संत रामानंद की जीवनी। Swami Ramanand History in Hindi : रामानंद का जन्म 1299 ई0 में प्रयाग में हुआ था। इनकी माता का नाम सुशीला और पिता का नाम पुण्य दमन था। इनके माता-पिता धार्मिक विचारों और संस्कारों के थे। इसलिए रामानंद के विचारों पर भी माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे पूजा-पाठ में रुचि लेने लगे थे। रामानंद कबीर के गुरु थे। रामानंद की प्रारम्भिक शिक्षा प्रयाग में हुई। रामानंद प्रखर बुद्धि के बालक थे। अतः धर्मशास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्हें काशी भेजा गया। वहीं दक्षिण भारत से आये गुरु राघवानन्द से उनकी भेंट हुई। राघवानन्द वैष्णव सम्प्रदाय में विष्वास रखते थे। उस समय वैष्णव सम्प्रदाय में अनेक रूढि़याँ थीं। लोगों में जाति-पाँति का भेद-भाव था। पूजा-उपासना में कर्मकाण्ड का जोर हो चला था। रामानन्द को यह सब अच्छा नहीं लगता था।
रामानंद का जन्म 1299 ई0 में प्रयाग में हुआ था। इनकी माता का नाम सुशीला और पिता का नाम पुण्य दमन था। इनके माता-पिता धार्मिक विचारों और संस्कारों के थे। इसलिए रामानंद के विचारों पर भी माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे पूजा-पाठ में रुचि लेने लगे थे। रामानंद कबीर के गुरु थे।
रामानंद की प्रारम्भिक शिक्षा प्रयाग में हुई। रामानंद प्रखर बुद्धि के बालक थे। अतः धर्मशास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्हें काशी भेजा गया। वहीं दक्षिण भारत से आये गुरु राघवानन्द से उनकी भेंट हुई। राघवानन्द वैष्णव सम्प्रदाय में विष्वास रखते थे। उस समय वैष्णव सम्प्रदाय में अनेक रूढि़याँ थीं। लोगों में जाति-पाँति का भेद-भाव था। पूजा-उपासना में कर्मकाण्ड का जोर हो चला था। रामानन्द को यह सब अच्छा नहीं लगता था।
गुरु से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करके रामानन्द देश भ्रमण को निकल गए और उन्होंने समाज में फैली जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि की विषमता को जाना और उसे तोड़ने का मन बना लिया। देश-भ्रमण के बाद जब रामानन्द आश्रम में वापस आये तो गुरु राघवानन्द ने उनसे कहा कि ’’तुमने दूसरी जाति के लोगों के साथ भोजन किया है। इसलिए तुम हमारे आश्रम में नहीं रह सकते।‘‘ रामानन्द को गुरु के इस व्यवहार से आघात पहुँचा और उन्होंने अपने गुरु का आश्रम त्याग दिया।
रामानन्द के मन में समाज में फैली, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, जाति-पाँति की भावना को दूर करने का दृढ संकल्प था। उनका विचार था कि यदि समाज में इस तरह की भावनाएँ रहीं तो सामाजिक विकास नहीं हो सकता। उन्होंने एक नये मार्ग और नये दर्शन की शुरुआत की, जिसे भक्ति मार्ग की संज्ञा दी गई। उन्होंने इस मार्ग को अधिक उदार और समतामूलक बनाया, और भक्ति के द्वार धनी, निर्धन, नारी-पुरुष, अछूत-ब्राह्मण सबके लिए खोल दिए। धीरे-धीरे भक्ति मार्ग का प्रचार-प्रसार इतना बढ़ गया कि डॉ0 ग्रियर्सन ने इसे बौद्ध-धर्म के आन्दोलन से बढ़कर बताया। रामानन्द के बारह प्रमुख षिष्य थे। जिनमें अनन्तानन्द, कबीर, पीपा, भावानन्द, रविदास, नरहरि, पद्मावती, धन्ना, सुरसुर आदि शामिल हैं।
रामानन्द संस्कृत के विद्वान थे और संस्कृत में उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की किन्तु उन्होेंने अपने उपदेश व विचारों को जनभाषा हिन्दी में प्रचारित-प्रसारित कराया। उनका मानना था कि हिन्दी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके माध्यम से सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।
रामानन्द के विचार एवं उपदेषों ने दो धार्मिक मतों को जन्म दिया। पहला रूढि़वादी दूसरा प्रगतिवादी। रूढि़वादी विचारधारा के लोगों ने प्राचीन परम्पराओं व विचारों में विष्वास करके अपने सिद्धान्तों व संस्कारों में परिवर्तन नहीं किया। प्रगतिवादी विचारधारा वाले लोगों ने स्वतंत्र रूप से ऐसे सिद्धान्त अपनाये जो सभी को मान्य थे। इस परिवर्तन से समाज के सभी वर्गों को समान अधिकार मिलने लगा।
रामानन्द महान संत थे, उनकी वाणी में जादू था। भक्ति में सराबोर रामानन्द ने ईष्वर भक्ति को सभी दुःखों का निदान एवं सुखमय जीवन-यापन का सबसे अच्छा मार्ग बताया है। लगभग 112 वर्ष की आयु में 1412 ई0 में रामानन्द का निधन हो गया। संत रामानन्द ‘राम’ के अनन्य भक्त और भक्ति आन्दोलन के ‘जनक’ के रूप में सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे।
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