हिंदी निबंध - नारी सशक्तिकरण अवधारणा, गुण दोष एवं आवश्यक सुधार : नारी सशक्तिकारण अब अकादमिक बहस का मुद्दा नहीं रह गया है। संस्कृतिकवादी पुरातनपन्थी लोग समय-रथ को पीछे खीचनें का चाहे जितना प्रयास करें आज की नारी पारम्परिक सोच के दकियानूसी दायरे को तोड़कर चहुंमुखी विकास की ओर अग्रसर है। उसे एक प्रजननकारी कोख समझने की सामन्ती मानसिकता का खुलेआम समर्थन करने का साहस अब उनके शोषण करने वालों में भी नहीं है। नयी सदी में नारी प्रश्न पर एक मुक्तमयी चेतना का निर्माण हुआ है और यही चेतना नारी सशक्तिकरण के रूप में अभिव्यक्त हो रही है। निश्चय ही इसके व्यापक परिणाम हमारे सामाजिक जीवन पर पडेंगे।
हिंदी निबंध - नारी सशक्तिकरण अवधारणा, गुण दोष एवं आवश्यक सुधार
उन्नीसवीं
सदी को जहां हम मुख्यत: पुनर्जागरण के नाम से जानते हैं,
वहीं इक्कीसवीं सदी को हम महिला की सदी के नाम से जानेंगे, क्योंकि
महिलाओं की बदली स्थिति यही बता रही है। जिस सउदी अरब में महिलाओं को कार चलाने पर
पाबंदी थी वहाँ स्त्रियां विमान उड़ा रही हैं। मई 2005 में कुवैती महिलाओं को वोट
का अधिकार दिया गया है। हाल ही में हमारे यहाँ घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून बनाया
गया है। इसमें अन्य बातों के अलावा यौन प्रताड़ना और गाली-गलौज को भी हिंसा की
कोटि में रखा गया है। यद्यपि उन्नीसवीं सदी के बहुत-से मसलों की अनुगूंजें अभी तक
सुनाई देती रहती हैं। जैसा कि अभी तक बड़ी संख्या में विधवाओं का विवाह न होना या
भिन्न अवसरों पर होने वाले बाल विवाह या फिर दहेज के न मिलने पर स्त्री को सताया
जाना या फिर विदेशी दूल्हे के लालच में लड़की को बिना जांच-पड़ताल के ब्याह कर
देना। कभी-कभी किसी स्त्री के सती होने की घटना भी सुनाई दे जाती है। दहेज की
सताई गई स्त्री को न्याय नहीं मिला पाता हैं। बलात्कार से पीडि़त स्त्री को
सताने वाले भी प्राय: दंड भागीदार नहीं बन पाते हैं।
नारी
सशक्तिकारण अब अकादमिक बहस का मुद्दा नहीं रह गया है। संस्कृतिकवादी पुरातनपन्थी
लोग समय-रथ को पीछे खीचनें का चाहे जितना प्रयास करें आज की नारी पारम्परिक सोच
के दकियानूसी दायरे को तोड़कर चहुंमुखी विकास की ओर अग्रसर है। उसे एक प्रजननकारी
कोख समझने की सामन्ती मानसिकता का खुलेआम समर्थन करने का साहस अब उनके शोषण करने
वालों में भी नहीं है। नयी सदी में नारी प्रश्न पर एक मुक्तमयी चेतना का निर्माण
हुआ है और यही चेतना नारी सशक्तिकरण के रूप में अभिव्यक्त हो रही है। निश्चय
ही इसके व्यापक परिणाम हमारे सामाजिक जीवन पर पडेंगे।
नए
आन्दोलन से जुड़ी सरकारी, गैर सरकारी और अर्द्ध सरकारी संस्थाओं द्वारा नारी सशक्तिकरण का मुद्दा काफी
जोर-सोर से उठाया जा रहा है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि नारी सशक्तिकरण है क्या?
और इसका वाहक कौन हो सकता है?
