भारत में परमाणु उर्जा का विकास और उद्देश्य : परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को बल पहुंचाने वाले अनेक सहायक संगठन देश भर में फैले हुए हैं। सबसे पुराना और अत्यंत गौरवशाली माना गया परमाणु संस्थान ट्रांबेका भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र है। यह देश में हल्के और भारी पानी रिएक्टों के शोध का संस्थान है। यहां से अन्य कोई शोध-रिएक्टरों का संचालन भी होता है। देश का दूसरा परमाणु अनुसंधान केंद्र मद्रास के पास कलपक्कम का ‘रिएक्टर रिसर्च सेंटर’ है, जिसने मुख्य रूप से फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है। भारत परमाणु ऊर्जा का गैर सैनिक उद्देश्यों हेतु उपयोग करना चाहता है। वह परमाणु शक्ति की विनाशकारी प्रवृत्ति के कारण उसके सामरिक प्रयोग का विरोधी रहा है। परमाणु शक्ति के गैर सैनिक उपयोग, कृषि, उद्योग व चिकित्सा के क्षेत्र प्रमुख रूप से शामिल है। भारत में परमाणु तकनीक का विकास होमी जहॉगीर भाभा, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाला नेहरू एवं जमशेद जी टाटा के संयुक्त प्रयासों से प्रारम्भ हुआ।
आज देश में कोई अरबों
रुपयों का परमाणु साम्राज्य फैला हुआ है, जिसमें यूरेनियम की खदान,
ईंधन निर्माण के कारखाने, भारी पानी संयंत्र,
परमाणु बिजली घर और काम आ चुके ईंधन को फिर से उपचारित करने के संयंत्र आदि
शामिलहै। देश के पांचवें परमाणु रिएक्टर का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री राजीव
गांधी ने कहा था कि, ‘कुछ राष्ट्र हमें प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में
मजबूत नहीं बनने देना चाहते थे... पर यह सफलता हमारे स्वावलंबी होने के संकल्पका
प्रमाण है।‘ मद्रास एटमिक पावर प्रोजेक्ट की उस पहली इकाई
के 90 प्रतिशत कलपुर्जे देशी बताए गऐ थे। परमाणु ऊर्जा आयोग एक ऐसा सरकारी संगठन
है, जिसे धन की कमी कभी नहीं पड़ी। हर एक पंचवर्षीय योजना में
ऊर्जा विभाग के हिस्से का 2 से 5 प्रतिशत तक इस आयोग को जाता रहा है। केंद्र
सरकार के सालाना बजट में ऐसे शोध और विकास कार्य के लिए रखी जाने वाली कुल राशि का
भी कोई 15 से 25 प्रतिशत परमाणु ऊर्जा को दिया जाता है। परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को
बल पहुंचाने वाले अनेक सहायक संगठन देश भर में फैले हुए हैं। सबसे पुराना और अत्यंत
गौरवशाली माना गया परमाणु संस्थान ट्रांबेका भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र है। यह
देश में हल्के और भारी पानी रिएक्टों के शोध का संस्थान है। यहां से अन्य कोई
शोध-रिएक्टरों का संचालन भी होता है।
देश का दूसरा परमाणु
अनुसंधान केंद्र मद्रास के पास कलपक्कम का ‘रिएक्टर रिसर्च सेंटर’
है, जिसने मुख्य रूप से फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों पर अपना ध्यान
केंद्रित किया है। यूरेनियम का खनन बिहार के सिंहभूम के पास जादूगोड़ा में भारतीय
यूरेनियम निगम करता है। खदन और उसकी सहायक मिलों की क्षमता रोजाना 1,000
