शेर ए पंजाब महाराजा रणजीत सिंह की जीवनी। Maharaja ranjit singh biography in hindi : महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 1780 ई. में सुकरचकिया मिसल (जागीर) के मुखिया महासिंह के घर हुआ। अभी वह 12 वर्ष के थे कि उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। 1792 से 1797 तक की जागीर की देखभाल एक प्रतिशासक परिषद् ने की। इस परिषद् में इनकी माता, सास और दीवान लखपतराय शामिल थे। 1797 में रणजीत सिंह ने अपनी जागीर का समस्त कार्यभार स्वयं सँभाल लिया। महाराजा रणजीत सिंह ने 1801 ई0 में बैसाखी के दिन लाहौर में बाबा साहब सिंह बेदी के हाथों माथे पर तिलक लगवाकर अपने आपको एक स्वतन्त्र भारतीय शासक के रूप में प्रतिष्ठित किया। चालीस वर्ष के अपने शासनकाल में महाराजा रणजीत सिंह ने इस स्वतन्त्र राज्य की सीमाओं को और विस्तृत किया।
शेर ए पंजाब महाराजा रणजीत सिंह की जीवनी
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 1780 ई. में सुकरचकिया मिसल (जागीर) के मुखिया महासिंह के घर हुआ। अभी वह 12 वर्ष के थे कि उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। 1792 से 1797 तक की जागीर की देखभाल एक प्रतिशासक परिषद् ने की। इस परिषद् में इनकी माता, सास और दीवान लखपतराय शामिल थे। 1797 में रणजीत सिंह ने अपनी जागीर का समस्त कार्यभार स्वयं सँभाल लिया।
महाराजा रणजीत सिंह ने 1801 ई0 में बैसाखी के दिन लाहौर में बाबा साहब सिंह बेदी के हाथों माथे पर तिलक लगवाकर अपने आपको एक स्वतन्त्र भारतीय शासक के रूप में प्रतिष्ठित किया। चालीस वर्ष के अपने शासनकाल में महाराजा रणजीत सिंह ने इस स्वतन्त्र राज्य की सीमाओं को और विस्तृत किया। साथ ही साथ उसमें ऐसी शक्ति भरी कि किसी भी आक्रमणकारी की इस ओर आने की हिम्मत नहीं हुई।
महाराजा के रूप में उनका राजतिलक तो हुआ किन्तु वे राज सिंहासन पर कभी नहीं बैठे। अपने दरबारियों के साथ मसनद के सहारे जमीन पर बैठना उन्हें ज्यादा पसन्द था। इक्कीस वर्ष की उम्र में ही रणजीत सिंह ’महाराजा’ की उपाधि से विभूषित हुये। कालांतर में वे ’शेर-ए पंजाब’ के नाम से विख्यात हुए।
महाराजा रणजीत सिंह एक अनूठे शासक थे। उन्होंने कभी अपने नाम से शासन नहीं किया। वे सदैव खालसा या पंथ खालसा के नाम से शासन करते रहे। एक कुशल शासक के रूप में रणजीत सिंह अच्छी तरह जानते थे कि जब तक उनकी सेना सुशिक्षित नहीं होगी, वह शत्रुओं का मुकाबला नहीं कर सकेगी। उस समय तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अधिकार सम्पूर्ण भारत पर हो चुका था। भारतीय सैन्य पद्धति और अस्त्र-शस्त्र यूरोपीय सैन्य व्यवस्था के सम्मुख नाकारा सिद्ध हो रहे थे।
सन् 1805 में महाराजा ने भेष बदलकर लार्ड लेक के शिविर में जाकर अंग्रेजी सेना की कवायद, गणवेष और सैन्य पद्धति को देखा और अपनी सेना को उसी पद्धति से संगठित करने का निश्चय किया। प्रारम्भ मेें स्वतन्त्र ढंग से लड़ने वाले सिख सैनिकों को कवायद आदि का ढंग बड़ा हास्यास्पद लगा और उन्होंने उसका विरोध किया, पर रणजीत सिंह अपने निश्चय पर दष्ढ़ रहे।
निःसंदेह रणजीत सिंह की उपलब्धियाँ महान थीं। उन्होंने पंजाब को एक आपसी लड़ने वाले संघ के रूप में प्राप्त किया तथा एक शक्तिषाली राज्य के रूप में परिवर्तित किया। - इतिहासकार जे0 डी0 कनिंघम
रणजीत सिंह के शासनकाल में किसी को मृत्युदण्ड नहीं दिया गया, यह तथ्य अपने आप में कम आश्चर्यजनक नहीं है। उस युग में जब शक्ति के मद में चूर शासकगण बात बात में अपने विरोधियों को मौत के घाट उतार देते थे, रणजीत सिंह ने सदैव अपने विरोधियों के प्रति उदारता और दया का दृष्टिकोण रखा। जिस किसी राज्य या नवाब का राज्य जीत कर उन्होंने अपने राज्य में मिलाया उसे जीवनयापन के लिए कोई न कोई जागीर निश्चित रूप से दे दी।