नारी
सशक्तिकरण की अवधारणा को समझने के लिए नारी मुक्ति आंदोलन की ऐतिहासिक परम्परा
को समझना आवश्यक है। इसके तीन चरण स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं जिसे कल्याण,
पुनर्वास एवं सशक्तिकरण मॉडल कहा जा सकता है।
प्रथम
चरण को 18वीं सदी के मध्य तक माना जा सकता है। सैद्धान्तिक रूप से इस दौरान औसत
मर्द के मध्य गैर-बराबरी को लेकर मूलभूत प्रश्न उठाए गये और यह स्थापना की गयी
कि वर्ग और जाति के समान ही लिंग को भी समाजिक न्याय के विवेचन में एक स्वतंत्र
स्थान दिया जाना चाहिए। इस दौरान सारा जोर महिलाओं को मर्दों के समान ही समाज में
बराबर अधिकार पाने के हक पर दिया गया है। यह सब उदारवादी नागरिक अधिकारों की
वैचारिक दृष्टि के अंतर्गत था। पुरुषों के समान ही नारियों को समान कार्य के लिए
समान वेतन, चिकित्सा सुविधाओं, गर्भपात के कानूनी अधिकार आदि
के लिए समाज और राज्य की ओर से प्रयत्न किए गए। यह माना गया कि सारी दुनिया में
स्त्रियों की समस्याएं और उनके हल एक समान है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज ही
नारी शोषण का आधार है जिसका अन्त नारी पुरुष के मध्य कानूनी असमानता दूर करके ही
संभव है। इसे नारी कल्याण मॉडल कहा गया।
ईस्टर बोसेरप की पुस्तक Woman’s
Role in Economic Development को हम ‘नारी
विकास मॉडल’ का आरंभिक स्त्रोत मान सकते हैं। उसने दर्शाया
कि कार्य सम्पादन,
संसाधनों की उपलब्धता और लाभों के बटवारे में लैंगिक असमानता है। आगे के
शोध कार्यों से यह स्पष्ट हो गया कि यद्यपि दुनिया की पचास फीसदी आबादी महिलाओं
की है तथापि वे लगभग दो-तिहाई कार्य घंटो का निष्पादन करती हैं परंतु आय का दसवां
हिस्सा ही उन्हें प्राप्त होता है और वे सम्पत्ति के मात्र एक प्रतिशत की स्वामिनी
हैं। इस प्रकार की लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए नारी विकास की विशिष्ट
योजनाएं प्रारम्भ की गयीं। किन्तु इन प्रयत्नों से पता चला कि ऐसी योजनाओं से
महिलाओं को बराबरी का स्थान नहीं मिल सका। बल्कि पहले से विद्यमान सामाजिक
असमानताएं और मजबूत हुईं। कुछ विद्वान का मत था कि ऐसा विकास पूंजीवाद- पितृसत्तात्मक
मॉडल के रहते स्वाभाविक ही था। जो भी हो, इस तथ्य ने
लिंग-संवेदी विकास की नीतियों और उसे दर्शाने वाले लिंग संवेदी सूचकांक को जन्म
दिया। अब सारा जोर महिलाओं को विकास कार्यक्रमों में भागीदार बनाने पर दिया जाने
लगा, न कि सिर्फ उन्हें विकास के फायदों तक ही सीमित रखा
गया, जैसा पहले होता था। नारी की पहचान आर्थिक विकास की
एजेन्सी के रूप में हुई। इस प्रकार हम देखते हैं कि नारी विकास मॉडल भी दो चरणों
में पूरा हुआ, ‘नारी और विकास’ तथा ‘लिंग और विकास’। पहले
जहां विकास नीतियों में नारी कल्याण पर समुचित ध्यान दिया गया था वहीं दुसरें
