महिला सशक्तिकरण की परिभाषा, आवश्यकता एवं महत्व : विश्व के लगभग सभी समाजों में महिलाओं का स्तर पुरुषों के समान नहीं है। वर्तमान सामाजिक ढ़ाचे में पुरुषों को अधिक अधिकार संसाधन और निर्णय लेने की शक्ति प्राप्त है। महिलाओं को परंपरागत भूमिकाएं सौंपी गयी हैं। गांवों मे महिलाओं का कार्य खेती में अधिकांशत: बीज छीटना, पौधारोपण खाद पानी, फसल की कटाई एवं उन्हें घर लाना है, फिर भी महिलाओं को किसी श्रेणी में नहीं रखा गया है। एक समान कार्य के लिए पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को कम वेतन व कम मजदूरी दी जाती है। लगभग सभी क्षेत्रों में महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। ऐसा क्यों? अमेरिका जैसे विकसित देश में भी अभी तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बनायी गयी है। महिला सशक्तिकरण की परिभाषा : महिला सशक्तिकरण से तात्पर्य एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया से है, जिसमें महिलाओं के लिए सर्वसंपन्न और विकसित होने हेतु संभावनाओं द्वारा खुले नये विकल्प तैयार हों, भोजन, पानी घर शिक्षा, स्वास्थ्य, सुविधायें, पशुपालन, प्राक्रतिक संसाधन, बैंकिंग सुविधांए कानूनी हक और प्रतिमाओं के विकास में पर्यापत रचनात्मक अवसर प्राप्त हों। महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता : किसी भी समाज के विकास में दोनों पक्षों की भूमिका आवश्यक है अर्थात् स्त्री-पुरुषों दोनों की भागीदारी आवश्यक है, तभी किसी भी समाज में समृद्ध, सौहार्द्र और खशहाली के बीज बोये जा सकते है, अन्यथा विषम परिस्थतियों में दोनों एक-दूसरे का काम नहीं आ सकेंगे,
विश्व
के लगभग सभी समाजों में महिलाओं का स्तर पुरुषों के समान नहीं है। वर्तमान
सामाजिक ढ़ाचे में पुरुषों को अधिक अधिकार संसाधन और निर्णय लेने की शक्ति प्राप्त
है। महिलाओं को परंपरागत भूमिकाएं सौंपी गयी हैं। गांवों मे महिलाओं का कार्य खेती
में अधिकांशत: बीज छीटना, पौधारोपण खाद पानी, फसल की कटाई एवं उन्हें घर
लाना है, फिर भी महिलाओं को किसी श्रेणी में नहीं रखा गया
है। एक समान कार्य के लिए पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को कम वेतन व कम मजदूरी दी
जाती है। लगभग सभी क्षेत्रों में महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। ऐसा क्यों? अमेरिका
जैसे विकसित देश में भी अभी तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बनायी गयी है।
भारत में महिलाओं की स्थिति : महिला
सशक्तिकरण जैसे विषय को अधार बनाकर विभिन्न कालों में महिलाओं की स्थिति का
विवरण प्रस्तुत करना आवश्यक होगा, स्त्रियों के सम्बंध में
भारतीय समाज में स्त्री को सम्मानपूर्ण स्थिति प्राप्त रही है। उसको शक्ति की
साकार प्रतिमा के रूप में माना गया है। यहां लक्ष्मी सरस्वती दुर्गा की आराधना
की जाती है, वैदिक और ऋगवैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति
काफी उन्नत थी। कालान्तर में पुरुष इनके अधिकारों को छीनता गया और इनकी स्थिति
में गिरावट आती गयी। 19वीं शताब्दी में इनकी स्थिति में सुधार लाने के लिए व्यापक
प्रयास किए गए। इन प्रयासों में विभिन्न कालों में स्त्रियों की स्थिति में भिन्नता
पायी जाती रही है।
महिला सशक्तिकरण की परिभाषा : सशक्तिकरण
एक व्यापक शब्द है, जिसमें अधिकारों और शक्तियों का स्वाभाविक रूप से समावेश है, यह एक ऐसी मानसिक अवस्था है, जो कुछ विशेष आंतरिक
कुशलताओं और शैक्षणिक सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि परिस्थितियों पर निर्भर करती है। जिसके लिए समाज में आवश्यक
कानूनों सुरक्षात्मक प्रावधनों और उनके भली-भांति क्रियान्वयन हेतु सक्षम
प्रशासनिक व्यवस्था का होना है। इस प्रकार महिला सशक्तिकरण से तात्पर्य एक ऐसी
सामाजिक प्रक्रिया से है, जिसमें महिलाओं के लिए सर्वसंपन्न
और विकसित होने हेतु संभावनाओं द्वारा खुले नये विकल्प तैयार हों, भोजन, पानी घर शिक्षा, स्वास्थ्य, सुविधायें, पशुपालन, प्राक्रतिक
संसाधन, बैंकिंग सुविधांए कानूनी हक और प्रतिमाओं के विकास
में पर्यापत रचनात्मक अवसर प्राप्त हों।
महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता : किसी
भी समाज के विकास में दोनों पक्षों की भूमिका आवश्यक है अर्थात् स्त्री-पुरुषों
दोनों की भागीदारी आवश्यक है, तभी किसी भी समाज में समृद्ध, सौहार्द्र और खशहाली के बीज बोये जा सकते है, अन्यथा
विषम परिस्थतियों में दोनों एक-दूसरे का काम नहीं आ सकेंगे,
आज महिलाओं पुरुषों से किसी मायने में कम नहीं है। किसी क्षेत्र में पीछे नहीं हैं, बस इस बात की चिंता है कि उनकी भागीदारी का प्रतिशत सभी क्षेत्रों में
बहुत कम है, जबकि जनसंख्या में उनकी भागीदारी लगभग 50
प्रतिशत की है।
आज
अगर महिलाओं का विभिन्न क्षेत्रों में योगदान देखा जाय तो ऐसा लगता है,
कि महिलायें पुरुषों की अपेक्षा काफी सार्थक सिद्ध हो रही हैं। अखिर ऐसा, क्यों, ऐसा होने पर भी लड़का और लड़की में इतनी
असमानता? हमें सोचना होगा
कि क्यों एक मां लड़की के जन्म पर मातम मनाती है और लड़के के जन्म पर खुश होती
है, मिठाइयां बाँटती है। आखिर स्त्री में इतना भेद क्यों?
