धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पर निबंध Secularism Essay for UPSC : धर्मनिरपेक्षवाद की सकारात्मक व्याख्याएं भी पश्चिमी एवं भारतीय परंपरा से अलग-अलग हैं। पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता सकारात्मक रूप में इहलौकिकवाद (This worldliness) है जबकि भारत में यह सर्वधर्मसमभाव है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता की सकारात्मक अवधारणा पश्चिम में मूलत: धर्मविहीन एवं धर्मविरोधी है जबकि धर्मनिरपेक्षवाद की भारतीय अवधारणा अपने सकारात्मक रूप में न तो धर्मविराधी और न ही धर्मविहीन है और नेहरू के शब्दों में न तो धर्म से उदासीन है। क्योंकि भारतीय धर्मनिरपेक्षवाद धार्मिक सहिष्णुता और धार्मिक बहुलवाद पर आधारित है।
धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पर निबंध Secularism Essay for UPSC
राजनीति दर्शन में धर्म और राजनीति के संबंध को
व्याख्यायित करने वाली कई विचारधाराएं रही हैं। एक धारा धर्म को राजनीति से अलग
करने पर बल देती है, दूसरी धारा राजनीति को धर्म से
मिलने पर बल देती है। (Secularism) कहते हैं, दूसरी धारा को धार्मिक कट्टरवाद (Religious Fundamentalism) कहते हैं। इसके अलावा तीसरी धारा भी है, जो व्यक्ति
के संदर्भ में धर्म और राजनीति की अवियाज्यता (मिलाने) को स्वीकार करती है।
किंतु राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में या राज्य के परिप्रेक्ष्य में धर्म और
राजनीति को अलग करने पर बल देती है। इस धारा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति
गांधीवादी चितंन में हुई।
कुल मिलाकर धर्मनिरपेक्षवाद को दो धाराओं में
वर्गीकृत किया जा सकता है: पश्चिमी एवं भारतीय। इन दोनों धाराओं की नकारात्मक
एवं सकारात्मक अवधारणाएं हैं। जहां पश्चिमी परंपरा में धर्मनिरपेक्षवाद का
नकारात्मक अर्थ है, धर्म का राजनीति से अलगाव है।
वहीं भारतीय परंपरा में धर्मनिरपेक्षवाद का नकरात्मक अर्थ संप्रदाय से राजनीति के
अलगाव के रूप में उभरा है। प्राय: भारत में धर्मनिरपेक्षवाद (Secularism) को धार्मिक कट्टरवाद और संप्रदायवाद (Communalism)
के विरोध रूप में परिभाषित किया जाता है।
धर्मनिरपेक्षवाद की सकारात्मक व्याख्याएं भी
पश्चिमी एवं भारतीय परंपरा से अलग-अलग हैं। पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता सकारात्मक
रूप में इहलौकिकवाद (This worldliness) है जबकि भारत
में यह सर्वधर्मसमभाव है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता की सकारात्मक अवधारणा पश्चिम
में मूलत: धर्मविहीन एवं धर्मविरोधी है जबकि धर्मनिरपेक्षवाद की भारतीय अवधारणा
अपने सकारात्मक रूप में न तो धर्मविराधी और न ही धर्मविहीन है और नेहरू के शब्दों
में न तो धर्म से उदासीन है। क्योंकि भारतीय धर्मनिरपेक्षवाद धार्मिक सहिष्णुता
और धार्मिक बहुलवाद पर आधारित है।
पश्चिम धर्मनिरपेक्षवाद एवं भारतीय
धर्मनिरपेक्षवाद में उत्पित्ति विषयक परिस्थितियों में भी स्पष्ट अंतर रहा है।
धर्मनिरपेक्षावाद की पश्चिमी अवधारणा चर्च एवं राज्य के अंत:संघर्ष से विकसित
हुई है। इसलिए धर्म और राज्य तथा धर्म और राजनीति से अलगाव पश्चिम में केंद्रीय
तत्व रहे हैं। जबकि भारतीय धर्मनिरपेक्षता की मूल चिंता यह है कि कैसे बहुलवादी
समाज के विभिन्न संप्रदायों के व्यक्ति से राज्य का भेदरहित संबंध बनाया जाए?
