शिक्षा का उद्देश्य तथा वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर निबंध : जन्म को मानवीय रूप देने के लिए शिक्षा की जरूरत पड़ती है। शिक्षा जीने की कला सिखाती है। शिक्षा चुनाव करने की कला सिखाती है। युग्मों पर आधारित जीवन के अवसरों को शिक्षा विवेक संगत बनाती है। आधुनिक शिक्षा प्राणाली की एक कमी यह है कि यह स्मृति पर आधारित शिक्षा है। जबकि इसे बोधगम्य शिक्षा होना चाहिए। इसमें विद्यार्थी के अनुभव, उसके बेहद मामूली सवाल और उसकी कल्पानाओं को शामिल किया जाय। अधुनिक शिक्षा व्यवस्था में ‘शिक्षक’ की अवधारणा है। जबकि पहले गुरू की अवधारणा थी। गुरू का शिक्षा, व्यवसाय नहीं था। गुरू होने का एक अपना अर्थ और आनंद था।
शिक्षा का उद्देश्य तथा वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर निबंध
जन्म को मानवीय रूप देने के लिए शिक्षा की जरूरत पड़ती है। शिक्षा जीने की कला सिखाती है। यह कला विचार से पैदा होती है और विचारों के द्वारा जीवन की संगतियों और विसंगतियों की पहचान होती है। विचार से ही संतोष और असंतोष पैदा होता है।
विचार, असंतोष और संदेह जीवन की कलाएं हैं। विश्वास को केन्द्र पर रख कर भी जिया जा सकता है। लेकिन इनसे जीवन में ठहराव आ सकता है। यह जीवन को तालाब बना देगा जबकि जीवन का लक्ष्य नदी बनना है। नदी विचारों की खोज है, जो नहीं है उसे पाने की चेष्टा है। शिक्षा का उद्देश्य यही होना चाहिए।
शिक्षा चुनाव करने की कला सिखाती है। युग्मों पर आधारित जीवन के अवसरों को शिक्षा विवेक संगत बनाती है। जैसे कोई बेईमानी करने के अवसरों से वंचित है तो उसकी ईमानदारी का कोई अर्थ नहीं है। उसी प्रकार जो शिक्षा संगत विवेक नहीं पैदा करती है, वह शिक्षा सारवान तथा मूल्यवान नहीं हो सकती है।
हमारी सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था उत्तर पर निर्भर है। प्रश्न निर्भर नहीं। यह व्यवस्था उत्तर को मूल्य के रूप में स्थापित करती है। जबकि शिक्षा की बुनियादी चुनौती प्रश्न पैदा करना है। प्रश्न करने से चेतना का विकास होता है और व्यक्तित्व का रूपान्तरण होता है। जबकि उत्तर चेतना में संतोष पैदा करता है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था में डिग्रीधारी मानवी ढांचों का उत्पादन होता है, चैतन्य मनुष्य का नहीं।
आधुनिक शिक्षा प्राणाली की एक कमी यह है कि यह स्मृति पर आधारित शिक्षा है। जबकि इसे बोधगम्य शिक्षा होना चाहिए। स्मृति अतीत से सम्बन्धित है जबकि बोध [sense] भाविष्य से। स्मृति सूचनाओं का संग्रह है जो जीवन के पूर्व निर्धारित निर्णयों और निष्कर्षों पर आधारित है। जबकि बोधगम्यता शिक्षा इस चेतना से सम्बन्धित है जो अनजान और अज्ञात है। यह शिक्षा पद्धति सिर्फ पंडित बना सकती है, ज्ञानी नहीं। ज्ञान अस्तित्व के केन्द्र से फूटता है। अज्ञान और उसको प्रकट करने के आत्म संघर्ष से ज्ञान का उदय होता है।
शिक्षा व्यवस्था की एक बड़ी समस्या है-सूचनाओं का संज्ञान। शिक्षा में सूचनाओं का निषेध नहीं हो सकता। यह चाहिए कि सूचनाओं को विचार में परिवर्तित कर दिया जाय। इसको जीवंत बना दिया जाय। इसमें विद्यार्थी के अनुभव, उसके बेहद मामूली सवाल और उसकी कल्पानाओं को शामिल किया जाय।
हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था का मूल है सफलता
“पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब .............” यह विद्यार्थियों में लालच पैदा करती है। यह विद्यार्थीयों को प्रलोभन है। जबकि विद्यार्थी को यह बताना चाहिए कि “यदि पढ़ोगे तो तुम्हारे चित्त का विस्तार होगा, विकास होगा, विवेक पैदा होगा।” शिक्षा व्यवस्था को सफलता के रंगीन सपनों से निकालकर सुफल बनाने की जरूरत है।
अधुनिक शिक्षा व्यवस्था में ‘शिक्षक’ की अवधारणा है। जबकि पहले गुरू की अवधारणा थी। गुरू का शिक्षा, व्यवसाय नहीं था। गुरू होने का एक अपना अर्थ और आनंद था।
“गुरू गोविन्द दोऊ खड़े ................ ”
आज का शिक्षक व्यवसायी बन गया है। आज वह स्कूल से लेकर विश्व विद्यालय स्तर तक परीक्षार्थियों की मॉस प्रोडक्शन तथा मध्यस्थ्य की भूमिका में है। वह पहले से स्थापित सूचनाओं को विद्यार्थियों में संक्रमित कर देता है। यही कारण है कि सभी पुरानी सामाजिक बीमारियाँ, सारे पाखंड और अंधविश्वास पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती जा रही है। इस व्यवस्था में विद्यार्थी से पहले शिक्षक ही व्यक्तिहीन हो गया है। जबकि शिक्षक होना जीने और होने की सार्थकता में हैं। जिस प्रकार धर्म में अधार्मिक भर गये हैं उसी प्रकार शिक्षा व्यवस्था में गैर-शिक्षक भर गये हैं। जैसे पटना विश्व विद्यालय के एक प्रोफेसर, लखनऊ के एक नर्सिंग कॉलेज के मैनेजर और शिक्षक। अत: शिक्षक को कैसा चाहिए इस पर गाँधी जी के विचार – “जो शिक्षक पाठ्य पुस्तकों में से सीखता है वह अपने विद्यार्थियों को मौलिक विचार करने की शक्ति नहीं देता पुस्तकें जितनी कम होंगी उतने ही शिक्षक और विद्यार्थी दोनों लाभान्वित होंगे”।
इस व्यवस्था में शिक्षक की भूमिका व्यवस्था के रक्षक के रूप में है, जो शिक्षण कार्य और व्यवस्था की सबसे बड़ी बिडंबना है। शिक्षक वही ज्ञान समाज में बांटता है जो सत्ता वर्ग के द्वारा बनाया गया पाठ्यक्रम है, जो इनके हितों की रक्षा करता है। इस तरह आज शिक्षक ‘एजेंट’ मात्र रह गया है।
कोई व्यक्ति सही मायने में शिक्षक तभी हो सकता है जब इसके भीतर विचार, विद्रोह और चिंतन की आग हो। यदि ऐसा नहीं है तो वह एक व्यवसायी है।
आज शिक्षा का निजीकरण एक ज्वलंत मुद्दा है। इसकी शुरूआत औपनिवेशिक भारत में हुयी थी। अंग्रेजों ने अपनी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए तन से भारतीय किन्तु मन से ब्रिटिश नागरिक बनाने के लिए कांवेन्ट स्कूल स्थापित किये थे। आज यही भारत में ‘इंगलिश मिडियम पब्लिक स्कूल’ कहलाते हैं जहाँ भारी कैपिटेशन फीस देकर प्रवेश पाया जाता है। इन स्कूलों की उन लाखों सरकारी स्कूलों से कोई तुलना नहीं है जहाँ बच्चे टूटे-फूटे बरामदों या कमरों में पढ़ते हैं।
शिक्षा का निजीकरण सत्ता और शक्ति में साधारण की भागीदारी को असंभव बनाता है। शिक्षा यदि समाज नहीं एक वर्ग बनाता है तो यह अनर्थकारी है, यह शिक्षा के बुनियाद को ध्वस्त करेगा। यह दो नैतिकताएं पैदा करेगा एक समाज का तो एक प्रभु(सत्ता) वर्ग का।
सरकारी विद्यालय और अंग्रेजी विद्यालय में अंतर
सरकारी विद्यालय और अंग्रेजी विद्यालय में अंतर