में लिंग भेद को ही योजना का आधार बनाया गया।
नारी
विकास मॉडल की आलोचना यह कहकर की गयी है कि विकासवादी मॉडल महिलाओं के व्यावहारिक
हितों की पूर्ति के नाम पर उनके सामरिक हितों की अनदेखी कर देता है। इस मॉडल की
सबसे तीखी आलोचना यह है कि इसमें शक्ति के आयाम की अनदेखी की गयी है। ऐसी मुख्य
रूप से आर्थिक विकास को प्रधानता देने के कारण संभव हुआ है। कुछ अध्ययनों यह भी
स्पष्ट हुआ कि आर्थिक रूप से महिलाओं का उठता स्तर उन्हें आवश्यक खुशी एवं
समान सामाजिक स्तर नहीं प्रदान करता। कई स्थितियों में तो उनकी स्थिति और खराब
हो जाती है क्योंकि उन्हें परम्परागत भूमिकाओं के साथ ही नयी आर्थिक जिम्मेदारियों को भी निभाना होता हैं। इसलिए आवश्यक है कि निर्णय में इनकी भागीदारी हो। इसके लिए
उसका घरेलू एवं समुदायिक शक्ति संरचनाओं में सक्रिय रूप से भाग लेना आवश्यक है। इस तथ्य की पहचान ने ही नारी सशक्तिकरण की अवधारणा को जन्म दिया।
नारी
सशक्तिकरण या सबलीकरण अपने शाब्दिक अर्थ से ही शक्ति के आयाम की अन्य आयामों
पर प्रमुखता की ओर इंगित करता है। इसके अंतर्गत यह माना जाने लगा कि नारी सबलीकरण
की कुंजी इसे स्वयं तथा शक्ति संरचना के ऊपर नियंत्रण में छुपी है। शक्ति
संरचना पर धीरे-धीरे बढ़ते नियंत्रण के साथ की अन्य स्तरों पर लिंग
समानता-भागीदारी संसाधनों की प्राप्ति, भौतिक कल्याण आदि स्वाभिक
रूप से ही स्त्री को प्राप्त हो जाएंगी। नारी सशक्तिकरण का अर्थ घरेलू और समुदायिक
दोनों ही शक्ति संरचनाओं में नारी की शक्ति को बढ़ता है।
प्रसिद्ध
समाजशास्त्री आन्द्र बीते भी मानते हैं कि नारी सबलीकरण के पीछे मुख्य धारणा
शक्ति संबंधो के पुर्निर्धारण द्वारा समाज परिवर्तन है।
अन्थोनी गिंडिग्स ने इसे Transformative
Capacity कहा तथा कुछ समाजशास्त्रियों ने तो इसे Power Over
के स्थान पर power
to से परिभाषित करना चाहा।
जैव
विविधता सम्मेलन (पृथ्वी सम्मेलन) 1992 में सशक्तिकरण को निर्णय लेने अथवा निर्णय को
रोकने की क्ष्ामता कहा गया है।
किसी
भी दृष्टि से नारी सशक्तिकरण का यह मॉडल शक्ति केन्द्रित ही है और जो हर स्तर
पर शनै: शनै: लैंगिक असमानता का ह्यास करता है। यह नारी विकास मॉडल से अधिक व्यापक
है क्योंकि यह केवल सामाजिक कल्याण या आर्थिक बराबरी को महत्व नहीं देता अपितु
सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक
सभी पहलुओं को एक सूत्र में पिरोकर उन पर विचार करता है।
नारी
सशक्तिकरण की यह अवधारणा सबलीकरण के लिए उस आलोचनात्मक विवेक को प्राप्त करने
को प्रमुखता देती है जो शोषण, दमन और अन्याय में छिपे संरचनात्मक
पहलुओं को ठीक से पहचान सके। इस प्रक्रिया में तीन कडि़या हैं पहले में भौतिक
सुविधाएं, आहार, मृत्युदर, जनसंख्या अनुपात, शिक्षा,