पश्चिमी परंपरा में धर्मनिरपेक्षावाद : उदय और
विकास
पश्चिम में धर्मनिरपेक्षवाद की अवधारणा का उदय
पुनर्जागरण तथा उदारवाद के वैचारिक सूत्रों से हुआ। लॉस्की मानते थे कि
पुनर्जागरण की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मैकियावेली के चितंन में हुई और
मैकियावेली के विचारों की प्रतिनिधि रचना प्रिंस (Prince)
मानी जाती है। मैकियावेली ने प्रिंस में उस राज्य की नई धारणा प्रस्तुत की जो
यूरोप में उदित हो रहा था। मैकेयावेली ने राज्य के स्वतंत्र और सत्ता संपन्न
माना। मैकियावेली ने सबसे पहले यह प्रतिपादित किया कि धार्मिक मामले राजनीतिक
मामलों से अलग रखे जाने चाहिए। इस तरह मैकियावेली ने आधुनिक काल के मुख्य प्रश्न, विचार और जीवन के धर्मनिरपेक्षता की नींव डाली। लेकिन इसका महत्व और
प्रभाव अगले दो सौ वर्षों तक नहीं समझा गया।
एक विचाराधारा के रूप में धर्मनिरपेक्षवाद का
बहुत गहरा संबंध उदारवाद से रहा है। जिस तरह उदारवाद आर्थिक क्षेत्र में स्वंतंत्रता
और लोकतंत्र, सामाजिक क्षेत्र में व्यक्तिवाद और
मानववाद पर आधारित और परस्पर घोषित था, उसी तरह यह धार्मिक
क्षेत्र में धार्मिक सहिष्णुता एवं धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन करके
धर्मनिरपेक्षवाद का भी पोषक था। यूरोप में धर्म सुधार आंदोलनों ने धार्मिक
संघर्षेां और अधिक बढ़ा दिया था। इससे एक तो आधुनिक राज्य राष्ट्रों में धार्मिक
संघर्षों को समाप्त करने हेतु धार्मिक सहिष्णुता की जरूरत उदारवादी चिंतकों ने
बहुत पहले ही महसूस कर ली थी। दूसरे, उदारवादी चिंतक यह भी
समझ रहे थे कि आधुनिक राष्ट्र राज्यों की सामाजिक एवं राजनीतिक संस्थाएं धर्म
जैसे प्राक् पूँजीवादी सांस्कृतिक उपादानों एवं पिछड़ी मध्यकालीन संस्थाओं से
नियमित नहीं की जा सकती। तीसरे, आधुनिकीकरण की प्रवृत्तियों
एवं संकेतकों को स्वीकार करने हेतु भी धर्म को हाशिये पर डालना जरूरी था।
इन तीनों कारकों का एक समन्वित परिणाम उभ्रा।
उदारवादी चिंतकों ने सामाजिक समझौते के सिद्धांत के द्वारा राज्य जेसी संस्थाओं
के निर्माता के रूप में ईश्वर को अपदस्थ कर दिया और राज्य संस्था की उत्पत्ति
में मनुष्य को मान्यता प्रदान किया। इस तरह आधुनिक राष्ट्र-राज्य की आवश्यकताओं
के गर्भ से धर्मनिरपेक्षतावाद की उत्पत्ति हुई, और
इसके वैचारिक सूत्र प्रारंभिक उदारवादी चिंतकों में ही मिलने लगते हैं। जीन बोंदा, जॉन लॉक जैसे उदारवादी विचारकों ने धर्म सहिष्णु राज्य के समर्थन का स्पष्ट
तक रखा, जबकि आदर्शवादी विचाकर हेगेल ने भी इसी तरह की बात
की। बेंथम, जेम्स मिल एवं जे.एस. मिल ने समूचे राज्य की
परिकल्पना में धर्म को हाशिये पर डालकर धर्मनिरपेक्षवाद का परोक्ष समर्थन किया।
बोंदा ने धर्म सहिष्णु राज्य के समर्थन में
तर्क दिया “ जब दो या दो से अधिक धर्म पहले से मौजूद हों
तो राज्य द्वारा धार्मिक एकरूपता लागू करने का प्रयास न केवल निरर्थक है बल्कि
निरर्थक से भी बुरा साबित होता है। ऐसा करने का अर्थ होगा गृहयुद्ध को जन्म देना
और राज्य को कमजोर करना। ”
इसी तरह लॉक ने भी एक धर्म सहिष्णु राज्य का
समर्थन किया है। लॉक ने धार्मिक युद्धों की विभीषिका से चेतावनी देते हुए कहा कि
