श्री रामचन्द्र की कथा, चरित्र चित्रण एवं जीवनी। Lord Ram Biography and History in hindi : श्री रामचन्द्र का जीवन आदर्श था। उनका व्यक्तित्व ऐसे उच्च मानवीय गुणों से सम्पन्न था कि आज भी उनका जीवन आदर्श मनुष्य बनने की प्रेरणा देने वाला अक्षय स्रोत बना हुआ है। श्री रामचन्द्र के जीवन की मुख्य घटनाएँ सर्वविदित हैं। श्री राम अयोध्या के महाराज दशरथ के सबसे बड़े पुत्र थे। श्री राम के भाई भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न उनके साथ अत्यधिक सम्मानपूर्ण व्यवहार करते थे। राम गुरुजनों की आज्ञा का पालन बड़ी तत्परता तथा लगन से करते थे। ऋषि विश्वामित्र राक्षसों के उपद्रव के कारण आश्रम में यज्ञ नहीं कर पा रहे थे। आश्रमवासियों की रक्षा और निर्विघ्न यज्ञ करने में सहायता के लिए वे राजा दशरथ के पास आये। ऋषि ने राजा से राम और लक्ष्मण को माँगा। पिता की आज्ञा मानकर राम और लक्ष्मण ऋषि के साथ आश्रम पहुँचे।
श्री रामचन्द्र का जीवन आदर्श था। उनका व्यक्तित्व ऐसे उच्च मानवीय गुणों से सम्पन्न था कि आज भी उनका जीवन आदर्श मनुष्य बनने की प्रेरणा देने वाला अक्षय स्रोत बना हुआ है।
श्री रामचन्द्र के जीवन की मुख्य घटनाएँ सर्वविदित हैं। उन घटनाओं तथा प्रसंगों से उनके चरित्र की श्रेष्ठता का पता चलता है। श्री राम अयोध्या के महाराज दशरथ के सबसे बड़े पुत्र थे। श्री राम के भाई भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न उनके साथ अत्यधिक सम्मानपूर्ण व्यवहार करते थे। भरत की माँ कैकेयी तथा लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माँ सुमित्रा का उन्हें उतना ही स्नेह मिला जितना उन्हेें अपनी माँ कौशल्या से मिला। पिता, गुरुजन तथा साधारण जनता के भी वे प्राणप्रिय थे। जनता के सभी वर्गों के साथ राम का व्यवहार बहुत ही मृदुल एवं शिष्ट था। अपने छोटे भाइयों को प्रसन्न करने के लिए वे खेल में स्वयं हारकर उनको विजयी बना देते थे।
राम गुरुजनों की आज्ञा का पालन बड़ी तत्परता तथा लगन से करते थे। ऋषि विश्वामित्र राक्षसों के उपद्रव के कारण आश्रम में यज्ञ नहीं कर पा रहे थे। आश्रमवासियों की रक्षा और निर्विघ्न यज्ञ करने में सहायता के लिए वे राजा दशरथ के पास आये। ऋषि ने राजा से राम और लक्ष्मण को माँगा। पिता की आज्ञा मानकर राम और लक्ष्मण ऋषि के साथ आश्रम पहुँचे। दोनों राजकुमारों ने अद्भुत साहस तथा शौर्य के साथ आश्रमवासियों की रक्षा की। अत्याचारी राक्षसों का दमन कर उन्होंने आश्रम और उसके आस-पास शान्ति स्थापित की।
इसी बीच विश्वामित्र को जनकपुर में राजकुमारी सीता के स्वयंवर का समाचार प्राप्त हुआ। राजा जनक ने यह शर्त रखी कि शिव के धनुष को उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ाने वाले के साथ ही सीता का विवाह किया जाएगा। राम ने धनुष को उठाने के लिये कोई उत्सुकता नहीं दिखायी। केवल अपने गुरु का आदेश पाने पर ही उन्होंने शिव-धनुष को उठाया। सीता के साथ विवाह के बाद राम अयोध्या लौटे और उनका जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होने लगा।