वेतन, रोजगार, परिवार और समाज के
निर्णयों में भागीदारी तथा अपने श्रम, आय और जीवन पर आत्म-नियंत्रण
में लिंग भेद के कारण जो असमानताएं हैं, उनकी व्यापक चेतना
फैलायी जाए। दूसरी कड़ी, यह बोध करना है कि असमानताएं ईश्वर
प्रदत्त नहीं हैं। अत: उन्हें बदला जा सकता है। तीसरी कड़,
उपरोक्त समझ के आधार पर लिंग समानता के उद्देश्ययों को प्राप्त करने के लिए
महिलाओं को संगठित करना है।
नारी
सशक्तिकरण के लक्ष्य प्राप्ति के दो तरीके सुझाए जाते हैं। पहला है,
राज्य द्वारा कानूनी और प्राशासनिक उपायों द्वारा नारी की शक्ति का उन्नयन।
दूसरा है, महिलाओं द्वारा स्वयं संगठित होकर शक्ति प्राप्त
करना। पहले का रास्ता ऊपर से नीचे जाता है, जबकि दूसरे का
नीचे से ऊपर की ओर। सैद्धांतिक दृष्टि से दोनों भी भिन्नता होते हुए भी व्यवहारिक
स्तर पर दोनों में द्वन्द्वात्मक एकता स्वीकार करनी पड़ती है।
उपरोक्त
विवेचन से स्पष्ट है कि नारी सशक्तिकरण मॉडल नारी विकास मॉडल से कई महत्वपूर्ण बातों में काफी
भिन्न है। जहां नारी विकास मॉडल एक सामाजिक-आर्थिक परियोजना है वहीं नारी सशक्तिकरण
मुख्य रूप से एक राजनैतिक परियोजना। पहले में आर्थिक रूप से नारी के स्थान को ऊंचा करने की बात है
तो दूसरे में राजनितिक रूप से सशक्त करने पर। दोनों की माप के लिए अलग-अलग मापदंड
(सूचकांक) बनाए गए हैं- जीडीआई और जीईएम। हालांकि विश्लेषाणत्मक दृष्टि से दोनों
भिन्न हैं। किंतु तथ्यात्मक दृष्टि से दोनों जुड़े हैं।
नारी सशक्तिकरण की कमियां/सीमाएं
उदारवादी नजरिए से देखने पर जहिर होता है कि इसमें
पुरुषों की सभी स्तरों पर उपक्षा की गयी है बल्कि कई बार यह पुरुष को शत्रु के
रूप में भी चित्रित करते है । इसके कारण नारी सशक्तिकरण आंदोलन लिंग-युद्ध में बदल
जाता है जिसमें काम संबंधों की सफलता एवं पारिवारिक शक्ति की बल्कि चढ़ जाती है।
संरचनात्मक
दृष्टि से नारी सशक्तिकरण का उपरोक्त मॉडल तात्विक रूप से असंरचनात्मक,
विशिष्ट वर्ग केन्द्रित तथा मनोकेन्द्रित दिखाई देता है1 यह स्त्रियों के
आंतरिक विवेक को जगाने पर अत्यधिक बल देता है। कितुं क्या पुरुषों के विवेक को
जगाए बिना और उनकी मनोवृत्ति में परिवर्तन किए बिना लिंग संबंधों को न्यायपूर्ण
बनाया जा सकता है? शायद नहीं। यह तो आवश्यक है ही किन्तु इसके साथ आर्थिक, राजनैतिक, संरचनात्मक परिवर्तन भी जरूरी है।
मार्क्सवादियों
ने नारी सशक्तिकरण की अवधारणा पर आरोप लगाया कि यह नारी पुरुष पर आर्थिक निर्भरता
के सामाजिक पक्ष की अनदेखी करता है, जोकि सम्पत्ति संबंधों
की संरचना में अंतनिर्हित है। जब तक लिंग आधारित सम्पत्ति संबंधों को नष्ट नहीं
किया जाता, मात्र चेतना में परिवर्तन से कुछ होने वाला नहीं।
संरचनातमक
दृष्टि से एक महत्वपूर्ण आलेचना यह भी की जाती है कि नारी सशक्तिकरण मॉडल में सभी