अंतत: इससे कानून व्यवस्था असंभव हो जाती है और राज्य कमजोर हो जाता है। लॉक ने
धार्मिक सहनशीलता तथा धार्मिक स्वतंत्रता को अपने चिंतन का मौलिक आधार बनाया।
उनका विचार था कि धार्मिक परिकल्पनाओं तथा ईश्वर और व्यक्ति के संबंधों में
अनिश्चितता और अस्पष्टता होती है। इसके कारण प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक
कार्यों को अपने बुद्धि के अनुसार व्याख्या करने और उसके अनुसार स्वतंत्रता
होनी चाहिए। इसके अलावा चूंकि राज्य के न्यायाधीश अपनी शक्ति ईश्वर से न ग्रहण
करके जनता से ग्रहण करतेहैं इसलिए न्यायाधीशों का काम राज्य के उद्देश्य तथा
उपलब्धियों की व्याख्या करने से है। राज्य के न्यायाधीश किसी धार्मिक संप्रदाय
या विचाराधारा को नियमित नहीं कर सकते। राज्य धार्मिक मामलों में तभी हस्तक्षेप
कर सकता है जब ये सामाजिक स्तर पर कानून व्यवस्था और सुरक्षा के रख-रखाव में
बाधक बनते हैं।
आदर्शवादी विचारक हेगेल भी धर्मतंत्रवादी राज्य
के बजाय धर्म सहिष्णु राज्य का समर्थन करते हैं। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘फिलॉसफी ऑफ राइट (Philosophy of right)‘ के अंतर्गत
यह तर्क दिया है कि “राज्य में किसी मनुष्य के नाते ही एक
व्यक्ति माना जाता है इसलिए नहीं की वह यहूदी, कैथोलिक, प्रोटेस्टैन्ट, जर्मन या इतालवी हैं” इस तरह बेंथम के समानता का नियम भी धर्मनिरपेक्ष उदारवादी राज्य की
अवधारणा गढ़ने में उत्तरवादी है। इस नियम के अंतर्गत बेंथम ने कहा था कि प्रत्येक
व्यक्ति को एक माना जाय उससे अधिक नहीं।
जे.एस. मिल ने आत्मपरक और अन्यपरक कार्यों का
विभाजन किया। आगे चलकर यह विभाजन निजी/सार्वजनक विभाजन का आधार बना और
निजी/सार्वजनिक विभाजन से ही धर्म और राजनीति के विभाजन का मंच तैयार हुआ।
उदारवादी परिप्रेक्ष्य से निजी/सार्वजनिक विभाजन का गहरा फलितार्थ था। यह विभाजन
वैयाक्तिक स्वतंत्रता की प्रत्याभूति के रूप में देखा गया। क्योंकि इससे सरकार
के व्यक्ति के निजी या वैयक्तिक मामले में हस्तक्षेप पर क्षमता पर अंकुश लगता
है। धर्म के संदर्भ में इसका महत्वपूर्ण परिणाम हुआ। क्योंकि धर्म को भी व्यक्ति
के निजी क्षेत्र से जोड़ा गया। निजी क्षेत्र के अंतर्गत होने के नाते मनुष्य के
धार्मिक अनुभवों एवं क्रियाकलापों में दूसरे व्यक्तियों और राज्य के हस्तक्षेप
को व्यक्ति को स्वतंत्रता पर अंकुश के रूप में देखा गया। इस तरह धार्मिक स्वतंत्रता
का सकारात्मक आधार तैयार हुआ।
उपरोक्त विचारों की पृष्ठभूमि में 1850 के दशक
में धर्मनिरपेक्षतावाद एक राजनीतिक दर्शन का स्वरूप ग्रहण करने लगा। जार्ज जैकब
होलियोक को धर्मनिरपेक्षतावाद का व्यवस्थित प्रतिपादक माना जाता है। होलियोक ने
धर्मनिरपेक्षतावाद को निरीश्वरवाद ईश्वर और नैतिकता दोनों का निषेध करता है जबकि
धर्मनिरपेक्षवाद ईश्वर का निषेद करता है नैतिकता का नहीं। होलियोक के सभ्य समाज
के धार्मिक आधार पर ही प्रश्न-चिन्ह लगाया। उनके अनुसार रूढि़वादी धर्म गरीब व्यक्तियों
को अपनी शुरूआत में ही एक दीन-हीन पापी बताते हैं, और ये
धर्म अंत में उसे एक असहाय गुलाम बनाकर रख देते हैं। एक गरीब व्यक्ति स्वयं को