टन यूरेनियम को उपचारित करने की है। निगम नखापहाड़ और तुरडीह में दो और खदानें जल्दी
ही शुरू करने की तैयारी कर रहा है। ये दोनो जमशेदपुर के पास है। इन पर कोई 100
करोड़ रुपए लगाने वाले हैं। इनसे नए परमाणु बिजली घरों के लिए ईंधन की आपूर्ति हो
सकेगी। खदान से निकले यूरेनियम के हैदराबाद के पास बने परमाणु ईंधन समवाय को भेजा
जाता है, जहां कोटा और कलपक्कम के परमाणु रिएक्टरों के
लिए ईंधन की छड़े बनाने के लिए उसे तोड़कर टिकियां बनाई जाती हैं और फिर उन्हें जिर्कोलॉय
ट्यूबों में भरा जाता है। जिर्कोलॉय का निर्माण केरल से मंगाए गए जिरकोनियम रेत से
किया जाता है। तारापुर के हल्के पानी के रिएक्टरों के लिए परिषत युरेनियम बाहर
से आता है और यहां उसे तोड़ा जाता है। तारापुर के रिएक्टरों को छोड़कर बाकी सभी
कार्यरत और निर्माणधीन रिएक्टर ‘केंडु’ (केनेडियन ड्यूटेरियम टाईप) नमूने के हैं। ये
भारी पानी का उपयोग करते हैं। इनमें खासी पूंजी लगती है। फिर भी परमाणु ऊर्जा आयोग
ने केंडु रिएक्टर ही पसंद किए हैं। उसमें प्राक्रतिक यूरेनियम ईंधन के रूप में
काम आता है और इसका निर्माण देश में ही किया जा सकता है। इससे विदेशों से ईंधन
मांगने की झंझट से छुटकारा मिल सकता है और उस अंतर्राष्ट्रीय दबाव से भी मुक्ति
मिल सकती है, जिसका सामना तारापुर के परिषत यूरेनियम ईंधन के
मामले में करना पड़ा है। लेकिन यह उपाय तभी सफल होगा जब देश पर्याप्त भारी पानी
तैयार कर ले। आज तीन जगह-नांगल (14 टन), बड़ोदरा (67 टन) और तूतिकोरिन (71 टन) में भारी
पानी संयंत्र हैं, जिनकी कुल स्थापित क्षमता 150 टन सालाना
की है। कोटा में (100 टन) औ तलसचर (62 टन) में दो और संयंत्र लगाने की
तैयारी हो रही है। इन पांच संचंत्रों पर देश ने 220 करोड़ रुपए खर्च किए है। थाल
(110 टन) तथा मनुगुरु (185 टन) में दो और बड़े संयंत्र तैयार हो रहे हैं,
जिन पर क्रमश: 188 करोड़ और 422 करोड़ रुपए खर्च होंगे। ऐसा ही एक तीसरा संचंत्र
हजीरा में भी स्थापित करने की बात सोची जा रही है। इस तरह देश के परमाणु बिजली
कार्यक्रम का मूल आधार भारी पानी बनता जा रहा है।
भारत परमाणु ऊर्जा का
गैर सैनिक उद्देश्यों हेतु उपयोग करना चाहता है। वह परमाणु शक्ति की विनाशकारी
प्रवृत्ति के कारण उसके सामरिक प्रयोग का विरोधी रहा है। परमाणु शक्ति के गैर
सैनिक उपयोग, कृषि, उद्योग व चिकित्सा के क्षेत्र प्रमुख रूप से
शामिल है। भारत में परमाणु तकनीक का विकास होमी जहॉगीर भाभा,
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाला नेहरू एवं जमशेद जी टाटा के संयुक्त
प्रयासों से प्रारम्भ हुआ। अब तक भारत ने विद्युत उत्पादनव परमाणु हथियारों की
तकनीक में आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है। भारत का परमाणु कार्यक्रम परमाणु ऊर्जा
के उत्पादन तथा अन्य शान्तिपूर्ण उपयोगों हेतु आरम्भ हुआ था। भारत ने परमाणु
ऊर्जा के उत्पादन हेतु सम्पूर्ण ईंधन चक्र में क्षमता हासिल कर ली है।
सन् 1969 में अमरीका के