एक व्यक्ति के रूप में रणजीत सिंह अपनी उदारता एवं दयालुता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। उनकी इस भावना के कारण उन्हें लाखबख्श कहा जाता था। शारीरिक दृष्टि से रणजीत सिंह उन व्यक्तियों में से नहीं थे, जिन्हें सुदर्षन नायक के रूप मेें याद किया जाय। उनका कद औसत दर्जे का था। रंग गहरा गेहुआँ था। बचपन में चेचक की बीमारी के कारण उनकी र्बाइं आँख खराब हो गई थी। चेहरे पर चेचक के गहरे दाग थे परन्तु उनका व्यक्तित्व आकर्षक था।
तत्कालीन ब्रिटिष गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक ने एक बार फकीर अजीमुद्दीन से पूछा कि महाराजा की कौन सी आँख खराब है। फकीर साहब ने उत्तर दिया- ’’ उनके चेहरे पर इतना तेज है कि मैने कभी सीधे उनके चेहरे की ओर देखा ही नहीं, इसलिए मुझे यह नहीं मालूम कि उनकी कौन सी आँख खराब है।’’
महाराजा रणजीत सिंह का 27 जून 1839 में लाहौर में देहावसान हो गया। उनके शासन के 40 वर्ष निरंतर युद्धों-संघर्षों के साथ ही साथ पंजाब के आर्थिक और सामाजिक विकास के वर्ष थे। रणजीत सिंह को कोई उत्तराधिकारी प्राप्त नहीं हुआ, यह दुर्भाग्य की बात थी। महाराजा रणजीत सिंह की कार्यशैली में अनेक ऐसे गुण थे जिन्हें वर्तमान शासन व्यवस्था में भी आदर्श के रूप में सम्मुख रखा जा सकता है।
महाराजा रणजीत सिंह से सम्बंधित जानकारियाँ
एक मुसलमान खुशनवीस ने अनेक वर्षों की साधना और श्रम से कुरान शरीफ की एक अत्यन्त सुन्दर प्रति सोने और चाँदी से बनीे स्याही से तैयार की। उस प्रति को लेकर वह पंजाब और सिंध के अनेक नवाबों के पास गया। सभी ने उसके कार्य और कला की प्रशंसा की परन्तु कोई भी उस प्रति को खरीदने के लिए तैयार न हुआ। खुशनवीस उस प्रति का जो भी मूल्य माँगता था, वह सभी को अपनी सामर्थ्य से अधिक लगता था। निराश होकर खुशनवीस लाहौर आया और महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति से मिला। सेनापति ने उसके कार्य की बड़ी प्रशंसा की परन्तु इतना अधिक मूल्य देने में उसने खुद को असमर्थ पाया। रणजीत सिंह ने भी यह बात सुनी और उस खुशनवीस को अपने पास बुलवाया। खुशनवीस ने कुरान शरीफ की वह प्रति महाराज को दिखाई। महाराजा रणजीत सिंह ने बड़े सम्मान से उसे उठाकर अपने मस्तक से लगाया और अपने वजीर को आज्ञा दी- ’’खुशनवीस को उतना धन दे दिया जाए, जितना वह चाहता है और कुरान शरीफ की इस प्रति को मेरे संग्रहालय में रख दिया जाए।’’
महाराज के इस कार्य से सभी को आश्चर्य हुआ। फकीर अजीमुद्दीन ने पूछा-’’ हुजूर, आपने इस प्रति के लिए बहुत बड़ी धनराशि दी है, परन्तु वह तो आपके किसी काम की नहीं है, क्योंकि आप सिख हैं और यह मुसलमानों की धर्मपुस्तक है।’’
महाराज ने उत्तर दिया- ’’फकीर साहब, ईश्वर की यह इच्छा है कि मैं सभी धर्मों को एक नजर से देखूँ।’’
पंजाब के लोक जीवन और लोक कथाओं में महाराजा रणजीत सिंह से सम्बन्धित अनेक कथाएँ कही व सुनी जाती हैं। इसमें से अधिकांष कहानियाँ उनकी उदारता, न्यायप्रियता और सभी धर्मों के प्रति सम्मान को लेकर प्रचलित हैं। उन्हें अपने जीवन में प्रजा का भरपूर प्यार मिला। अपने जीवन काल में ही वे अनेक लोक गाथाओं और जनश्रुतियों का केन्द्र बन गए थे।
महाराजा रणजीत सिंह ने देष की अनेक मस्जिदों की मरम्मत करवाई और मंदिरों को दान दिया। उन्होंने काषी विश्वनाथ मंदिर (वाराणसी) के कलश को 22 मन सोना देकर उसे स्वर्ण मण्डित किया और अमृतसर के हरिमंदिर पर सोना चढ़वाकर उसे स्वर्ण मंदिर में बदल दिया।
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