एक हथियारबंद दुनिया में पाता है जहाँ शक्ति ही ईश्वर है और गरीबी बेड़ी है।
इसलिए व्यक्तियों को धर्म का त्याग करना चाहिए।
होलियोक की भाँति ब्रैडलाफ, एक अन्य अंग्रेज निरीश्वरवादी विचारक हैं। ब्रैडलाफ ने 1860 के बाद के
धर्मनिरपेक्ष आंदोलन को बहुत अधिक प्रभावित किया। होलियोक और ब्रैडलाफ दोनों के
विचारों को मिला देने पर धर्मनिरपेक्षवाद की चार मान्यताएँ स्पष्ट होती हैं:
- धर्म की उपेक्षा अथवा विरोध
- इहलौकिकता में विश्वास एवं पारलौकिकता का निषेध
- विज्ञान का महत्व और उपादेयता
- नैतिकता की धर्म से स्वतंत्रता
आगे चलकर जॉन ड्यूबी और कॉर्लिस लेमोंट जैसे
मानववादियों के दर्शन में भी धर्मनिरपेक्षतावाद की उपरोक्त मान्यताओं का स्पष्ट
समर्थन किया गया।
धर्मनिरपेक्षावाद : पश्चिमी परिप्रेक्ष्य
धर्मनिरपेक्षवाद की पश्चिमी अवधारणा के दो अर्थ
हैं: नाकारात्मक और सकारात्मक। नकारात्मक रूप में धर्मनिरपेक्षवाद एक ऐसी
विचारधारा है जो राजनीति, प्रशासन एवं सार्वजनिक सामाजिक
जीवन तीनों को पूरी तरह धर्म से पृथक करने पर बल देती है। इसका अर्थ यह है कि
राजनीतिक, प्रशासन एवं सार्वजनिक सामाजिक जीवन के मद्दे एवं
समस्याओं पर धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं अपितु लौकिक या धर्म निरपेक्ष दृष्टि से
विचार करना चाहिए। इस अवधारणा को चरितार्थ होने के लिए धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक संस्कृति
का होना बहुत आवश्यक है।
धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक संस्कृति ऐसे संस्कृति
या समाज को कहते हैं जिसमें सामाजिक आर्थिक संकटों को सुलझाने के लिए राजनीतिक
सत्ता गैर-धार्मिक समाधान खेजती है।
सकारात्मक रूप से धर्मनिरपेक्षवाद इहलौककवाद के
रूप में परिभाषित किया जाता है। इहलौकिकवाद एक ऐसी विचाराधारा को कहा जाता है।
चूँकि धर्म किसी अलौकिक तत्व या सत्ता पर आधारित रहता है इसलिए धर्ममें परलोकोन्मुखी
दृष्टिकोण अनिवार्य तत्व है। जबकि धर्मनिरपेक्षवाद परलोकोन्मुखी दृष्टिकोण का
खंडन कर लौकिक दृष्टिकोण पर आधारित एक राजनीतिक दर्शन है। पारलौकिकता का विरोध
करने के कारण धर्मनिरपेक्षवाद, मानववादी जीवन दर्शन, नैतिकता एवं जीवन का अर्थिक दृष्टिकोण भी है। अपने नकारात्मक संकल्पना
में यह जहाँ समाज राजनीति और प्रशासन के धर्मरहित होने के दृष्टिकोण से आवेशित है
वहीं सकारात्मक संकल्पना में यह व्यक्ति के दृष्टिकोण को धार्मिक पारलौकिताओं
से मुक्त करने की चिंता से आवेशित है। दूसरे शब्दों में धर्मनिरपेक्षवाद की
नकारात्मक संकल्पना और राजनीतिक दर्शन के रूप में उभरती है जबकि सकारात्मक
संकल्पना व्यक्ति के जीवन दर्शन के रूप में उभरती है।
यह एक ऐस जीवन दर्शन की प्रस्तावना करती है
जिसमें मनुष्य को अपने जीवन की प्रत्येक समस्या पर तर्कसंगत रूप से विचार करना
चाहिए। केवल बौद्धिक उपायों तथा वैज्ञानिक विधियों द्वारा समस्याओं का समुचित
समाधान खोजा जाना चाहिए। चूँकि धर्मनिरपेक्षवाद की सकारात्मक संकल्पना बौद्धिक
तथा वैज्ञानिक विधियों द्वारा मानव कल्याण के लिए मार्ग प्रशस्त करती है इसलिए
धर्मनिरपेक्षवाद मानववाद भी है। ए. आर. ब्लैकडशीड एवं वाई. मसीह जैसे विद्वानों