सहयोग से तारापुर में प्रथम परमाणु रियेक्टर स्थापित किया गया था। जिसके लिये
परमाणु ईंधन के रूप में संर्वंधित यूरेनियम की आपूर्ति अमेरिका द्वारा की जाती थी।
परन्तु मई 1974 में भारत द्वारा प्रथम पोखरण विस्फोट के पश्चात अमेरिका द्वारा
यूरेनियम की आपूर्ति बन्द कर दी गयी थी। जो भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के
क्षेत्र में महत्वपूर्ण चुनौती थी। यद्यपि 1982 में फ्रांस ने संर्वधित यूरेनियम की आपूर्ति हेतु सहमति व्यक्ति कर
दी थी परन्तु भारत ने इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की नीति अपनाई। परिणामत: भारत
अब तक PRESSURISED HEAVY
WATER की तकनीक से प्राकृतिक
यूरेनियम के प्रयोग द्वारा परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त
कर चुका है। ऐसा HEAVY
WATER बनाने की तकनीक के कारण सम्भव
हो सका।
विदित हो कि संर्वधित
यूरेनियम को जब ईंधन के रूप में प्रयोग में लाया जाता है तो HEAVY WATER की आवश्यकता नहीं होती। भारत का परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम
तीन चरणों वाला है। प्रथम चरण में पी.एच.डब्ल्यू द्वारा चालित रियेक्टरों की
तकनीक सम्मिलित है। दूसरे चरण में एफ.बी.आर की तकनीक का विकास करना है। भारत इस
चरण को अभी तक पूरा कर चुका है। इसमें प्लूटोनियम आधारित ईंधन संर्वधन की
प्रक्रिया प्रमुख आधार है। तीसरे चरण में थोरियम-यूरेनियम चक्र की तकनीक का विकास
करना है। भारत इस चरण को अभी तक पूरा कर चुका है। इसमें प्लूटोनियम आधारित ईंधन
संर्वधन की प्रक्रिया प्रमुख आधार है। तीसरे चरण में थोरियम-यूरेनियम चक्र की तकनीक
का विकास सम्मलित है। इसमें थोरियम द्वारा यूरेनियम 233 ईंधन की प्राप्ति की
जाती है। सूच्य हो कि भारत में विश्व का 65 प्रतिशत थोरियम का भण्डार पाया जाता
है।
यह भी उल्लेखनीय है कि
भारत ने अब तक अपने परमाणु कार्यक्रम हेतु आवश्यक मानव संसाधन,
रियेक्टर तथा शोध संस्थानों की स्थपना कर ली है। अभी तक भारत में 3360 मेगावाट
विद्युत उत्पादन क्षमता का विकास हो चुका है। परन्तु यह भारत की कुल उत्पादन
क्षमता का मात्र 2.5 प्रतिशत है। लक्ष्य यह है कि परमाणु विद्युत उत्पादन को
20000 मेगावाट तक किया जाये। परन्तु भारत का परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम तमाम
उपलब्धियों के बावजूद इस लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त करने की स्थिति में नहीं है।
उल्लेखनीय है कि भारत ने 1974 एवं 1998 में परमाणु परीक्षण किया। इन परमाणु
परीक्षणों का उद्देश्य स्वयं को नाभिकीय शक्ति सम्पन्न राष्ट्र के रुप में
स्थापित करना था। परमाणु परीक्षणों के बाद भी भारत में उच्च तकनीक तथा यूरेनियम
का अभाव है।
इसके विपरीत विश्व के
अनेक देश-विदेशी सहयोग पाकर नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में कहीं आगे निकल गये। भारत
को सहयोग इसलिए नही मिला क्योंकि उसने परमाणु अप्रसार सन्धि 1968 (NPT) तथा व्यापक परमाणु अप्रसार सन्धि 1996 (CTBT) जैसे शस्त्र नियंत्रण की सन्धि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार
किया। यदि भारत इन सन्धियों पर हस्ताक्षर कर देता तो उसे नाभिकीय क्षेत्र में
तकनीकि तथा यूरेनियम की उपलब्धता तो हो जाती। परन्तु वह परमाणु हथियारों के
निर्माण से वंचित हो जाता। ऐसे में जुलाई 2005 में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
की यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने भारतके समक्ष असैन्य परमाणु
ऊर्जा के क्षेत्रमें सहयोग देने की पेशकश की और भारत अमेरिका के मध्य 2005-06 की
रणनीतिक भागीदारी के तहत 02 मार्च 2006 को भारत अमेरिका असैन्य परमाणु सहयोग
समझौता 123 सम्पन्न हुआ।
जुलाई 2007 तक भारत में
सभी राजनैतिक दल व समीक्षक चुप रहे परन्तु अगस्त 2007 में इस समझौते से संबंधित
दस्तावेजों के विदेश मंत्रालय की वेब साइट पर जारी होते ही आलेचना होने लगी कि
इससे भारतीय विदेश नीति एवं सम्प्रभुता प्रभावित होगी परन्तु भारत एवं विश्व
में अनेक विरोधी आलोचनाओं के बाद भी इसे अमेरिकी कूटनीतिक दबाव का करिश्मा कहें
या फिर नई दिल्ली की तरफ से परमाणु अप्रसार के आश्वासन का असर,
45 देशों के परमाणु आपूर्ति कर्ता समूह (NSG) ने भारत को नाभिकी विरादरी में शामिल कर लिया। इसके साथ की
भारत को (NPT) एवं (CTBT) पर हस्ताक्षर किये बिना ही तीन दशक पुराने
नाभिकीय कारोबार के प्रतिबन्ध से छूट मिल गयी और जिससे भारतको आई०ए०इ०ए० (I.A.E.A.) में जाने की जरूरत नही रही।
भारत राज्य के साथ-साथ
देश की जनता के लिए ऐतिहासिक एवं राजनीतिक महत्व वाले इस 123 समझौते का अध्याय
भी लिखा जा चुका है। अमेरिकी कांग्रेस ने 123 समझौते को अक्टूबर 2008 को 13 के
मुकाबले 806 मतों से पारित कर दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति तथा दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के हस्ताक्षर भी इस करार पर हो गये हैं।
लेकिन दुनिया के विकसित देश अभी भी भारत के साथ एक संपूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न
आण्विक अस्त्र राष्ट्र जैसा व्यवहार नही कर रहे हैं। अमेरिकी कांग्रेस ने एक
संसोधन द्वारा इस संबंध में पूर्व सूचना दे दी है कि अगर भारत द्वारा भविष्य में
परमाणु विस्फोट किया जाता है तो यह समझौता बाध्यकारी नही रह जायेगा।
ऐसे में प्रारम्भ में
जो कुछ आषंकाएं उभरी थीं। अभी भी विचारणीय है कि एफ.बी.आर को भी जांच के दायरे में
रखा जायेगा। एफ.बी.आर हमारी परमाणु ऊर्जा आवश्यकताओं का बहुत महत्वपूर्ण मार्ग
है। भारत मे थोरियम का भंडार बहुत है यूरेनियम का नहीं। सामान्यत: परमाणु रियेक्टर
यूरेनियम पर ही चलते हैं। भारत ने यूरेनयिम का नहीं। सामान्यत: परमाणु रियेक्टर
यूरेनियम पर ही चलते हैं। भारत ने यूरेनियम आधारित रियेक्टर ना बनाकर थोरियम
आधारित परमाणु रियेक्टर बनाने का प्रयास किया है। ताकि दसरों पर निर्भरता न रहे।
लेकिन 123 समझौते से हमारी परमाणु नीति दूसरों पर निर्भर हो रही है। अर्थात अनिष्चितता
की ओर अग्रसर। सोंचना होगा कि भविष्य में परमाणु ऊर्जा का प्रयोग तो बढ़ेगा ही
