भारत में प्राकृतिक आपदा और उसका प्रबन्धन पर निबंध : कृति के इन आकस्मिक प्रकोपों को ही प्राकृतिक आपदा का नाम दिया जाता है। जो भूकंप, बाढ़, भू-स्खलन, सूखा, अनावृष्टि, अतिवृष्टि तथा समुद्री तूफान तथा आंधी-तूफानों के रूप में व्यक्ति के आर्थिक व सामाजिक जीवन के संहार का कारण बन जाते हैं। प्राकृतिक आपदा की घटनाएं एकदेशीय या राष्ट्रीय नहीं हैं, यह वैश्विक स्तर पर फैली हुई हैं। वर्ष 2012 में आये सैण्डी चक्रवात से अमेरिका जैसा विकसित और वैज्ञानिक प्रगति के शीर्ष बैठा देश असहाय नजर आया। कुछ वर्षों पूर्व दक्षिणी अमेरिका देश चिली के ‘माउले’ क्षेत्र में आए भीषण भूकंप के कारण 5 लाख घर क्षतिग्रस्त हो गये थे और लगभग साढ़े तीन लोग मारे गये थे। चीन के ‘किंग हाई प्रांत’ के यूशूं काउंटी क्षेत्र में आए भूकंप ने भीषण तबाही मचाई थी।
भारत में प्राकृतिक आपदा और उसका प्रबन्धन पर निबंध
प्रकृति मनुष्य की
पालनकर्ता है। प्रकृति के संसाधनों का प्रयोग करते हुए मानव ने अपने जीवन को अत्यधिक
सुखमय बनाया है और इस क्रम में प्रकृति की सौम्यता देखते हुए उस पर विजय प्राप्त
करने की चेष्टा की है। परन्तु यह स्पष्ट है कि जब प्रकृति कुपित होती है,
तो फिर उसके आगे मनुष्य की एक नहीं चलती। महाविनाश का ऐसा तांडव शुरू होता है कि
मानवता कराह उठती है। प्रकृति के कोप के ग्रास बने उत्तराखंड,
जम्मू-कश्मीर इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इससे पूर्व में भी हमने विभिन्न
प्राकृतिक कोपों का सामना किया है। प्रकृति के इन आकस्मिक प्रकोपों को ही
प्राकृतिक आपदा का नाम दिया जाता है। जो भूकंप, बाढ़,
भू-स्खलन, सूखा, अनावृष्टि, अतिवृष्टि तथा
समुद्री तूफान तथा आंधी-तूफानों के रूप में व्यक्ति के आर्थिक व सामाजिक जीवन के
संहार का कारण बन जाते हैं।
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प्राकृतिक आपदा की
घटनाएं एकदेशीय या राष्ट्रीय नहीं हैं, यह वैश्विक स्तर पर फैली हुई हैं। वर्ष 2012
में आये सैण्डी चक्रवात से अमेरिका जैसा विकसित और वैज्ञानिक प्रगति के शीर्ष
बैठा देश असहाय नजर आया। कुछ वर्षों पूर्व दक्षिणी अमेरिका देश चिली के ‘माउले’
क्षेत्र में आए भीषण भूकंप के कारण 5 लाख घर क्षतिग्रस्त हो गये थे और लगभग साढ़े
तीन लोग मारे गये थे। चीन के ‘किंग हाई प्रांत’ के यूशूं काउंटी
क्षेत्र में आए भूकंप ने भीषण तबाही मचाई थी। वर्ष 2009 में आए चक्रवाती तूफान ‘आइला’
ने जहां भारत के पश्चिमी बंगाल और बांग्लादेश में व्यापक कहर वरफाया था,
वहीं वर्ष 2001 में गुजरात में आए भीषण भूकंप के खोफनाक दृश्य को भूल जाना आसान
नहीं। इसी क्रम में जापान के फुफुशिमा में आए जल क्षोभ को विस्मृत कर पाना मुश्किल
है। इसी तरह हाल के दशक में दक्षिणी पूर्वी एशिया और प्रशांत में स्थित तटीय
देशों में फइलिन, नरगिस, कैटरीना, सैण्डी और टाइफून जैसे समुद्री चक्रवातों ने
काफी विध्वंस किया। सुनामी का मंजर भी भूल जाने योग्य नहीं है। इससे एक बात को
स्पष्ट होती है कि भले ही आर्थिक रूप से विश्व के देश बटे हैं परंतु प्रकृति के
कहर का सामना समान रूप से करते हैं। अंतर केवल इतना है विकसित देश विकासशील देशों
के मुकाबले आपदा का प्रबंधन और बचाव कार्य कुशलतापूर्व करते हैं।
