ब्रेक्जिट – ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से अलगाव और भारत पर प्रभाव : ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बाहर जाने का कोई एक कारण नहीं है, बल्कि आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व तात्कालिक कारण रहे हैं। ब्रिटेन को यूरोपीय संघ की सदस्यता के कारण कई बिलियन पाउंड शुल्क के रूप में देने होते थे, जिससे ब्रिटेन को कोई प्रत्यक्ष लाभ तो नहीं होता था, बल्कि उस पर आर्थिक दबाव ही बढ़ता था। साथ ही इस धनराशि को प्रयोग यूरोप की कमजोर अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक रूप से मजबूत बनानेके लिये किया जाता था, उदाहरणस्वरूप वर्ष 2014-15 में आया ग्रीस आर्थिक संकट की स्थिति में यूरोपीय संघ द्वारा ग्रीस की अर्थव्यवस्था को भारी-भरकम आर्थिक सहायता दी गयी।
ब्रेक्जिट – ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से अलगाव और भारत पर प्रभाव
यूरोप एकमात्र ऐसा
महाद्वीप है, जिसने सम्पूर्ण विश्व के लगभग सभी देशों को
अपना उपनिवेश बनाया और अपनी ताकत का लोहा पूरे विश्व में मनवाया परन्तु द्वितीय
विश्वयुद्ध की समाप्ति तक (1995) यूरोप की शक्ति अमेरिका और सोवियत रूस जैसी दो
नयी महाशक्तियों की ओर हस्तांवरित हो गयी और दोनों महाशक्तियों के बीच 1991 तक
शीत युद्ध की स्थिति बनी रही। सोवियत रूस के विघटन (1991) के बद सम्पूर्ण विश्व
में महाशक्ति के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका का एकाधिकार हो गया। यूरोप महाद्वीप को इस बात का एहसास हो गया कि जब तक वह एकीकृत यूरोप के रूप में संगठित
नहीं होगा, विश्व में अपनी खोई हुई साख हासिल नहीं कर
पायेगा। यूरोप को एकीकृत करने का आधुनिक विचार भले ही यूरोपीय संघ के रूप में हो,
लेकिन यूरोप के एकीकरण के प्रयास का इतिहास, बहुत ही पुराना है। ईसा मसीह के जन्म के कुछ
दशक पूर्व सबसे पहले जूलियस सीजर ने सम्पूर्ण यूरोप को बैनर तले लाने की कोशिश की
थी, जिसके अन्तर्गत उसने इटली की सेना का नेतृत्व करते हुए
फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैण्ड पर कब्जा कर लिया। मध्यकाल
में ईसाई धर्म के नाम पर यूरोपीय एकजुटता की कोशिश की गई,
परन्तु यह कोशिश नाकाम रही। नेपोलियन ने अपनी सैन्य ताकत से यूरोप को एकीकृत
किया। 20वीं सदी में हिटलर ने एक बार फिर यूरोप को एकीकृत शासन के अधीन किया।
चूंकि हिटलर ने अपनी नीजीसेना के दम पर लगभग पूरे यूरोपीय महाद्वीप पर कब्जा कर
लिया था। तब केवल ब्रिटिश द्वीप समूह ही उसके नियंत्रण से बाहर था। द्वितीय विश्व
युद्ध की समाप्ति के बाद नाटो (NATO) के गठन के जरिए यूरोप एकीकृत ही रहा। 1957 की
रोम की संधि द्वारा 6 यूरोपीय देशों (बेल्जियम, फ्रांस,
इटली, लैक्जमबर्ग, नीदरलैण्ड, प. जर्मनी) ने यूरोपीय