का मानना है कि धर्मनिरपेक्षवाद मानववाद का ही अंग है। धर्मनिरपेक्षवाद मानववादी
जीवन दर्शन होने के साथ-साथ नैतिकता भी है। धर्मनिरपेक्षवाद में नैतिकता को धर्म
से पूर्णत: पृथक एवं स्वतंत्र माना जाता है। इस विचारधारा में नैतिकता का स्त्रोत
मानव समाज को माना जाता है, ईश्वर को नहीं। साथ ही, नैतिकता का उद्देश्य मनुष्य का वैयक्तिक तथा सामाजिक कल्याण माना
जाता है।
यद्यपि धर्मनिपेक्षवाद मानववाद का अंग है किंतु
दोनों में भिन्नता भी है। मानव कल्याण की व्यापक दृष्टि से दोनों में समानता है
किंतु मानववाद में पारलौकिकता का प्रखर विरोध किया जाता है। किंतु धर्मनिरपेक्षवाद
में पारलौकिकता एवं धर्मों के प्रति विरोध कम हैं जबकि उपेक्षा तथा तटस्थता की
नीति ज्यादा अपनायी जाती है। पश्चिमी धर्मनिरपेक्षवाद की भी अपनी समस्याएं रही
हैं। इसमें धर्मनिरपेक्ष और बौद्धिक आधारों को राजनीतिक क्षेत्र में विस्तृत करने
की बात की जाती है। इससे परंपरागत सामाजिक मानक मूल्य और प्रवृत्तियां विस्थापित
होती हैं। फलत: पहचान का एक संकट उत्पन्न होता है। पहचान के इस संकट से बचने के
लिए धर्म को प्राथमिक सामूहिक पहचान प्रदाता के रूप में स्वीकार किए जाने की
प्रवृत्ति बढ़ती है। इसी का एक रूप है धार्मिक कट्टरवाद।
धर्मनिरपेक्षता : भारतीय परिप्रेक्ष्य
भारतीय परंपरा में धर्मनिरपेक्षवाद को व्याख्यायित
और परिभाषित करने वाली तीन स्पष्ट अन्तर्धाराएं रही हैं।
- प्रारंभिक उदारवादी धारा
- आमूल परिवर्तनवादी धारा
- गांधीवादी धारा
प्रारंभिक उदारवादी एवं आमूल परिवर्तनवादी धारा
धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी अवधारणा से गहरे स्तर पर प्रभावित थी। दोनों धाराओं
में धर्मनिरपेक्षवाद की इस पश्चिमी संकल्पना को स्वीकार किया गया है कि राजनीति
और धर्म का पूरी तरह अलगाव होना चाहिए। किंतु प्रारंभिक उदारवाद एवं आमूल
परिवर्तनवाद में अंतर भी है। आमूल परिवर्तनवादी विचारकों के लिए यह भारत के
सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक उत्थान का प्रश्न था। इसलिए दोनों धाराओं में
धर्मनिरेपेक्षवाद के पक्ष में दी गयी दलीलों में भी अंतर था। प्रारंभिक उदारवादी
इस बात पर ज्यादा दल देते थे कि राजनीति या सार्वजनिक जीवन में धर्म के आधार पर
विचार नहीं किया जाना चाहिए। जबकि आमूल परिवर्तनवादी यह तर्क देते हैं कि धर्म को
केवल व्यक्तियों के निजी जीवन तक ही सीमित रखना चाहिए। साथ ही व्यक्तियों में
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के निर्माण का प्रयास भी करना चाहिए।
प्रारंभिक उदारवादी धर्मनिरपेक्षता के सूत्र
आरंभिक राष्ट्रवादियों के विचारों में खोजे गये हैं। यथा-दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, महादेव गोविन्द रानाडे और मोहन
राय। जबकि आमूल परिवर्तनवादी धर्मनिरपेक्षतावाद के अग्रणी प्रवक्ता, जे. एल. नेहरू और एम. एन. राय थे।
गांधीवादी धर्मनिरपेक्षवाद की अवधारणा
आमूलपरिवर्तनवादी एवं प्रारंभिक उदारवादी दोनों से भिन्न है। इसलिए यह
धर्मनिरपेक्षवाद की पश्चिमी अवधारणा से भिन्न है। वस्तुत: गांधीवादी चिंतन में
धार्मिक संघर्ष को समाप्त करने एवे धार्मिक सौहार्द्र हेतु सर्वधर्म-समभाव की