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इतिहास बताता है कि
भारत अनेक प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होता रहा है। चक्रवात,
बाढ़, भूकंप और सूखा इनमें प्रमुख आपदाएं हैं। देश का 60 प्रतिशत
भू-भाग विभिन्न तीव्रताओं के भूकंप की संभावना वाला क्षेत्र है,
जबकि 4 करोड़ हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में बाढ़ की संभावना बनी रहती है तथा 68
प्रतिशत क्षेत्र में सूखे की आशंका मंडराती रहती है। इससे न केवल हजारों जीवन की
क्षति होती है बल्कि भारी मात्रा में निजी, सामुदायिक और सार्वजनिक परसंपत्तियों को क्षति
पहुंचती है। इंटर नेशनल फेडरेशन आफ रेड क्रॉस एंड रेड क्रोसेंट सोसायटीज (IFRC) द्वारा 2010 में प्रकाशित विश्व आपदा रिपोर्ट के अनुसार
2000 के दशक के आपदाओं से प्रभावित होने वाले लोगों में 85 प्रतिशत एशिया प्रशांत
क्षेत्र के थे। यूएनआईएसडीआर द्वारा प्रकाशित 2011की वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्ट
में अनुमान लगाया गया है कि विश्व में जो लोग बाढ़ से प्रभावित होते हैं,
उनमें से 90 प्रतिशत दक्षिण एशियाई, पूर्व एशियाई और प्रशांत सागर क्षेत्र में रहते
हैं दक्षिण एशिया के बाढ़ संभावित क्षेत्रों में भारत और बांग्लादेश प्रमुख हैं।
भवन निर्माण सामग्री ‘प्रौद्योगिकी संवर्धन परिषद् (VMTPC) ने भी अपने संवदेनशीलता मानचित्र में भारत के भौगोलिक
क्षेत्र का 58.6 प्रतिशत भाग तृतीय चतुर्थ और पंचम श्रेणी के भूकंपीय क्षेत्र में
दर्शाया है, जिनमें हल्के से लेकर अत्यधिक तीव्रता का
भूकंप आ सकता है। इसके अलावा भारत की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार की है कि एक ही
समय में देश के कुछ हिस्सों में अतिवृष्टि व अनावृष्टि के कारण बाढ़ व सूखे को
देखा जा सकता है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत प्राकृतिक आपदाओं की
दृष्टि से संवेदनशील देश है। इसके साथ ही यह सच स्वीकारना भी आवश्यक है कि अभी
तक भारत में उचित आपदा प्रबंधन सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद भी स्थापित नहीं
हो सका है। विश्व के अन्य देशों के मुकाबले देश में होने वाली हानि व जानमाल की
क्षति अत्यधिक रहती है।
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प्राकृतिक आपदाओं को
रोक पाना तो मुश्किल कार्य है, परन्तु अच्छा प्रबंधन करके इससे होने वाली
तबाही से कुछ हद तक बचा जा सकता है। आपदा प्रबंधन एक बहुआयामी क्षेत्र है। इसमें
पूर्वानुमान, चेतावनी, बचाव, राहत, पुनर्निमाण और पुनर्वास शामिल हैं। प्रशासक,
वैज्ञानिक, योजनाकार, स्वयंसेवक और समुदाय सभी इस बहुआयामी प्रयास
में हाथ बांटते हैं। उनकी भूमिकाएं और गतिविधियां आपदा के पहले,
आपदा के दौरान और आपदा के बाद महत्वपूर्ण होती हैं। ये सभी गतिविधियां एक-दूसरे
की पूरक और सहायक होती है और इसलिए इन गतिविधियों में समन्वय नितांत आवश्यक है।
प्राकृतिक आपदाएं, अर्थव्यवस्था, कृषि,
खाद्य सरक्षा, जल, स्वच्छता, पर्यावरण और स्वस्थ्य
को सीधे-सीधे प्रभावित करती हैं। इसलिए अधिकांश विकासशील देशों के लिए ये चिंता का
एक बहुत बड़ा कारण हैं। आर्थिक पहलू के अलावा इस तरह की आपदाओं का सामाजिक और
मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है जिनका गंभीरता से अध्ययन कर शमन की उपयुक्त रणनीति