फिर हम अभी से उसका नियंत्रण अमेरिका के हाथ में क्यों दे रहे हैं? ऐसे में जब
भारत को यूरेनियम की सप्लाई को लेकर समग्र विश्व में सुगबुगाहट भारतीय दृष्टि
से विकृत सी प्रतीत हो रही है। विश्व का मुख्य यूरेनियम उत्पादक आस्ट्रेलिया
भारत को एनएसजी से स्वीकृति पश्चात भी यूरेनियम देने मना कर रहा है। तब जब कि यह
भी नहीं पता कि वह इस मामले मे गंभीर है या कोई मोल तोल करना चाहता है। वैसे भी इस
दौरान यूरेनियम के विश्व बाजार में भारत की मांग का ताप महसूस किया जाना शुरू हो
गया है। भारत की मौजूदा सालाना मांग 500 टन या 13 लाख पउण्ड (1 टन = 2600 पाउण्ड) की है। शुरूआती सालों में ही इसके 1000 से
1500 टन हो जाने की उम्मीद है। यूरेनियम व्यापारियों के मुताबिक स्पाट या
हाजिर बाजार में इतनी मांग कीमतों को बढ़ाने के लिए काफी है। वैसे भी लंदन के
बाजार में पिछले कुछ सालों में यूरेनियम की कीमतों में भारी उतार चढ़ाव आता रहा
है। वर्ष 2000 में इसकी कीमत महज 7 डालर प्रति पाउण्ड थी। जून 2007 तक उछलकर 136
डालर प्रति पाउण्ड हो गई और स्पाट बाजार में इस समय यूरेनियम की कीमत 64.5 डालर
प्रति पाउण्ड चल रही है और वर्ष भर बाद यह कीमत कहां तक पहुंचेगी कल्पना की जा
सकती है।
उल्लेखनीय है कि इस
समझौते के बाद भारत के पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान तो परमाणु परीक्षण कर सकते
हैं परंतु भारत परमाणु परीक्षण नही कर सकेगा। ठीक है कि एनएसजी से मिली छूट वास्तव
में एक वैश्विक अवसर है। चूंकि भारत आण्विक व्यवसाय के लिए अपने दरवाजे खोल
देगा तो इससे 40 मिलियन डालर के विश्वव्यापी व्यवसाय की शुरूआत होगी। भारतीय
कंपनियों को विदेशी परमाणु संयंत्र निर्माताओं के लिए कलपुर्जों की आपूर्ति का
अवसर मिलेगा। भारतीय फर्मों को ऊर्जा उत्पादन का अवसर हासिल होगा एवं देश में
परमाणु ऊर्जा स्तर बढ़ेगा।
आलोचक मानते है कि यह
अमेरिका के हित में है कि वह भारत के साथ परमाणु समझौता करे और भारत की उन्नत
तकनीकि का आयात करे। अभी तक अमेरिका की परमाणु नीति अधिक से अधिक प्लूटोनियम के
उत्पादन की रही है जिसके कारण अन्य परमाणु कार्यक्रमों में वह लगातार पिछड़ता
चला गया। अगर भारतीय वैज्ञानिकों के काम पर हमें भरोसा है तो हमे कुछ ऐसे तथ्यों
पर भी नजर डालनी होगी जो तस्वीर का दूसरा रुख दिखाते है। भारत थोरियम के विशाल
भण्डार के दोहन के लिए एडवांस्ड हैवी वाटर रियेक्टर विकसित करने वाला दुनिया की
अग्रणी देश है। इंटरनेशनल न्यूक्लियर इन्फारमेशन सिस्टम का डाटाबेस कहता है कि
एफ.बी.आर. और थोरियम के शोध के मामले में भारत इस समय दुनिया के शीर्ष पर है। खुद
अनिल काकोदकर एच.डब्ल्यू.टी. पर 100 फीसदी भारत में हुआ है। खुद आई०ए०एस० (I.A.E.A.) थोरियम आधारित ईंधन के प्रयोग में दिलचस्पी दिखा रहा है।
दुनिया में भारत एक
मात्र एक ऐसा देश है जिसने सभी तीन मुख्य विखंडनीय तत्वों यूरेनियम-233,
यूरेनियम-234 और प्लूटोनियम के इस्तेमाल के ठोस रोडमैप तैयार किये जाते हैं।