संकल्पना की गई है। इसी संकल्पना को कालांतर में धर्मनिरपेक्षवाद कहा गया। महात्मा
गांधी की सर्वधर्मसमभाव की अवधारणा ही धार्मिक सहिष्णुता की अवधारणा है।
गांधीवादी चिंतन में धर्म एवं राजनीति के अलगाव को अनावश्यक ही नहीं अवांछनीय भी
माना गया। जबकि आमूल परिवर्तनवादी एवं प्रारंभिक उदारवादी धर्मनिरपेक्षवाद में
धर्म एवं राजनीति के अलगाव पर बहुत बल दिया जाता है। गांधीवादी धर्मनिरपेक्षवाद की
अवधारणा धार्मिक बहुलवाद पर आधारित है। आमूलपरिर्तनवादी धर्मनिरपेक्षववाद धार्मिक
तटस्थवाद पर आधारित है। धार्मिक बहुलवाद राजनीति में धार्मिक मूल्यों के प्रयोग
से परहेज नहीं रखता है जबकि धार्मिक तटस्थवाद राजनीति तथा व्यवस्था में धार्मिक
प्रचार एवं धार्मिक मूल्यों के प्रयोग से परहेज रखता है।
उपरोक्त तीनों उपधाराओं के प्रभाव, प्रतिप्रभाव एवं भारतीय समाज की बहुलवादी विशेषता के कारण भारत में
धर्मनिरपेक्षवाद का स्वरूप पश्चिमी धर्मनरिपेक्षवाद से बिल्कुल भिन्न रूप में
उभरा है। पश्चिम में धर्मनिरपेक्षवाद धर्म से राजनीति के अलगाव एवं इहलौकिकवाद के
रूप में परिभाषित किया गया किंतु भारत में धर्मनिरपेक्षवाद सांप्रदायिकता से
राजनीति के अलगाव और सर्वधर्म-समभाव के रूप में परिभाषित किया गया।
भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षवाद का जो स्वरूप
उभरा है, उसमें धर्म से राजनीति के अलगाव का प्रश्न ही नहीं है। अपितु भारत में
साम्प्रदायिकता से राजनीति के अलगाव को धर्मनिरपेक्षवाद का केंद्रीय प्रश्न
बताया गया है। दूसरे शब्दों में, भारत में धर्म में राजनीति
का अलगाव नहीं अपितु धर्म के राजनीतिक इस्तमेलसे राजनीति का अलगाव
धर्मनिरपेक्षवाद का अहम प्रश्न है। संकीर्ण अर्थों में धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल
ही सम्प्रदायवाद कहा जाता है। इस नाकारात्मक व्याख्या से भिन्न भारत में
धर्मनिरपेक्षवाद की सर्वधर्म-समभाव के रूप में सकारात्मक व्याख्या की गयी है।
धर्मनिरपेक्षवाद की सर्वधर्मसमभाव के रूप में व्याख्या
राधाकृष्णन और आबिद हुसैन आदि विचारकों ने प्रस्तुत किया। यद्यपि सर्वधर्म समभाव
की अवधारणा मूलरूप से विवेकानन्द के यहां मिलती तथापि इसका विस्तृत विवेचन महात्मा
गांधी ने किया। नेहरू कालांतर में गांधीवादी सर्वधर्मसमभाव की व्याख्या को स्वीकार
करने लगे थे। नेहरू के शब्दा है ‘हम अपने राज्य
को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, धर्मनिरपेक्ष शब्द शायद पूरी तरह
उचित नहीं है, लेकिन बेहतर शब्द के अभाव में हम इसी का
प्रयोग कर रहे हैं। इसका अर्थ समाज में धर्म के प्रति उदासीनता पैदा करना नहीं है।
इसका अर्थ है धर्म और आस्था की आजादी को बढावा देना।'
राधाकृष्णन ने पंथनिरपेक्षवाद को
सर्वधर्म-समभाव के रूप में परिभाषित करते हैं एवं सर्वधर्मसमभाव को भारत की
प्राचीन धार्मिक परंपरा के अनुकूल मानते हैं। आबिद हुसैन ने अपनी पुस्तक भारतकी
राष्ट्रीय संस्कृति में लिखा है “धर्मनिरपेक्षवाद
का अर्थ अधार्मिकता या अनीश्वरवाद या भैतिक सुखों पर बल देना नहीं है, यह आध्यात्मिक मूल्यों की सार्वभौमता पर बल देता है। जिसे विभिन्न