कहना
न होगा इसके लिए हमारा समाज उत्तरदायजी है। जिसके कारण आज महिला सशक्तिकरण जैसा
मुद्दा समाज को सोचने के लिए मजबूर कर रहा है। जबकि कारण वास्तव में महिलाओं सशक्तिकरण
जैसा मुद्दा समाज को सोचने के लिए मजबूर कर रहा है। जबकि वास्तव में महिलाओं पृथ्वी
से नभ तक अपनी प्रतिभाओं का परचम लहरा रही हैं, साहित्य जगत से लेकर
उद्योगों, कल–कारखानें, चिकित्सा, प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष, फिल्म
जगत, राजनीति, खेल, इत्यादि क्षेत्रों में उनका सराहनीय योगदान है।
महिला सशक्तिकरण और वर्तमान भारत : भारतीय
सामाजिक ढांचा समाज में पुरुष और महिलाओं की अलग-अलग भूमिकायें निर्धारित करता है।
विश्व के लगभग सभी समाजों में महिलाओं का स्तर पुरुषों के समान नहीं है। वर्तमान
सामाजिक ढांचा पुरुषों को अधिक अधिकार, संसाधन और निर्णय लेने की
शक्ति प्रदान करता है। महिलाओं को परंपरागत भूमिकाओं सौंपी गयी हैं-वे हैं माता, पत्नी बनाम गृहणी, रसोइया और बच्चों की देखभाल
करने वाली। समान शैक्षिक याग्यता और समान पद के बावजूद भी विवाह के समय किया जाने
वाला दहेज, समाज में महिलाओं की स्थिति स्वयं उजागर करता
है। इन सब बाधक तत्वों के बावजूद महिलायें अपना परचम सभी क्षेत्रों में लहरा रही
हैं, तभी पुरुष वर्ग महिलाओं को आगे आने के लिए सुअवसर
प्रदान कर रहे हैं- तभी किसी ने खूब कहा है-
“तुम हो घर-घर लगता है।
वरना इसमें डर लगता है।”
“तेरे
माथे पर ये आंचल खूब अच्छा लगता है।
अगर तू इस आचंल को परचम बना लेती। ”
समाज
के इतने बड़े भाग की उपेक्षा कर भारत प्रगति नहीं कर सकता। हमें कंधे से कंधा
मिलाकरचलना होग। अपने विचारों में बदलवा लाना होगा तभी महिलओं को मां,
पत्नी, बहन और एक बेटी का दर्जा दिलाने में हम सब उनके विश्वास
को जीत पायेंगे। अन्यथा विषय की चर्चा करना निरर्थक साबित होगा। एक मां को सोचना
होगा कि लड़का और लड़की में कोई फर्क नहीं, सभी समान हैं, हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा।
सरकारी आँकड़े : यदि
प्रत्येक 10 वर्षों में होने वाली जनगणना के आंकड़ो को आधार बनाया जाये तो वर्ष
2001 की जनगणना में लिंगनुपात प्रति हजार पुरुषों पर 933 था जो वर्ष 2011 की
जनगणना में बढ़कर 943 हुआ। 0-6 आयु वर्ग को लिंगानुपात में सकारात्मक
परिवर्तन देखने को मिले अर्थात् 2001 की जनगणना से शिशु लिंगानुपात 914 था जो 2011
की जनगणना में बढ़कर 927 हो गया। आंकड़ों में यह परिवर्तन महिलाओं की साक्षरता दर
जो 53.67 थी। वह 2011 में बढ़कर 64.6 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गयी है। परन्तु
फिर भी महिलाओं को दहेज, गर्भपात और यौन उत्पीड़न की आग में
झुलसना पड़ रहा है। आखिर पुरुष स्वयं को सर्वोच्च् सिद्ध करने में क्यों तुला
है?