इसके अतिरिक्त भारत उन देशों में शुमार है जो सफलता पूर्वक FAST BREEDER कार्यक्रम चला रहे हैं। जाहिर है भारत इस क्षेत्र में काफी
आगे है। ऐसे में यह अमेरिका के हित मे है कि वह भारत से उन्नत तकनीकि का आयात
करें।
अमेरिका अपने पुराने
रियेक्टरों को दफना रहा हैं। एक परमाणु बिजली पैदा करने वाले रियेक्टर की औसत
उम्र 30 साल होती है, इस अवधि के बाद वह परमाणु बिजली घर खुद
रेडियोएक्टिव हो जाता है। वैसे इस समय 60 वर्ष तक परमाणु बिजलीघर की उम्र बढ़ानें
की तकनीक है। परन्तु पुराने बिजलीघरों की औसत उम्र 30 वर्ष ही है। अमेरिका
परमाणु रेग्युलेंटरी कमीशन की रिपोर्ट है कि इस समय अमेरिका में 16 पुराने परमाणु
रियेक्टरों को दफन करनेंकी प्रक्रिया चल रही है। लेकिन समस्या सिर्फ परमाणु
बिजलघर के निपटारे की ही नही है। अमेरिका की सारी परमाणु बिजली एक खुले ईंधन चक्र
के जरिए पैदा होती है। इसमें संवर्धित साधारण पानी का इस्तेमाल होता है। भारत में
जो हैवी वाटर रियेक्टर पी०डब्लू०आर० है। जिसमें साधारण पानी का इस्तेमाल होता
है। भारत मे जो हैवी वाटर रियेक्टर हैं उसकी तुलना में पी०डब्लू०आर० ज्यादा न्यूट्रान
जज्बा करते हैं। पी०डब्लू०आर० में ब्रीडर प्रक्रिया संभव नहीं है और प्रयोग हुए
यूरेनियम की दुबारा साईकिलिंग भी नहीं की जा सकती है।
इसलिए अब अमेरिका को
बंद ईंधन चक्र वाले परमाणु रियेक्टरों के आयात की सख्त जरूरत है। जार्ज बुश ने
जनवरी 2006 में कहा भी था कि यह वैश्विक परमाणु साझेदारी का मुख्य लक्ष्य है।
इस साझेदारी में फिलहाल 19 देश है। भारत और कनाडा पी.एच.डब्ल्यू.आर का इस्तेमाल
करते हैं जो कि अंद ईंधन प्रक्रिया पर आधारित हैं। वर्तमान में कनाडा के पास 18,
भारत के पास 16, दक्षिण कोरिया के पास 04,
अर्जेन्टीना के पास 02, चीन के पास 02 और पाकिस्तान के पास
01 पी.एच.डब्लू.आर हैं और ये सभी चालू अवस्था में हैं। परमाणु ईंधन चक्र का
विशेष उल्लेख पूरे समझौते का निचोड़ है खुले परमाणु ईंधन चक्र वाले अमेरिका को
भारत और रुस के उन्नत बंद परमाणु ईंधन चक्र के TECHNOLOGY की
सख्त जरुरत है। रुस भू राजनैतिक मामले में अमेरिका पर अंकुश लगाता है। इसलिए
अमेरिका ने भारत पर हर तरह का दबाव डालकर परमाणु समझौते को अंजाम दिलवाया ताकि उसे
बंद परमाणु ईंधन चक्र की TECHONOLOGY भारत से हासिल हो सके। इसके बदले में वह भारत
को एफ.बी.आर. और एल.डब्ल्यू.आर. देनें का आश्वासन दे रहा हैं। लेकिन विश्व के
438 परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे को लेकर सारा विश्व परेशान
है। 1000 मेगावाट का परमाणु संयंत्र प्रतिवर्ष 33 टन रेडियोधर्मी कचरा पैदा करता
है। अमेरिका के 102 परमाणु संयंत्रों की छत पर स्थित कूलिंग संयंत्रों में 80,000
टन अत्यधिक रेडियोधर्मी कचरा पड़ा है। इसे ठिकाने लगाने के लिए अभी तक भंडारण
हेतु स्थान ही नहीं मिल पाया है। लम्बे समय तक रेडियोधर्मी कचरे को रखना भी अपने
आप में एक समस्या है। फिर भी हमारी दिनचर्या दिन प्रतिदिन अधिकाधिक ऊर्जा की मांग