उपायों के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।” इसके साथ ही भारतमें
पंथनिरपेक्षवाद को सर्वधर्मसमभाव के रूप में औपचारिक स्तर (संविधान संशोधन के
माध्यम से) पर 1978 में परिभाषित करने का विफल प्रयास किया गया।
इस तरह भारत में सर्वधर्मसमभाव धर्मनिरपेक्षवाद
के सकारात्मक अर्थ के रूप में उभरा। सर्वधर्मसमभाव की अवधारणा धार्मिक सहिष्णुता
पर आधारित है। धार्मिक सहिष्णुता का अर्थ विभिन्न धर्मों के प्रति आदर एवं
प्रेमभाव का प्रदर्शन करना है। मनुष्य के सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि वह अपने
धर्म को श्रेष्ठ तथा दूसरे धर्म को तुच्छ समझता है जिसके फलस्वरूप धर्म को लेकर
संघर्ष होता है। धार्मिक सहिष्णुता में इस संघर्ष को रोकने हेतु विभिन्न धमों
प्रति सहनशील का दृष्टिकोण निहित रहता है। महत्मा गांधी के चिंतन में
सर्वधर्मसमभाव की अवधारणा इसी धार्मिक सहिष्णुतापर आधारित है। गांधीजी का कहना था
कि राज्य एक ऐसा बगीचा होना चाहिए, जिसमें बिना
बाधा के सभी धर्मोंके फूल खिल सकें। गांधीजी एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष राज्यकी कल्पना
करते हैं जिसमें सभी धर्मों और उनके अनुयायियों का बिना किसी भेदभाव के समान दर्ज
हो, साथ ही हर व्यक्ति को किसी भी धर्म को मानने या न
मानने का अधिकार हो। राज्य धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।इस प्रकार
सर्वधर्म समभाव पर आधारित गांधीवादी राज्य भी एक विशेष और सकारात्मक अर्थ में
धर्म प्रधान की जगह धर्मनिरपेक्ष होगा।
गांधी जी की सर्वधर्म समभाव की अवधारणा धार्मिक
बहुलवाद पर आधारित है। गांधीजी धर्म से राजनीति के अलगाव के स्वीकार करते हैं।
गांधीजी का यंग इंडिया में प्रसिद्ध कथन है “धर्मविहीन
राजनीति नितान्त निंदनीय है जिससे हमेशा बचना चाहिए” गांधी
जी धर्म और राजनीति को कई कारणों से मिलाने पर बल देते थे। इस संबंध में उनका सबसे
महत्वपूर्ण तर्क यह है कि ‘मानव जीवन एक अविभाजित इकाई है
इसलिए उसे सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक
नाम के अलग-अलग स्वतंत्र चौखटों में नहीं बांटा जा सकता।‘
गांधी जी इस संदर्भ में यह भी तर्क देते हैं कि व्यक्ति के सरोकर धर्मरहित नहीं
हो सकते हैं। गांधीजी का इस संदर्भ में यह भी कहना है कि धर्म को राजनीति से अलग
करने पर राजनीति नीति शून्य हो जायेगी। गांधी जी का मानना था कि सभी कार्यकालापों
को धर्म नैतिक आधार प्रदान करता है। राजनीति भी मनुष्य का एक कार्यकलाप है और
इसलिए राजनीति धर्मविहीन होने पर नैतिक आधार से वंचित हो जाऐगी। गांधी जी धर्म की
विशिष्ट व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार धर्म का आशय सम्प्रदाय नहीं है। धर्म
गांधी जी के लिए सत्य का निष्ठा पूर्ण अनुशीलन था। इसलिए गांधी जी का धर्म से
आशय विश्व के व्यवस्थित नैतिक आशय से है ‘सत्य के प्रयोग’ में गांधी जी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो लोग यह कहते हैं कि धर्म
का राजनीति से कोई संबंध नहीं है वे यह नहीं जानते कि धर्म का अर्थ क्या है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जब गांधी जी धर्म को
