जो बदलाव आप दूसरों में देखना चाहते हैं पहले स्वयं में लाइए : यवहार किसी व्यक्ति का विशिष्ट गुण होता है जिसे वह अपने आस-पास के लोगों एवं वातावरण द्वारा सीखता है जो मनुष्य जिस प्रकार के समाज में परिवार में जिन लोगों के बीच रहता है उनके द्वारा किये गये आचरण के स्वयं मे लाता है और स्वयं भी सी समूह परिवार अथवा समाज का हिस्सा बनकर उसी प्रकार व्यवहार करता है एवं उसी से वह उस समूह विशेष का सदस्य समझा जाता है। व्यवहार मात्र इस बात से जुड़ा है कि आप अन्य से कैसा व्यवहार अपेक्षित करते हैं। यदि एक राजा अपनी प्रजा से सम्मान प्राप्त करने का व्यवहार अपेक्षित करता है तो स्वयं उसे अपनी प्रजा के प्रति अपनी सम्मानजनक भावना को प्रदिर्शित करना होगा जिसेवह प्रजा के हित में किये गये बहुत से कार्यों द्वारा प्रदर्शित कर सकताहै। इसी प्रकार यदि एक शिक्षक यह अपेक्षा करता है कि उसके विद्यार्थी उसे सम्मान दें तो यह शिक्षक की जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी भूमिकानुसार अपने गुणों का प्रदर्शन करे और विद्यार्थी को सही राह पर चलना एवं जीवन जीने के गुण सिखाये अन्यथा विद्यार्थी द्वारा शिक्षक को दिया जाने वाला सम्मान मात्र कथनीय ही होगा।
“प्रकृति” सदैव
प्रगतिशील एवं परिवर्तनीय रही है, आज से कई वर्षों पूर्व यह जैसी थी वैसा आज नहीं
है, इसमें निवास करने वाले प्रत्येक जीव-जन्तु,
पशु-पक्षी, पेड़-पौधे एवं जलवायु निरंतर परिवर्तित होते
रहे हैं और आज भी परिवर्तनीय हैं। दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण इसका
क्षरण और विकास होता जा रहा है, समय के अनुसार जीव की जीवन प्रत्याशा बदल रही
है, उसकी विचारधारा परिवर्तित हो रही है। यदि प्रारंभ से अब तक
देखा जाए तो यह पाया जाएगा कि हर काल एवं हर युग में जीव ने अलग भूमिका निभायी एवं
विभिन्न जिम्मेदारियों का निर्वहन किया और आज भी कर रहा है। इस क्रम में “व्यवहार”
निर्वहन एक अति महत्वपूर्ण पक्रिया रही है। आज भी है,
“व्यवहार” जीवन में किसी व्यक्ति के विकास और पतन का कारण हो सकता है,
क्योंकि व्यवहार के द्वारा ही व्यक्ति एक-दूसरे से प्रेम और शत्रुता के संबंध
बनाता है, और मित्रतापूर्ण संबंधों के द्वारा अपना जीवन
सरल तथा सरसमय बनाता है, ये संबंध सदैव प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से
एक-दूसरे की आत्म संतुष्टि पर निर्भर रहते हैं, यह आत्म संतुष्टि
मात्र व्यवहार पर निर्भर करती है, क्योंकि संबंधों में व्यवहार की महत्वपूर्ण
भूमिका है व्यवहार से ही व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का समूह आपस में सहयोग और
सामंजस्य बनाकर रहते हैं। मात्र व्यवहार के द्वारा आपस में सहयोग,
मित्रता, परोपकार, सदाचार तथा प्रेम की भावना का विकास होता है।
यह व्यवहार ही मानव मात्र की पहचान समाज में, राज्य में अथवा राष्ट्र
में उसे अन्य लोगों में विशिष्ट बनाते हैं और एक-दूसरे से पृथक करते हैं,
किन्तु निरन्तर सीखने से चलती रहती है।
व्यवहार किसी व्यक्ति का विशिष्ट गुण
होता है जिसे वह अपने आस-पास के लोगों एवं वातावरण द्वारा सीखता है जो मनुष्य जिस
प्रकार के समाज में परिवार में जिन लोगों के बीच रहता है उनके द्वारा किये गये
आचरण के स्वयं मे लाता है और स्वयं भी सी समूह परिवार अथवा समाज का हिस्सा बनकर
उसी प्रकार व्यवहार करता है एवं उसी से वह उस समूह विशेष का सदस्य समझा जाता है।
व्यवहार मात्र इस बात से जुड़ा है कि आप अन्य से कैसा व्यवहार अपेक्षित करते
हैं। यदि एक राजा अपनी प्रजा से सम्मान प्राप्त करने का व्यवहार अपेक्षित करता
है तो स्वयं उसे अपनी प्रजा के प्रति अपनी सम्मानजनक भावना को प्रदिर्शित करना
होगा जिसेवह प्रजा के हित में किये गये बहुत से कार्यों द्वारा प्रदर्शित कर
