महावीर स्वामी का जीवन परिचय। Mahavir Jain Biography in Hindi : महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्द्धमान था। उनका जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व वैशाली (उत्तरी बिहार) के अन्तर्गत कुन्डग्राम में इक्ष्वाकु कुल में एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला देवी था। वर्द्धमान बाल्यकाल से ही बुद्धिमान, सदाचारी और विचारशील थे। युवा वर्द्धमान जीवन-मरण, कर्म, संयम आदि प्रसंगों पर सदैव सोचते तथा विचार-विमर्श करते रहते थे। वर्द्धमान का मन घर पर नहीं लगता था। वह बचपन से ही अत्यन्त गम्भीर रहते थे। नाना प्रकार के सांसारिक सुख होते हुए भी उनकी आत्मा में बेचैनी थी।
महावीर स्वामी का जीवन परिचय। Mahavir Jain Biography in Hindi
नाम महावीर
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महावीर
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वास्तविक नाम
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वर्धमान
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जन्म
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599 ईसा
पूर्व
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जन्म स्थान
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कुंडलग्राम
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वंश
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इक्ष्वाकु
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माता
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त्रिशला
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पिता
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राजा सिद्धार्थ
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पत्नी का नाम
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यशोदा
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पुत्र
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प्रियदर्शन
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मोक्षप्राप्ति
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527 ईसा
पूर्व
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मोक्षप्राप्ति स्थान
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पावापुरी, जिला
नालंदा, बिहार
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अनुयायी
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बिम्बिसार, कुनिक और चेटक
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छठीं शताब्दी ईसा पूर्व तक भारत के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में नाना प्रकार की बुराइयाँ उत्पन्न हो गयी थीं। भारतीय समाज में ऊँच-नीच की भावनाओं का बोलबाला था। समाज वर्णों, जातियों और उपजातियों में विभक्त हो गया था जिससे सामाजिक जीवन में पारस्परिक भेद-भाव बढ़ता जा रहा था। समाज में नाना प्रकार के धार्मिक अन्धविश्वास और कुरीतियाँ प्रचलित थीं। प्रचलित कर्मकाण्ड तथा जातिवाद की जकड़ के प्रति लोगों के मन में पर्याप्त असन्तोष था। जन साधारण ऐसे वातावरण की घुटन से छुटकारा पाने के लिए बेचैन था। इस समस्या को उस समय के कुछ युग-पुरुषों ने समझा और अपना सुधारवादी मत लोगों के सामने रखा। इन महापुरुषों की ओर जनसमुदाय आकर्षित हुआ। कुछ समय में इन मतों ने धार्मिक आन्दोलन का रूप ले लिया। इन्हीं मतों में से एक था-जैन मत। महावीर स्वामी अपने समय में जैन मत के सर्वश्रेष्ठ प्रचारक और प्रवर्तक थे।
जीवन परिचय : महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्द्धमान था। उनका जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व वैशाली (उत्तरी बिहार) के अन्तर्गत कुन्डग्राम में इक्ष्वाकु कुल में एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला देवी था। वर्द्धमान बाल्यकाल से ही बुद्धिमान, सदाचारी और विचारशील थे। युवा वर्द्धमान जीवन-मरण, कर्म, संयम आदि प्रसंगों पर सदैव सोचते तथा विचार-विमर्श करते रहते थे। वर्द्धमान का मन घर पर नहीं लगता था। वह बचपन से ही अत्यन्त गम्भीर रहते थे। नाना प्रकार के सांसारिक सुख होते हुए भी उनकी आत्मा में बेचैनी थी। समाज में प्रचलित आडम्बर, ऊँच-नीच की भावना, चरित्र-पतन तथा जीव हत्या उनकी वेदना के मुख्य कारण थे। यज्ञ के नाम पर पशुओं की हत्या करना वर्द्धमान को असह्य था। कलिंग नरेश की कन्या 'यशोदा' से महावीर का विवाह हुआ। इसी बीच वर्द्धमान के माता-पिता का देहान्त हो गया।
