कृष्ण को मौका मिल
गया हाजिर जवाब तो थे ही। झट बोल उठे-
तुम्हरो
कहा चौरि हम लैहैं, आवहुँ
खेलैं संग मिलि जोरी।
सूर के काव्य की एक
और विशेषता है वह है सूर के पदों की गेयता। इस विशिष्ट गुण के कारण ही हजारों नर
नारी सूर के पदों में वर्णित कृष्ण लीला गाकर मस्ती में झूम जाते हैं। दूसरे उक्ति
वैचित्र्य अर्थात एक भी भाव, विषय एवं चित्र को अनेक प्रकार से तथा अनूठे ढंग से
प्रस्तुत करने के गुण ने उनके काव्य में एक विशेष आकर्षण उत्पन्न कर दिया है। सूर
दृष्टिकृट पद भी हिंदी साहित्य में नई छटा दिखाते हैं।
सूरदास जी की भाषा
ब्रजभाषा है। परनिष्ठित ब्रज भाषा में सर्वप्रथम और सर्वोत्तम रचना करने वाले सूर
ही हैं। उनकी भाषा पूर्ववर्ती कवियों की भाषा की अपेक्षा अधिक सुव्यवस्थित और मंझी
हुई है। कोमल पदों के साथ उनकी भाषा स्वाभाविक, प्रभावपूर्ण सजीव और भावों के अनुसार बन पड़ी है।
माधुर्य और प्रकाश उनके काव्य के विशेष गुण हैं।
Admin
100+ Social Counters
WEEK TRENDING
Loading...
YEAR POPULAR
गम् धातु के रूप संस्कृत में – Gam Dhatu Roop In Sanskrit यहां पढ़ें गम् धातु रूप के पांचो लकार संस्कृत भाषा में। गम् धातु का अर्थ होता है जा...
अस् धातु के रूप संस्कृत में – As Dhatu Roop In Sanskrit यहां पढ़ें अस् धातु रूप के पांचो लकार संस्कृत भाषा में। अस् धातु का अर्थ होता...
पूस की रात कहानी का सारांश - Poos ki Raat Kahani ka Saransh पूस की रात कहानी का सारांश - 'पूस की रात' कहानी ग्रामीण जीवन से संबंधित ...
दो मित्रों के बीच परीक्षा को लेकर संवाद लेखन : In This article, We are providing दो मित्रों के बीच परीक्षा को लेकर संवाद , परीक्षा की तैयार...
Riddles in Malayalam Language : In this article, you will get കടങ്കഥകൾ മലയാളം . kadamkathakal malayalam with answer are provided below. T...
COMMENTS