सरकारी स्कूलों में कई प्रकार के पृष्ठभूमियों से आने वाली बच्चों में संबंध बनाने का अवसर मिलाता है। यह अवसर जीवन में विविधता का बोध पैदा करता है। इसके विपरित ऊँची कैपिटेशन फीस तथा तथाकथित योग्यता के गुणगान वाले ये स्कूल बच्चों को गरीबी, बेरोजगारी जैसे समस्याओं को सिर्फ किताबों में पढ़ाते है। यथार्थता में वे इन समस्यों से आंख मूंदना तथा निजी सुख संतुष्ट होना सिखाते हैं। अत: शिक्षा का निजीकरण शिक्षा व्यवस्था को अमानवीय और आक्रमक बना रही है।
साक्षरता की अवधारणा : साक्षरता एक आधुनिक अवधारणा है जिसका सीधा संबंध प्रचारित ज्ञान से है। यह व्यक्ति को प्रचारित साहित्य के सम्पर्क मात्र में लाती है। साक्षरता भारत में सरकारी तंत्र के माध्यम से फैलायी जा रही है सर्व शिक्षा अभियान। किन्तु इससे शिक्षा का प्रसार नहीं हो रहा हैं। साक्षर व्यक्ति शब्द तो सीख लेता है, किन्तु शब्द का भाव तथा बोध नहीं प्राप्त कर पाता है। यह बच्चों को समाज की चेतना से जोड़ने की जगह उन्हें अजनबी बना देती है। जीवन के हिस्से से बचपन गायब हो गया है। साक्षरता को शिक्षा में बदलने की चुनौती को हमारे देश के विचार को समझना होगा।
यौन शिक्षा का मुद्दा : देश में यौन शिक्षा को लेकर बहस चल पड़ी है। पांरपरिक लोगों को तर्क है कि यौन शिक्षा विद्यार्थियों के नैतिक ढ़ांचे को ध्वस्त करेगी। भारतीय समाज में नैतिकता केन्द्र यौनिक है। चरित्र की उच्चता और पतन को यौन संबंधों से परिभाषित करने की प्रथा है। यह नैतिकता के प्रति अत्यंत सतही और आरोपित दृष्टि है। लेकिन वास्तविक सवाल यह है कि क्या यौन नैतिकता की शिक्षा उसी भाषा में दिया जायेगा जिसमें यह अन्य विषय पढ़ाते आए हैं? यदि भाषा यही होगी तो इसके सकारात्मक प्रभाव संभव नहीं हैं।
यौन शिक्षा का गहरा संबंध धर्म से भी है। यौन शिक्षा धर्म आधारित शिक्षा की परिभाषा में खरोंच पैदा करती है। अत: सर्वप्रथम शिक्षा को धर्म से अलग करना होगा। तभी शिक्षा ज्ञान की सार्थक और प्राकृतिक भूमि पर स्थापित होगी। अत: जब तक समाज को शिक्षा को और शिक्षक को धर्म शासित संस्कार से मुक्त नहीं किया जाता तब तक यौन शिक्षा की धारणा विकृति ही पैदा करेंगी।
शिक्षा के संबंध में कोई चर्चा राजनीति से अलग होकर नहीं की जा सकती। किसी भी देश का राजनीतिक चरित्र ही शिक्षा व्यवस्था का स्वस्थ निर्धारण करता है। हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था में तर्क और विवेक की भाषा को जानबूझ कर दबाया गया है। इस शिक्षा से विद्यार्थी समाज और पर्यावरण से जुड़ने की बजाय दूर होता गया है। इस व्यवस्था का कारण हमारी राजनीतिक संरचना में है।
वस्तुत: शिक्षा राजनीतिक व्यवस्था का एक हिस्सा है और इसे होना भी चाहिए लेकिन आधुनिक भारत में शिक्षा को निरंतर गैर-राजनीतिक बनाने की कोशिश हुई है। जैसे शिक्षा का राजनीतिकरण।
अत: भविष्य की वैकल्पिक शिक्षा क्या हो? कैसे हो? इस मुद्दे पर विचार करने पर यह विचार आता है कि इसे कुछ इस तरह होना चाहिए:
- मनुष्य की छवि
- जीवन शैली
- समाज व्यवस्था को समझने का विवेक
उपसंहार : शिक्षा में परिवर्तन के लिए यह जरूरी है कि माँ-बाप भी अपने बच्चों के शैक्षिक जीवन में रुचि लें। बच्चों को शिक्षित करना महज स्कूल की जिम्मेदारी नहीं, परिवार का भी जिम्मेदारी है। अत: यह प्रक्रिया स्वयं को भी शिक्षित करना है। शिक्षित व्यक्ति को एक नया रूपक चुनना होगा जिसमें आदमी होना महज जानकार होना नहीं बल्कि स्वयं के अस्तित्व और अपनी सक्रियता को संभव बनाना भी होता है।
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