आर्थिक समुदाय का गठन किया जो, यूरोप के एकीकरण के लिए मील का पत्थर साबित
हुआ क्योंकि आगे चलकर यह आर्थिक समुदाय1995 में यूरोपीय संघ के रूप में परिवर्तित
हुआ, जिसमें कुल 28 यूरोपीय देश शामिल हुए।
इस प्रकार यूरोप के
एकीकरण का इतिहास कभी सैन्य विस्तार, कभी ईसाई धर्म तो कभी व्यापार जैसे अलग-अलग
वजहों के कारण लगातार जारी रहा। ब्रेक्जिट अर्थात् ब्रिटेन का इस एकीकरण व्यवस्था
से अलग होने का फैसला, यूरोप के एकीकरण के लम्बे इतिहास पर आघात के रूप
में देखा जा सकता है।
ब्रिटेन का यूरोपीय संघ
से बाहर जाने का कोई एक कारण नहीं है, बल्कि आर्थिक, सामाजिक,
राजनैतिक व तात्कालिक कारण रहे, जो निम्नवत् हैं।
आर्थिक कारण: ब्रिटेन
को यूरोपीय संघ की सदस्यता के कारण कई बिलियन पाउंड शुल्क के रूप में देने होते
थे, जिससे ब्रिटेन को कोई प्रत्यक्ष लाभ तो नहीं होता था,
बल्कि उस पर आर्थिक दबाव ही बढ़ता था। साथ ही इस धनराशि को प्रयोग यूरोप की कमजोर
अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक रूप से मजबूत बनानेके लिये किया जाता था,
उदाहरणस्वरूप वर्ष 2014-15 में आया ग्रीस आर्थिक संकट की स्थिति में यूरोपीय संघ
द्वारा ग्रीस की अर्थव्यवस्था को भारी-भरकम आर्थिक सहायता दी गयी। अर्थात
ब्रिटेन जैसी मजबूत अर्थव्यवस्थाओं की भूमिका केवल सहायता व अनुदान की उपलब्धता
बढ़ाने तक सीमित हो गयी और उसके मेहतन से
अर्जित राजस्व का लाभ अन्य अर्थव्यवस्थाओं को मिलने से वे अर्थव्यवस्थाएं
ब्रिटेन के बराबर में खड़ी होने का प्रयास करने लगी। ब्रिटिश लोगों का यह भी मानना
है कि यूरोपीय संघ व्यापार की तमाम शर्ते ब्रिटेन पर थोपता है।
सामाजिक कारण: यूरोपीय
संघ का सदस्य बननेसे ब्रिटेन में प्रवासियों की संख्या बढ़ती जा रही थी,
क्योंकि बिना रोक-टोक आवाजाही का प्रावधान है। यूरोपीय संघ अब यूरोप को एकजुट
करने से ज्यादा लोगों की जिदंगियों में हस्तक्षेप करने वचाली संस्था बन गया।
राजनैतिक कारण: यूरोपीय संघ के पर्यावरण, परिवहन, उपभोक्ता अधिकार यहाँ तक कि मोबाइल फोन की
कीमतें तय करने जैसे मामलों में हस्तक्षेप करने से ब्रिटेन की सम्प्रभुता
प्रभावित होती है।
तात्कालिक कारण: वर्ष 2015 में सम्पन्न ब्रिटिश आम
चुनाव में दोनों ही प्रमुख पार्टियों (लेबर एवं कंजरवेटिव) ने अपने चुनाव
घोषणा-पत्र में ब्रिटेन के यूरोपीय संघ में शामिल रहने या न रहने के प्रश्न पर
जनमत संग्रह कराने का वादा शामिल किया। चूंकि दोनों ही पार्टियाँ अधिकारिक तौर पर
यूरोपीय संघ में शामिल रहने की पक्षधर थीं और आश्वस्त थीं कि जनमत संग्रह में “शामिल
रहने” (Remain) के विचार को ही समर्थन प्राप्त होगा। इसलिए 20
फरवरी 2016 को प्रधानमंत्री कैमरून ने यह घोषणा की कि ब्रेक्जिट पर जनमत संग्रह
होगा, जो कि एक अदूरदर्शी फैसला रहा।
ब्रिटेन को यूरोपीय संघ