माता-पिता की मृत्यु तथा गृह त्याग : इससे वर्द्धमान को अत्यन्त दुःख हुआ। सांसारिक मोह माया को त्याग कर वर्द्धमान ने अपने अग्रज नन्दिवर्द्धन की आज्ञा लेकर संन्यास ले लिया। इस समय उनकी आयु 30 वर्ष थी। वह सत्य और शान्ति की खोज में निकल पड़े। इसके लिए उन्होंने तपस्या का मार्ग अपनाया। उनका विचार था कि कठोर तपस्या से ही मन में छिपे काम, क्रोध, लोभ, मद तथा मोह को समाप्त किया जा सकता है। 12 वर्ष की कठिन तपस्या के पश्चात् उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। कठोर तपस्या के कष्टों को सफलतापूर्वक झेलने तथा इन्द्रियों को अपने वश में कर लेने के कारण वे ‘‘महावीर’’ या ‘‘जिन’’ कहलाने लगे। इन्होंने जिस धर्म का प्रचार किया वह जैन धर्म के नाम से जाना जाता है।
जैन धर्म का प्रचार : जैनियों की मान्यता के अनुसार जैन धर्म में महावीर से पूर्व 23 तीर्थंकर हुए हैं। महावीर इस धर्म के अन्तिम तीर्थंकर थे। तीर्थंकर का अर्थ है-दुःख जीतने के पवित्र मार्ग को दिखाने वाला। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महावीर स्वामी 30 वर्ष तक अपने धर्म का प्रचार बड़े उत्साह से करते रहे। वे वर्ष में आठ महीने घूम-घूम कर जन साधारण के बीच अपने मत का प्रचार किया करते थे और वर्ष के चार महीने किसी नगर में व्यतीत करते थे। धीरे-धीरे भारत के सम्पूर्ण राज्यों में जैन धर्म का प्रसार हो गया। महावीर स्वामी अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक जन-जन को दीक्षित करते रहे।
जैन धर्म के त्रिरत्न : जैन धर्म के ‘‘त्रिरत्न’’ यह हैं- सम्यक् दर्शन (सही बात पर विश्वास), सम्यक् ज्ञान (सही बात को समझाना) तथा सम्यक् चरित्र (उचित कर्म)। जैन धर्म में तीन रत्न, जिसे 'रत्नत्रय' भी कहते हैं, को 'सम्यक दर्शन' (सही दर्शन), 'सम्यक ज्ञान' और 'सम्यक चरित्र' के रूप में मान्यता प्राप्त है। इनमें से किसी का भी अन्य दो के बिना अलग से अस्तित्व नहीं हो सकता है तथा आध्यात्मिक मुक्ति या मोक्ष के लिए तीनों आवश्यक हैं। चित्रों में त्रिरत्न को अक्सर त्रिशूल से दर्शाया जाता है।
महावीर स्वामी पंचशील सिद्धांत व शिक्षाएं:
1. सत्य – महावीर जी कहते हैं कि सत्य सबसे बलवान है और हर इंसान को किसी भी परिस्थिति में सत्य का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। सदा सत्य बोलो।
2. अहिंसा – दूसरों के प्रति हिंसा की भावना नहीं रखनी चाहिए। जितना प्रेम हम खुद से करते हैं उतना ही प्रेम दूसरों से भी करें। अहिंसा का पालन करें।
3. अस्तेय – महावीर स्वामी कहते हैं कि दूसरों की चीज़ों को चुराना और दूसरों की चीज़ों की इच्छा करना महापाप है। जो मिला है उसमें संतुष्ट रहें।
4. बृह्मचर्य – महावीर जी कहते हैं कि बृह्मचर्य सबसे कठोर तपस्या है और जो पुरुष इसका पालन करते हैं वो मोक्ष की प्राप्ति करते हैं।
5. अपरिग्रह – ये दुनियां नश्वर है। चीज़ों के प्रति मोह ही आपके दुखों का कारण है। सच्चे इंसान किसी भी सांसारिक चीज़ का मोह नहीं करते।
जैन धर्म के उपदेशों का प्रभाव :
महावीर स्वामी के उपदेशों, उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों, विधानों का जन-मानस पर बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। उनके समय में उत्तरी भारत में तो इस धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु कई केन्द्रों की स्थापना भी हो गई थी। सामान्यजनों के अतिरिक्त बिम्बिसार तथा उसके पुत्र अजातशत्रु जैसे राजा भी महावीर स्वामी के उपेदशों से प्रभावित हुए।
महावीर स्वामी के उपदेश हमें जीवों पर दया करने की शिक्षा देते हैं। उन्होंने मानव समाज को एक ऐसा मार्ग बताया जो सत्य और अहिंसा पर आधारित है और जिस पर चलकर मनुष्य आज भी बिना किसी को कष्ट दिये हुए मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।
महावीर जैन की मृत्यु :
72 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी पाटलिपुत्र (पटना) के निकट पावापुरी में जाकर ध्यान में लीन हो गए और यहीं उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ।
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