करती जा रही है। ऊर्जा की बढ़ती मांग के हिसाब से उत्पादन भी बढ़ते ही जा रहा है।
जहां सन् 2000-01 में भारत में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 374 किलोवाट प्रतिवर्ष
थी वहीं वर्तमान में 602 किलावाट हो गयी है। हमारे योजनाकार वर्ष 2012 तक प्रति व्यक्ति
ऊर्जा खपत 1000 किलोवाट का अनुमान लगा रहे हैं तथा इस हिसाब से ऊर्जा उत्पादन को
बढ़ाने वाली परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं। विकसित देशों में प्रति व्यक्ति
प्रति वर्ष लगभग 10000 किलोवाट ऊर्जा खपत है। विकास का जो माडल हम अपनाते जा रहे
हैं उस दृष्टि से अगली प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में हमें ऊर्जा उत्पादन को
लगभग 2 गुना करते जाना होगा। योजना आयोग ने 2006 में ‘समग्र
ऊर्जा नीति’ प्रकाशित की। इस नीति में कोयले से उत्पन्न
ऊर्जा (थर्मल पावर) को सबसे खराब बताया गया क्योंकि इस प्रक्रिया में जहरीली
गैसें, राख व गंदा पानी निकलता है। जंगल व वनस्पति की
हानि भी साथ में होती ही है, खनन से विस्थापन भी होता है। परमाणु ऊर्जा को
इसकी तुलना में अच्छा बताया गया क्योंकि इसमें जहरीली गैसें का उत्सर्जन नहीं
होता है। दूसरी ओर जल विद्युत को श्रेष्ठतम बताया गया क्योंकि इस प्रक्रिया से
किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं होता।
तेल की बढ़ती कीमतों से,
परमाणु ऊर्जा व जल-विद्युत के प्रति आकर्षण और बढ़ गया है। हमें ऊर्जा का अधिक उत्पादन
क्यों करना चाहिए? उत्तर होगा कि हमें आर्थिक विकास करना है और जीवन को अधिक
आरामदायक तरीके से जीना है। अधिक ऊर्जा से जीवन आरामदायक होगा यह तो ठीक है। लेकिन
एक तथ्य चौंकाने वाला है- ‘अर्थिक विकास से ऊर्जा की खपत बढ़ती है लेकिन
अधिक ऊर्जा की खपत से आर्थिक विकास हुआ, यह नहीं कहा जा सकता (सजल घोष,
आईजीआईडीआर, मुम्बई)। हम सभी को यह लग सकता है कि
उद्योग-धंधो में मेन्यूफैक्चरिंग के लिए अधिक ऊर्जा चाहिए। लेकिन मैन्यूफैक्चरिंग
क्षेत्र का हमारे आर्थिक विकास में कितना योगदान है? वस्तुत: देश की आय में मेन्यूफैक्चरिंग
क्षेत्र की बजाए सेवा क्षेत्र का योगदान अधिक है। वर्तमान ऊर्जा स्थिति देखने से
पता चलता है कि थर्मल पावर कुल ऊर्जा उत्पादन में 64.6 प्रतिशत योग देता है,
जल विद्युत 24.6 प्रतिशत, परमाणु ऊर्जा 2.9 प्रतिशत और पवन ऊर्जा का एक
प्रतिशत योगदान रहता है। देश में उत्पादित कुल ऊर्जा की मात्रा का लगभग 23
प्रतिशत वितरण में ही नष्ट हो जाता है। हालांकि वास्तविक क्षति इससे भी अधिक है।
उत्पादित ऊर्जा का औसत टैरिफ मूल्य 2.12 प्रति किलावाट है। भारत की केन्द्र
सरकार सन् 2012 तक प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 1000 किलोवाट ऊर्जा खपत के लक्ष्य
की प्राप्ति हेतु प्रतिवर्ष ऊर्जा विकास से संबंधित बजट में वृद्धि कर रही है। इस
हेतु जहां सत्र 2006-07 में 650 करोड़ रुपये आवंटित किए थे,
वहीं सत्र 2007-08 में इसे बढा़कर 800 करोड़ कर दिया गया है। सरकार अल्ट्रा मेगा