आजकल
युवाओं में एक प्रवृत्ति पनपती जा रही है कि नौकरी के पश्चात शारी करेंगे लेकिन
लड़कियों के माता-पिता उन्हें ऐसा सोचने नहीं देते, लड़कियों को अपनी
जिन्दगी का फैसला करने का कोई अधिकार नहीं दिया जाता। ऐसे भेद-भाव पूर्ण व्यावहार
की नींव रखने में पिता के साथ माता की भी संलिप्तता रहती है। यह विडम्बना समाज
कहां तक सहन करेगा। एक दिन जरूर इस अंधकारमय रुपी सोच, को
प्रकाश का सामना करना पड़ेगा और उस दिन समाज उन्नति की राह पर चल पड़ेगा ।
महिला सशक्तिकरण में सरकार की भूमिका : इतने
शोषण एवं उत्पीड़न के बावजूद महिलाओं ने प्रत्येक क्षेत्र में अपनी भागीदारी
सुनिश्चित की है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 महिलाओं और पुरुषों को राजनीतिक,
आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में समान अधिकार और अवसर प्रदान करता है। अनुच्छेद
15 महिलाओं को समानता का अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 16 सभी नगरिकों को
रोजगार का समान अवसर देता है। अनुच्छेद 39 सुरक्षा तथा रोजगार का समान कार्य के
लिए समान वेतन की भी घोषणा करता है। वर्ष 2001 को महिला शक्तिकरण वर्ष घोषित कर
महिला सशक्तिकरण की नीति तैयार की गई है। फिर भी अगर देखा जाय तो केन्द्र राज्य
सकरार की और से महिला विकास कार्यक्रम चला रही हैं, जिसमें
उनके कल्याण के प्रावधान किए गए हैं। इस हेतु सरकार द्वारा महिला कल्याण के जो
प्रयास किए गए हैं उनमें बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओ योजना,
कामधेनु योजना, किशोरी बालिका योजना,
स्वस्थ स्त्री योजना, सैनेट्री मार्ट योजना, अपनी बेटी, अपना धन योजना,
पंचधारा योजना, आदि योजनाएं राज्य एवं केन्द्र सरकार
द्वारा चलायी जा रही हैं।
भारत
सरकार द्वारा वर्ष 2001, महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाने के निर्णय से इस वर्ष देश में
महिलाओं को सामाजिक, अर्थिक, राजनैतिक
दृष्टि से अधिक सशक्त बनाने का प्रयास किया जा रहा है, ये
कल्याणकारी योजनाएं महिलाओं के प्रति बढ़ रहे दुर्व्यवहार और हिंसा की घटनाओं को
कम करने में मदद करेगी।
सामाजिक,
आर्थिक और सांविधानिक सशक्तिकरण के अतिरिक्त राजनैतिक सशक्तिकरण हेतु महिला
आरक्षण विधेयक को पारित करने का प्रयास किया गया है ताकि राजनैतिक क्षेत्रों में
महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।
उपसंहार : केन्द्र
सरकार द्वारा संसद तथा विधानमण्डलों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटों पर आरक्षण
प्रदान करने हेतु वर्ष 1998 एवं 1999 में प्रस्तावित विधेयक को पास करने हेतु सभी
राजनैतिक पार्टियों में आम राय बनाने की कोशिश की गयी तथा इसको पास कराने का भरसक
प्रयास किया गया। यद्यपि तमाम अड़चनों के बावजूद यह विधेयक पारित नहीं किया जा सका,
फिर भी महिलायें पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से अपनी भूमिका को कहीं-न-कहीं
उजागर कर रही हैं।
देश
में महिलाओं को राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास में बराबरी की भागीदारी के अवसर प्रदान करने के
लिए विशेष प्रयास किया जाना आवश्यक है। इस तरह निम्न कदम उठाने की जरूरत है:
देश
में महिलाओं के लिए ऐसा वातावरण तैयार करना जिससे कि वे महसूस कर सकें कि वे
आर्थिक और सामाजिक नीतियां बनाने मे शामिल हैं। महिलाओं को मानव अधिकारों का उपयोग
करने हेतु सक्षम बनाना।
देश
में महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार तथा सामाजिक सुरक्षा में भागीदारी सुनिश्चित करना, महिलाओं के प्रति किसी तरह के भेदभाव को दूर करने के लिए समुचित कानूनी
प्रणाली सामुदायिक प्रक्रिया विकसित करना, समाज में महिलाओं
के प्रति व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए महिलाओं और पुरुषों को समाज में बराबर
की भागीदारी निभाने को बढ़ावा देना, महिलाओं और महिलाओं और बालिकाओं
के प्रति किसी भी प्रकार के अपराध के रूप में व्याप्त असमानतओं को दूर करना इत्यादि।
अन्तत: कहना होगा कि –
“कोमल है कमजोर नही तू शक्ति
का नाम ही नारी है।
जग को जीवन देने वाली मौत भी तुझसे हारी
है”
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