अब राजा दशरथ वृद्ध हो चले थे। वे राम का युवराज पद पर अभिषेक कर शासन के भार से मुक्त होना चाहते थे। उनकी इच्छानुसार अभिषेक की तैयारी होने लगी तभी दासी मन्थरा ने कैकेयी के कान भरे। मन्थरा के बहकावे में आकर कैकेयी ने राजा से दो वर माँगे जिनके लिये राजा पहले वचन दे चुके थे। इन वरों का सम्बन्ध देवासुर संग्राम की घटना से था। उसमें दशरथ ने देवों के पक्ष में असुरों के विरुद्ध युद्ध किया था। युद्ध स्थल में कैकेयी ने बड़े साहस के साथ राजा की सहायता की थी। इससे प्रसन्न होकर राजा ने कैकेयी को दो वरदान माँगने को कहा था। कैकेयी ने उस समय वरदान नहीं माँगे और भविष्य में कभी माँग लेने की बात कही थी।
अब कैकेयी ने राजा को उन्हीं वचनों का स्मरण कराते हुए दो वरदान माँगे। एक वरदान में उसने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज्य माँगा और दूसरे में राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास। राजा बहुत ही दृढ़ प्रतिज्ञ थे और प्रण के पालन के लिए वे अपने प्राण की भी चिन्ता नहीं करते थे। अपने प्रिय पुत्र राम को वनवास देने की कल्पना ही उनके लिए अत्यधिक कष्टदायक थी, फिर भी वचन के धनी राजा ने अपना प्रण निभाया। राम के वियोग में दशरथ का जीवित रह पाना कठिन था किन्तु उन्होंने प्रण नहीं छोड़ा।
राम पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर सहर्ष वन के लिए चल पड़े। उनके साथ सीता और लक्ष्मण ने भी वन की राह पकड़ी। राम की अनुपस्थिति में राजा दशरथ की मृत्यु हो गई। भाई भरत राम को मनाकर अयोध्या वापस लाने के लिए चित्रकूट गए। उस अवसर पर भी राम ने पिता की आज्ञा के पालन पर दृढ़ रहने का संकल्प दोहराया और वनवास की अवधि पूरी होने पर अयोध्या लौटने का आश्वासन दिया।
यद्यपि श्री रामचन्द्र का जन्म राजकुल में हुआ था तथापि वे समाज के साधारण व्यक्तियों के साथ बहुत ही आत्मीयता तथा सहृदयता का व्यवहार करते थे। जब वे अयोध्या से वन की ओर जा रहे थे तब नदी पार करते समय उनकी भेंट निषाद राज गुह से हुई। गुह ने भाव-विभोर होकर उनका स्वागत किया। रामचन्द्र जी ने उनके अपनेपन के भाव को सम्मान दिया और वे गले लगाकर उनसे मिले। भीलनी शबरी के आतिथ्य को भी उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। इन उदाहरणों से पता चलता है कि वे छुआछूत या ऊँच-नीच की भावना से किसी के साथ व्यवहार नहीं करते थे।
वनवास की अवधि में श्री रामचन्द्र को अनेक बार कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। जब वे पंचवटी में कुटी बनाकर रह रहे थे तब लंका के राजा रावण की बहिन शूर्पणखा वहांँ आई। रामचन्द्र जी को देखकर वह आकृष्ट हुई और उसने उनके साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। रामचन्द्र जी विवाहित थे और उनकी पत्नी सीता जी उनके साथ थी। उन्होंने शूर्पणखा के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। यद्यपि उस समय राजा लोग कई विवाह करते थे, उनके पिता दशरथ की भी कई रानियाँ थीं, रामचन्द्रजी की केवल एक पत्नी सीता थी। शूर्पणखा के हठ के कारण लक्ष्मण जी ने उसे दण्डित किया तो वह क्रुद्ध होकर रावण के पास पहुँची। रावण उसके अपमान से बहुत क्रोधित हुआ।