पावर प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए प्रतिबद्ध है और इस कारण 20000 करोड़ रुपये का
प्रावधान किया गया है। इससे 4000 मेगावाट अतिरिक्त ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य
रखा गया है।
भारत अमेरिका के साथ
परमाणु समझौता कर चुका है। न्यूक्लियर ऊर्जा को गैर कार्बन उत्सर्जक मानते हुए
हम आगे बढ़ रहे है। हमें स्मरण रखना होगा कि न्यूक्लियर ऊर्जा उत्पादन हेतु
गुणवत्ता युक्त कच्चे माल की उपलब्धता पर हम हमेशा ही परावलम्बी रहेंगे।
वर्तमान में भारत में 14 रियेक्टरों के माध्यम से 2550 मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन
हो रहा है तथा 9 अन्य रियेक्टर निर्माणाधीन हैं। इन निर्माणाधीन रियेक्टरों के
द्वारा अतिरिक्त 4092 मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन होगा।
लेकिन हमें यह भी सोचना
चाहिए कि न्यूक्लियर पावर प्लाण्टसे रेडियोधर्मिता युक्त अपशिष्टों को
ठिकाने लगाना भी भारत के लिए आगे निरन्तर एक जटिल प्रश्न बना ही रहेगा। भारत की
तकनीकी विशेषज्ञता पर भरोसा भी किया जाए, फिर भी चेर्नोबिल की पुनरावृत्ति भारत में नहीं
होगी, यह कहना मुश्किल ही है। जापान में आए भूकंप और सुनामी ने
वहाँ के परमाणु रिएक्टरों की बुनियाद हिला कर दी. रेडिएशन का खतरा सर पर
है. नागरिकों को विस्थापित कर सुरक्षित ठिकानों की ओर ले जाया जा रहा है. पूरी
दुनियां इस दुर्घटना से होने वाले भयावह परिणाम के प्रति टकटकी लगाए देख रही. अभी
भी ये निश्चित नहीं हो रहा है कि कितना नुकसान होना है। निश्चित रूप से ये
दुर्घटना दुनियां को परमाणु ऊर्जा के प्रयोग पर नए सिरे से सोचने को विवश करती है.
ऐसे देश जहाँ भूकंप और सुनामी के खतरे ज्यादा हैं। वहाँ पर परमाणु ऊर्जा का विकल्प
कितना सुरक्षित होगा, ये वाकई अभी भी अनुसंधान का विषय है। अगर जापान
की बात करें तो वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियां इस बात की बिल्कुल इजाजत नहीं
देतीं कि वह किसी भी प्रकार का परमाणु रिएक्टर संचालित करे और परमाणु ऊर्जा पर
निर्भरता बढ़ाए, लेकिन ये जापान की मजबूरी है कि यदि उसे अपनी
अर्थव्यवस्था उन्नत बनाए रखनी है तो उसे परमाणु ऊर्जा का प्रयोग और भी अधिक
बढ़ाना होगा। ध्यान रहे परमाणुवीय विकिरण किसी देश की भौगोलिक सीमा का पालन नहीं
करते और किसी भी देश में होने वाला रेडिएशन पूरी दुनियां के लिए खतरा बन सकता है
जैसा अभी संकेत मिल रहा है। जापान में होने वाले रेडियोधर्मी उत्सर्जनका असर रूस
और अमेरिका को दहला रहा है एवं जापान में आए भूकंप और सुनामी ने वहाँ के परमाणु
रिएक्टरोंकी बुनियाद ही हिला कर रख दी है और विश्व समुदाय परमाणु ऊर्जा के नवीन
विकल्पों की खोज मे है।
अत: भारत को भी ऊर्जा
के अन्य विकल्पों को भी तलाशना चाहिए। जिससे यदि परमाणुवीय विकिरण की स्थिति
में अथवा भारत के परमाणु विस्फोट करने या अन्य कारणों से अमेरिका समझौते से पीछे
हट जाता है तो भारत को कोई विशेष हानि न हो सके।
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