से बाहर जाने से अनेक लाभ होंगे जैसे-ब्रिटेन यूरोपयी संघ से आजाद होकर एक नयी
शुरुआत करेगा। ब्रिटेन अपना खोया हुआ सम्मान प्राप्त करेगा। ब्रिटेन अपनी सीमाओं
पर नियंत्रण कर सकेगा। शरणार्थियों के मामले में यूरोपीय संघ की बेवजह की मनमर्जी
से निजात पा सकेगा, जिससे ब्रिटेन में प्रवासियों की संख्या कम
होगी और सरकार द्वारा दी जानी वाली सामाजिक, आर्थिक सुविधाओं का लाभ केवल ब्रिटश नागरिक ही
प्राप्त कर सकेंगे। ब्रिटेन के रोजगार पर अधिकार केवल ब्रिटिश नागरिकों का होगा।
यदि ब्रिटेन पुन: यूरोपीय संघ का सदस्य बनना चाहेगा तो उसे किसी नये देश की भांति
पुन: आवेदन करना होगा और ब्रिटेन के सभी सदस्य देशों की सहमति जरूरी होगी।
यूरोपीय संघ से बाहर
जाने के पश्चात ब्रिटेन के समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियां होंगी जैसे-ब्रिक्जिट
के निर्णय से ब्रिटेन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती उसकी “एकता को खतरा” है। जैसाकि
जनमत संग्रह से स्पष्ट हे कि स्कटलैण्ड के विचार वेल्स व इंग्लैण्ड से नहीं
मिलते तथा इन विचारों के मतभेदों के कारण स्काटलैण्ड पुन: ब्रिटेन से आजादी के
प्रश्न पर दूसरे जनमत संग्रह करवाने की अपनी मांग तेज कर सकता है और दूसरी ओर
उत्तरी आयरलैण्ड में मिलकर नये गठबंधन में जाने की मांग कर सकता है।
ब्रिक्जिट का भारत पर
प्रभाव
भारत पर त्वरित प्रभाव
तो इसके शेयर बाजार में गिरावट के रूप में देखने में आया। आने वाले समय में भारत
पर ब्रेक्जिट के निम्न प्रभाव हो सकते हैं। निवेशक,
भारतीय पूंजी बाजार में पैसा वापस निकालेंगे, जिसका प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी
पड़ेगा। ब्रिटेन में कार्यरत 800 कंपनियों में लाखों लोग कार्यरत हैं। इस पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। भारत, ब्रिटेन में तीसरा सबसे बड़ा निवेशक है। ब्रिक्जिट
का सीधा प्रभाव निवेशकों पर पड़ेगा। ऐसे भारतीयों की संख्या काफी बड़ी है जिनके
कारोबार यूरोप के अन्य देशों में है किन्तु उनका मुख्य ठिकाना ब्रिटेन है।
भारतीय कंपनियों में अधिकांश का मुख्यालय ब्रिटेनमें है किन्तु उनका व्यापार
पूरे यूरोप में फैला है, इन पर सीधा प्रभाव पड़ेगा। अब तक ब्रिटेन का
पासपोर्ट यूरोपीय पासपोर्ट है किंतु ब्रिक्जिट के बाद यह स्थिति नहीं रह जायेगी।
ब्रिक्जिट का मुख्य मुद्दा आप्रवासन रहा है। अत: भारतीयों को ब्रिटेन में बसने
देने के नियम आवश्य ही कठोर हो जायेंगे। उच्च शिक्षा के लिए जाने वाले
विद्यार्थियों को अब अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। कुल मिलाकर यूरोपीय
संघ एवं ब्रिटेन के साथ भारत के संबंधों का पुनरावलोकन करना होगा तथा आवश्यकता
अनुरूप बदलाव की जरूरत रहेगी।
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