आधार बनाने की बात करते हैं तो उनका अभिप्राय किसी पंथ, संप्रदाय और मजहब की राजनीति को आधार बनाना नहीं है। गांधी जी मानव जाति
के उच्चतम नैतिक मूल्यों को राजनीति का आधार बनाना चाहते हैं। गांधी जी के लिए
धर्म और राजनीति के व्यापक लक्ष्य एक जैसे थे। धर्म व्यक्ति और समाज के कल्याण
का साधन है इसी प्रकार राजनीति का लक्ष्य व्यक्ति और समाज के हितों में वृद्धि
करना है।
वस्तुत: गांधी जी राज्य और व्यक्ति के लिए
अलग-अलग मानदंड पेश करते हुए प्रतीत होते हैं। वे राज्य या राजनीतिक व्यवस्था
के संदर्भ में आंशिक रूप से धर्म और राजनीति के अलगाव के पक्षधर हैं, इसतिए वे मानते हैं कि राज्य को धार्मिक मामलों में दखल नहीं करना चाहिए।
किंतु व्यक्ति के संदर्भ में वे धर्म और राजनीति के अलगाव के पक्षधर नहीं है।
मूल्यांकन
- धर्म और राजनीति के समन्वय की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसने धर्मों के बीच फर्क स्वीकार नहीं किया जाता है। किंतु समस्या यह है कि धर्म को समाज का विधायक तत्व मान लेने पर धार्मिक मतभेद राजनीतिक मतभेद बन जाते हैं।
- सर्वधर्मसमभाव के रूप में धर्मनिरपेक्षवाद की अवधारणा व्यवहार में धर्मों के बीच सांमजस्य नहीं करती, बल्कि यह सांप्रदायिकता का सामंजस्य करन लगती है।
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता राज्य और धर्म के अलगाव को पूर्णतया न स्वीकार करके अंशतया स्वीकार करती है। इसलिए धर्म को आंशिक रूप से अलग किये जाने के बावजूद देश के सार्वजनिक राजनीतिक जीवन से धर्म को अलग नहीं किया जा सकता। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत की राजनीतिक संस्कृति सांप्रदायिक दंगों के खूनी रंग से रंगी रही। धर्म एक राजनीतिक हथियार के रूप में (न कि आस्था के रूप में), सांप्रदायिकता समस्या का केंद्र बन गया।
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता बहुलवाद पर आधारित है। इस धर्मनिरपेक्षता धर्म से निरपेक्षता न होकर धार्मिक तटस्थवाद में बदल गयी, जिससे सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में धर्म के प्रयोग से सीमित रूप में परहेज रखा गया। किंतु व्यक्ति के जीवन में धर्म एक प्रमुख शक्ति बना रहा।
- व्यवहार में यह सिद्ध हो चुका है कि धर्मनिरपेक्षवाद तभी संभव है जब वह तीन रूपों में एक साथ हो- राज्य का धर्म से अलगाव, सार्वजनिक राजनीतिक जीवन से धर्म का अभाव (पंथनिरपेक्ष राजनीतिक संस्कृति), व्यक्ति का दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो अर्थात व्यक्ति के जीवन से सीमित रूप में धर्म का अलगाव। भारतीय अवधारणा की सीमा यह है कि वह पहले दृष्टिकोण को आंशिक रूप में स्वीकार करती है जबकि दूसरे या तीसरे रास्ते को पूर्णत: अस्वीकार।
- भारत में धर्म का राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल हुआ जिससे भारत में राष्ट्र निर्माण और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया बुरी तरह प्रभावित हुई।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता की दिशा विज्ञान और तर्क
से हटकर सभी धर्मों के प्रति सदभाव की ओर बढ़ गयी। इससे अधिक सकारात्मक विकास का
आधार ही डगमगा गया।
COMMENTS