स्त्रियों को एक ही समान कोटि के अंतर्गत रखा गया है कि जबकि यथार्थ नहीं है। स्त्रियों
के बीच व्यापक मतभेद हैं जिसे ध्यान में रखना आवश्यक है। नारी आंदोलन में मुख्यता:
शहरी, पढ़ी-लिखी, कार्यशील, उच्च/मध्यम
वर्ग की महिलाएं ही शामिल हैं।
संस्कृतिक
दृष्टिकोण से नारी सशक्तिकरण मॉडल की आलेचना यह कह कर की जाती है कि यह पश्चिम
केन्द्रित है और पूर्व के देशों, जिनमें भारत भी है, की संस्कृति के अनुकूल नहीं है क्योंकि यह लिंग संबंधों को मर्यादित
करने वाले धर्म की भूमिका की अनदेखी करता है। भारत में अनेक कुरीतियों को धर्म
मान्यता देता है और इसका पालन बढ़-चढ़कर महिलाओं द्वारा किया जाता है। स्पष्ट
है कि नारी सशक्तिकरण मॉडल में अनेक कमियां हैं। यह एक आयामी दृष्टिकोण है। इसलिए
वर्तमान अवधारणा पर पुनर्विचार की जरूरत है। चूकिं इसका ढांचा टकराव का है अत: क्यों
केवल नारी सशक्तिकरण की चर्चा की जाए, क्यों नहीं लिंग
सशक्तिकरण को लक्ष्य बनाया जाए। लिंग समानता के स्थान पर लिंग न्याय अधिक
उपयुक्त होगा। यह पुरुष यह स्त्री का ही सशक्तिकरण नहीं होगा। यह तो लिंग
संबंधों में असंतुलन को ध्यान में रखकर उसको इस तरह बदलने पर बल देती है कि उसे
सेपानी व्यवस्था के स्थान पर समतापूर्ण स्वस्था बनाया जाए।
नारी सशक्तिकरण पर सुझाव
नारी
सशक्तिकरण की बहुआयामी अवधारणा जो नारियों की सभी प्रकार की क्षमताओं को बढ़ाने
पर बल देती है, को एक राजनैतिक शक्ति केन्द्रित अवधारणा का रूप लेने की आवश्यकता है।
इसी दिशा में लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए महिलाओं में चेतना जगाने, संगठन बनाने व आंदोलन करने का अपना महत्व है। लेकिन मनोवृत्ति में
परिवर्तन के लिए अन्य उपायों की भी मदद ली जानी चाहिए। शिक्षा सामान्य रूप से
एवं स्त्री शिक्षा विशेष रूप से ऐसा ही तरीका है। विशेषकर तब जब पाठ्यक्रम लिंग
न्याय के प्रति संवेदनशील हो। एक अन्य तरीका लिंग न्याय के प्रति संवेदनशील
समाजीकरण की नीति हो सकती है। बच्चो का पालन पोषण इसी दिशा में होना चाहिए।
Ø संरचनात्मक
परिवर्तन
Ø आर्थिक
राजनीतिक परिवर्तन
Ø मनोवृत्ति
में परिवर्तन
Ø सामाजिक
मूल्यों का परिवर्तन
निष्कर्ष
अब
समय आ गया है जब हम समझें कि लिंग-न्याय का लक्ष्य पुरुषों को छोड़कर प्राप्त
नहीं किया जा सकता है। जब तक एवं पुरुष मिलकर लैंगिक संबंधों के वर्तमान-ऊंच नीच
वाले ढांचे को चुनौती नहीं देते, न्यायपूर्ण लैंगिक संबंधों की स्थापना
नहीं की जा सकती है। हो सकता है कि व्यक्तिगत स्तर पर कोई स्त्री और पुरुष आपस
में न्यायपूर्ण संबंधों की स्थापना कर लें, लेकिन आवश्यकता
उन न्यायपूर्ण संबंधों को संस्थागत स्तर पर प्राप्त करने की है। तभी नारी सशक्तिकरण
का सपना सच होगा।
COMMENTS