रावण ने छलपूर्वक सीता जी का अपहरण किया। रामचन्द्र जी ने सीताजी की खोज की। हनुमान ने लंका जाकर सीता जी का पता लगाया। रामचन्द्र जी ने अंगद को लंका भेजकर शान्तिपूर्वक सीताजी को वापस पाने का प्रयत्न किया किन्तु घमण्ड में चूर रावण ने कोई ध्यान नहीं दिया। अन्त में युद्ध की स्थिति आ पहुँची। संकट की इस स्थिति में भी रामचन्द्र जी ने अयोध्या से कोई सहायता नहीं माँगी। उन्होंने भरत को इस सम्बन्ध में कोई समाचार नहीं भेजा। किष्किन्धा के राजा सुग्रीव और अंगद, हनुमान आदि की सहायता से उन्होंने अपनी सेना तैयार की और अपने बाहुबल से रावण को युद्ध में परास्त किया। यह उनके स्वावलम्बन तथा आत्मबल का अनुपम उदाहरण है।
रामचन्द्र जी ने लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद वहाँ का राज्य रावण के भाई विभीषण को सौंप दिया। इससे पहले किष्किन्धा के राजा बालि को हराने के बाद उन्होंने वहाँ का राज्य उसके भाई सुग्रीव को साैंप दिया था। उस समय इतनी दूर के राज्यों पर सीधे नियन्त्रण रख पाना सरल कार्य नहीं था। इस दृष्टि से रामचन्द्र जी का यह निर्णय बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्ण और दूरदर्शितापूर्ण था।
सीताजी और लक्ष्मण के साथ रामचन्द्र जी अयोध्या लौटे तो जनता ने उनका हार्दिक स्वागत किया। बहुत धूम-धाम से रामचन्द्र जी का राज्याभिषेक हुआ। उनकी अनुपस्थिति में भरत ने अयोध्या के राज्य को धरोहर की तरह सुरक्षित रखा और शासन का संचालन किया। रामचन्द्र जी ने शासन की उत्तम व्यवस्था की। उन्होंने जनता की सुख-सुविधा का इतना अच्छा प्रबन्ध किया कि किसी व्यक्ति को कोई कष्ट नहीं था। सब स्वस्थ तथा सुखी थे और आनन्दपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे।
रामराज्य की महिमा का कवियों ने गुणगान किया है। यदि समाज के सभी वर्गों और व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा करने की उत्तम व्यवस्था हो जाए तो शान्ति और सुख की स्थिति आ जाती है। रामचन्द्र जी के राज्य में शासन की ऐसी ही व्यवस्था की गई थी। उत्तम भोजन, आवास तथा रहन-सहन, शिक्षा, स्वास्थ्य रक्षा, मनोरंजन आदि की सुविधाएँ सबको सुलभ थीं फलस्वरूप कोई रोगग्रस्त नहीं होता था। सब मन लगाकर अपना-अपना काम करते थे। अन्न, फल, दूध, घी आदि का पर्याप्त उत्पादन होता था, इसलिए लोगों को किसी प्रकार के अभाव का सामना नहीं करना पड़ता था। लोग आपस में मिल-जुलकर प्रेम-भाव से रहते थे।
रामचन्द्र जी के राज्य में जनता को वे सभी सुख-सुविधाएँ सुलभ थीं जिनकी आज के लोक कल्याणकारी राज्य में कामना की जाती है। इसीलिए रामराज्य लोक कल्याणकारी राज्य का पर्याय बन गया है। तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में रामराज्य का विशद वर्णन किया है। महात्मा गांधी भी रामराज्य की उत्तम व्यवस्था से बहुत प्रभावित थे। इसलिए उन्होंने भारत में रामराज्य की स्थापना का आदर्श सामने रखा और उसी के लिए जीवन भर प्रयास किया।
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