तैयार करने की आवश्यकता है। आज प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व चेतावनी की अनेक
प्रणालियां उपलब्ध हैं लेकिन वे यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि
हम आपदा प्रबंधन की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
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यह सत्य है कि प्रत्येक
वर्ष किसी न किसी रूप में भारत प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होता है। परंतु इसका यह
अर्थ बिल्कुल नहीं है कि भारत की सरकार हाथ पर हाथ रखे इस भयावह दृश्य पर दृष्टिपात
करती रहती है। आज देश में आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में ढांचागत बदलाव आया है। भारत
में आपदा से निपटने के लिए भावी योजनाएं तैयार की गई हैं तथा भारत को आपदायुक्त
राष्ट्र बनाने की रूपरेखा भी क्रियान्वित की जा रही है। वर्तमान में आपदा
प्रबंधन के क्षेत्र में नवगठित आपदा प्रबंधन ढांचे के साथ आपदाओं के बारे में
जागरूकता लाते हुए जन समुदाय को इससे निपटने के लिए तैयार किया जा रहा है,
जो कि इस क्षेत्र में आज नया उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त दिसंबर
2004 में हुई सुनामी के द्वारा हुई तबाही के बाद सरकार द्वारा 2005 में लाया गया ‘आपदा
प्रबंधन अधिनियम’ एक ठोस कदम की ओर संकेत करता है। इसके तहत
प्रधानमंत्री के नेतृत्व में जहां ‘राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण’
के गठन का प्रावधान है। वहीं राज्यों में मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में ‘राज्य
आपदा प्रबंधन प्राधिकरण’ तथा साथ ही जिला स्तर पर जिलाधीशों के नेतृत्व
में ‘जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण’ का प्रावधान है। इस व्यवस्था
को तहत विभिन्न राज्यों में ‘राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण’
की निगरानी, दिशा-निर्देश और प्रशासनिक नियंत्रण के अंतर्गत
रखे गए विशिष्टीकृत बल के रूप में ‘नेशनल डिसास्टर रिस्पांस फोर्स (NDRF) की बटालियनों का गठन किया गया है। इस प्रकार भारत सरकार
आपदा प्रबंधन के साथ-साथ आपदा बचाव अभियान- ‘ऑपरेशन सूर्य हॉप’ तथा वर्तमान में जम्मू–कश्मीर
में सेना द्वारा चलाया जा रहा बचाव अभियान ‘ऑपरेशन राहत मेघ’ इसके अच्छे उदाहरण
हैं। इसके अलावा आपदा के दौरान फंसे व पीडि़त लोगों को खाद्य सामग्री पहुंचने का
कार्य भी सरकार द्वारा किया जाता है। आपदा प्रबंधन की दिशा में प्रभावी उपाय
सुनिश्चित करने के उद्देश्य से ही भारतीय मौसम विभाग (IMD) के पूर्वानुमान और समय रहते चेतावनी प्रणाली के बड़े हिस्से
का पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा पुनगर्ठन किया गया। सुनामी से बचाव के लिए
भारत सरकार द्वारा हैदराबाद में सुनामी निगरानी केंद्र की स्थापना की गयी है और
साथ ही पोर्ट ब्लेयर में निगरानी तंत्र की व्यवस्था है। अत: स्पष्ट हो जाता
है कि सरकार देश की आपदाओं के प्रति सचेत है।
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हालांकि सरकार द्वारा
अनेक कदम उठाये जाते हैं परंतु फिर भी आपदा के जोखिम को कम करने के लिए उसके सम्मुख
अनेक चुनौतियाँ हैं:
- देश को आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में विशेषज्ञ वृत्तिजीवियों की आवश्यकता है ताकि आपदाओं को रोका जा सके और उनका शमन किया जा सके। लेकिन इसके लिए सरकार व अकादमिक संस्थाओं में मानव कौशल विकासकी उपलब्धता क्षमता सर्वथा अपर्याप्त है।
- सुधारोन्मुख संस्थागत संरचना, नीतियों, कानूनों और दिशा-निर्देशों के रूप में हमारे पास एक सहायक वातावरण मौजूद है, परन्तु अभी भी अनेक रज्यों में ‘आपदा प्रबंधन प्राधिकरण’ काम करने की स्थिति में नहीं है साथ ही अनेक राज्यों में उच्च राज्यस्तरीय कार्य योजना तैयार नहीं हो सकी है।
- जोखिम को कम करने के लिए जिस चीज की सबसे अधिक आवश्यकता होती है, वह है जोखिम की अच्छी समझ। सभी राज्य सरकारें जोखिम के विस्तृत आकलन की पद्धति से परिचित नहीं हैं।
- आपदा के जोखिम को कम करने के प्रयासों को विकास के एक मुद्दे के रूप में देखा जाना चाहिए। 10वीं और 11वीं पंचवर्षीय योजनाओं में ऐसा स्पष्ट करने के बाद भी, ऐसा व्यवहार नहीं हो रहा है।
- ऐसी अनेक समस्याओं का सामना देश कर रहा है जिससे अधिक धनराशि व्यय करके भी प्रबंधन तंत्र में सुधार दृष्टिगोचर नहीं हो पा रहा है। परन्तु यदि कुछ सावधानियों का ध्यान रखा जाए तो आपदाओं को तो चाहे समाप्त न किया जाए, परन्तु इसके विनाश से काफी हद तक बचा जा सकता है।
- जब अपदाओं आती हैं तो उनसे जुड़े विभिन्न पहलुओं पर चर्चा आरंभ हो जाती है अन्यथा नहीं, अत: आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक वर्ष आपदा प्रबंधन को विकास के एजेण्डे में रखा जाए।
- बेहतर आपदा प्रबंधन के लिए आवश्यक बाते हैं-जानकारी और बचाव। अत: किसी भी आपदा से बचाव में ‘जानकारी’ अहम भूमिका निभा सकती है। इसलिए आवयकता है कि जनसामान्य में जानकारी या जागरूकता फैलायी जाए।
- आपदा प्रबंधन के लिए एक और बात जरूरी है वह है- आपदाओं के साथ जीने की कला का विकास। जापान से इस विषय पर सीख ली जा सकती है। ऐसा ही एक अन्य उदाहरण अपने ही देश उत्तर बिहार का कोसी क्षेत्र है, जहाँ के लोग प्रत्येक वर्ष बाढ़ की आपदा को झेलते हुए भी उसे कोसते नहीं वे कहते है- ‘बाढ़ से जीबौ, बांध से मरबौ’।
- भूकंप से उत्पनन ऊर्ध्व और क्षैतिज दिशा में पृथ्वी पर वेग के गमन से भवन जिस सतह पर स्थिर रहते हैं, उसी के साथ उठाते व हिलते हैं। परंतु यदि भारतीय मानक संहितानुसार भवन बनाएं तो भवन विनाश की संभावना कम रहती है।
- इसके अतिरिक्त विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करते हुए पूर्व चेतावनी व्यवस्था को प्रभावशाली बनाने की आवश्यकता है।
- सरकारी स्तर पर ही ठोस प्रयास आवश्यक नहीं, इससे साथ-साथ जनता को प्रशिक्षित व जागरूक कराने की आवश्यकता है, इसके लिए आवश्यक है कि प्राथमिक स्तर से उच्च स्तर के शैक्षिक पाठ्यक्रम में पर्यावरण के साथ ही आपदा प्रबंधन भी शामिल हो।
अत: निष्कर्ष रूप में
कहा जा सकता है कि प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का वश तो नहीं है परन्तु उयित
प्रबंधन से जन-धन हानि को कम करने की चेष्टा की जा सकती है। इसके लिए प्रकृति को
कोसते रहने के कुछ लाभ होने वाला नहीं है। इस संबंध में मिल्टन ने कहा है।– ‘प्रकृति
को भला-बुरा न कहे। उसने अपना कर्त्तव्य पूरा किया, अपना काम करो।
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