सकताहै। इसी प्रकार यदि एक शिक्षक यह अपेक्षा करता है कि उसके विद्यार्थी उसे सम्मान
दें तो यह शिक्षक की जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी भूमिकानुसार अपने गुणों का
प्रदर्शन करे और विद्यार्थी को सही राह पर चलना एवं जीवन जीने के गुण सिखाये अन्यथा
विद्यार्थी द्वारा शिक्षक को दिया जाने वाला सम्मान मात्र कथनीय ही होगा। वास्तविकता
में वह हास्यप्रद स्थितिका विभिन्न रूप होगा। यह सर्वविदित है कि यदि “आप कांटे
अथवा बबूल के बीच बोयगें तो आपको फल नहीं प्राप्त हो सकता” इसी प्रकार महान सन्त
कबीर ने भी आचरण व्यवहार के लिए यह कहा है कि “ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोये,
औरन को सीतल करे आपहु सीतल होये” अर्थात यदि आप दूसरों के प्रति अच्छा आचार व्यवहार
करते हैं तो आप दूसरों को तो सुख देते ही हैं साथ आप स्वयं भी संतोषप्रद भाव को
अनुभव करते हैं। यह अत्यंत आवश्यक है कि यदि आप अपेक्षा करते हैं कि प्रत्येक
परिचित अथवा अपरिचित अपको सम्मान दे तो यह अनायास ही आपकी भूमिका एवं आपके द्वारा
किये गये कार्यों को प्राथमिक तौर पर अवलोकन करने का निर्देश देता है कि आपके
द्वारा किये गये कृत्य से दूसरों को क्या लाभ हुआ या उनके हित में ये किस प्रकार
रही हैं।ययह एक लेने-देने की प्रक्रिया भी कही जा सकती है,
किन्तु यह भी परम सत्य है कि आप अपेक्षित आचरण और व्यवहार के लिए सुधार करने
वाले प्रथम व्यक्ति होते हैं, इस पर संतों ने भी कहा कि बुरा जो देखने में
चला बुरा न मिल्या कोई, जो मन देखा आपना तो मुझसे बुरा न कोए” अर्थात
लोगों में गलतियां देखना, बुराईयां देखना एवं उन्हें सदाचार का पाठ
पढ़ाना तभी सुशोभित होता है जब वे सभी गुण आपमें विद्यमान हो। कहा जाता है कि
महात्मा गांधी जी को उनके आश्रम एक महिला ने आकर बताया कि उसका बेटा गुड़ बहुत
खाता है जो कि हानिकारक है, उसे सुधारने के लिए गांधीजी ने स्वयं पहले
गुड़ खाना किस प्रकार हानिकारक है अर्थात जो परिवर्तन वे उस बालक में अपेक्षित कर
रहे थे उसका सर्वप्रथम आचरण उन्होंने स्वयं में किया जिससे कि उनकी बात अधिक
प्रभावी हो और बालक उनका अनुसरण कर सके।
आचरण में सदाचार का व्यवहार
करने का गुण किसी व्यक्ति में स्वत: ही विद्यमान नहीं होता बल्कियह बाल्यावस्था
से ही उसमें अभिप्रेरित किये जाने का परिणाम होता है। एक शिशु मात्र व्यवहार करने
पर अपने माता-पिता एवं अन्य व्यक्तियों अथवा अपने संबंधियों की ओर लालायिता
होता है यदि उसमें बचपन से ही अराजकता और हिेंसात्मकता के गुणों का विकास किया जाए
तो वह निश्चित ही उन्हीं गुणों का अनुसरण अपने भावी जीवन में भी करेगा,
व्यवहारगत गुणों का विकास कोई बालक प्राथमिक रूप से अपने परिवार,
समूह, समाज तदोपरान्त अपने विद्यालय एव सहपाठियों के संबंध अथवा
संगत से सिखता है। इस प्रकार यह प्रामाणिक रूप से भी कहा जाता है कि अच्छे मित्र,
अच्छी संगति, एक भावी सज्जन पुरुष की प्रक्रिया बाल्यावस्था
से ही प्रारंभ हो जाती है। सदाचार का विकास एक दिन के प्रयास का फल नहीं होता
अपितु एक सतत् प्रक्रिया की नितान्त आवश्यकता होती है।
समाज को सद्पुरुष तभी
प्राप्त हो सकते हैं जब यह प्रक्रिया उस समाज के सभी मनुष्यों अथवा सदस्यों
द्वारा व्यवहार में लायी जा रही हो। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यदि आप सभी
से यह अपेक्षा करते हैं कि आपसे सभी सदव्यवहार करें तो प्रारंभ स्वयं से ही करना
होगा अन्यथा ये अपेक्षा यदि आप किसी पशु से भी करें कि आपके दुतकारने पर वह आपको सहयोग
अथवा सुरक्षा देगा तो यह मात्र एक भ्रांति ही हो सकती है इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।
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