जनसंख्या विस्फोट की समस्या, पर्यावरण पर प्रभाव एवं राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 का लक्ष्य के समीक्षा ऐसा पूर्वानुमान है कि वर्ष 205...
जनसंख्या विस्फोट की समस्या, पर्यावरण पर प्रभाव एवं राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 का लक्ष्य के समीक्षा
ऐसा
पूर्वानुमान है कि वर्ष 2050 तक भारत चीन को पीछे छोड़कर विश्व का सबसे अधिक
जनसंख्या वाला राष्ट्र बन जाएगा। पहले से ही अधिक जनसंख्या का भार झेल रहे विश्व
में, धनी देशों को भी गरीबी की वजह से बढ़ रही जनसंख्या विस्फोट की समस्या
को जिम्मेदारी लेने के लिए कहा जा रहा है। पलायन, जन्म एंव
मृत्यु दर के कार्य ही किसी भी देश में जनसंख्या वृद्धि दर को निर्घारित करते
हैं। जन्म दर और मृत्यु दर के बीच के अंतर को ही जनसंख्या वृद्धि दर के रूप में
आंका जाता है। एक अनुमान के अनुसार,
भारत की जनसंख्या 1,270,272,105 (एक अरब सत्ताईस करोड़ के
लगभग) पहुंच चुकी है, जिसमें से 614,397,079 (करीब 61 करोड़) महिलाएं, 655,875,026 (करीब 65 करोड़) पुरुष और 104,281,034 (करीब 10
करोड़) आदिवासी हैं। उच्च जन्मदर और बेहतर सफाई व स्वास्थ्य व्यवस्था के
चलते घट रही मृत्यु दर उच्च जनसंख्या वृद्धि दर की मुख्य वजहें हैं। हालांकि
तेजी से बढ़ती जनशक्ति को समाहित करने की क्षमता काफी कमजोर है। साथ, ही अधुनिक प्रौद्योगिकी स्थिति के बीच आर्थिक विकास प्रक्रिया का झुकाव
अधिक पूंजी अर्जित करने की ओर है। अत: इस प्रक्रिया के तहत अल्प अवधि में रोजगार
सृजन की संभावनाएं काफी कम हैं। जनसंख्या का कुल आकार पहले से ही काफी बड़ा है, ऐसे में निम्न जनसंख्या वृद्धि के लिए उच्च जन्म दर से निम्न जन्म
दर के लिए तीव्र गति आधारित जनसांख्यिकी परिवर्तन की अति आवश्यकता है। भारत में
तेजी से बढ़ती जनसंख्या के बेहतर उपयोग की समस्या, ढांचागत
निर्माणों पर अधिक बोझ, भूमि एवं अन्य नवीकरणीय प्राकृतिक
संसाधनों पर दबाव, उत्पादन की बढ़ती लागत और आय का असंतुलित
तरीके से वितरण आदि समस्याएं देश के विकास में रुकावट पैदा कर रही हैं। विश्व
जनसंख्या दिवस दुनियाभर में प्रत्येक वर्ष 11 जुलाई को मनाया जाता है।
जनसंख्या एवं लिंग अनुपात
लिंग
अनुपात एक महत्वपूर्ण पैमाना है, जिसमें समाज में महिलाओं की स्थिति का
पता चलता है। भारत और चीन जैसे दक्षिण एवं पूर्ण एशियाई देशों में महिलाओं के
अधिकरों का उल्लंघन करने वाले लिंग अनुपात के कई बुरे उदाहरण सामने आए हैं। भारत
में लिंग अनुपात घटकर प्रति 1000 पुरुषों पर 928 महिलाओं के स्तर पर पहुंच गया
है। लेकिन सामाजिक, शैक्षणिक एवं अर्थिक विकास के क्षेत्र
में भी लिंग अनुपात की बुरी स्थिति होना सबसे गंभीर विषय है। जनगणना के अनुसार
बिहार, गुजरात और जम्मु-कश्मीर को
छोड़कर बाकी सभी राज्यों में लिंग अनुपात में सुधार हुआ है। दादरा एवं नागर हवेली और दमन
एवं दीव को छोड़कर बाकी सभी केंद्र शासित प्रदेशों में भी लिंग अनुपात की स्थिति
में सुधार हुआ है। उत्तर भारत के ज्यादातर इलाकों में पिछले कुछ समय में महिला
मृत्युदर काफी कम रही है लेकिन तुलनात्मक रूप से दक्षिण भारत में लिंग अनुपात
काफी उच्च स्तर पर है। लिंग अनुपात के निम्न स्तर और कन्याओं की अनदेखी के
मुख्य कारण लड़कों को प्राथमिकता दिया जाना, महिलाओं का
निम्न सामाजिक स्तर, लड़कों के साथ जुड़ी सामाजिक एवं
आर्थिक सुरक्षा, महिलाओं के खिलाफ दहेज एवं हिंसा से जुड़ी सामाजिक-सांस्कृतिक
प्रथाएं हैं। बाल लिंग अनुपात को कम करने में छोटा परिवार के नियम उत्प्रेरक
साबित हो सकते हैं।
जनसंख्या एवं पर्यावरण
संयुक्त
राष्ट्र संघ के सन् 1972 में स्टॉकहोम (संयुक्त राष्ट्र संघ 1973) में मानव
पर्यावरण विषय पर आयोजित सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया था कि पलायन एवं
राष्ट्र वृद्धि के द्वारा चुनिंदा इलाकों में हो रही जनसंख्या वृद्धि,
सुरक्षित एवं स्थिर वातावरण को बनाए रखने और गरीबी एवं पिछड़ेपन को दूर करने के
राष्ट्रों के प्रयासों को विफल कर सकती है। स्थिर आर्थिक वृद्धि, गरीबी और पर्यावरण के बीच अंतरसमूह को 1994 में आईसीपीडी में अभूतपूर्व
सर्वसम्मति के साथ रेखांकित किया गया था। पर्यावरण अवकर्षण को रोकने और प्रोत्साहित
करने वाले संसाधनों के उपयोग के क्रम में योजना एवं निर्णय प्रक्रिया और अस्थिर
उपभोग में बदलाव और उत्पादन के तरीके के संबंध में कार्यवाही कार्यक्रम एकीकृत
जनसंख्या और पर्यावरण मुद्दों की जरूरतों पर बल देता है। जनसंख्या गतिशीलता के
पर्यावरणीय संबंधों से निपटने की नीतियों को लागू करने के लिए इसका आहवान किया
जाता है। जनसंख्या वृद्धि और गरीबी प्रतिकूल रूप से पर्यावरण को प्रभावित कर रहे
हैं।
हम 21वीं सदी में हैं, तेजी से बढ़ती जनसंख्या और
प्रति व्यक्ति उपभोग का बढ़ता स्तर प्रकृतिक संसाधनों को कम करने के साथ ही
पर्यावरण का अवकर्षण भी कर रहा है। भारत में, तेजी से बढ़ती
जनसंख्या के तहत बढ़ती गरीबी और स्थानीय संसाधनों का दोहन भी शामिल है। ये वही
संसाधन हैं, जिन पर हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी की अजीविका
निर्भर करती है। जनसंख्या आकार और वृद्धि से वातावरण पर मानव की आवश्यकताओं की
पूर्ति का दबाव बढ़ेगा। चिंता का विषय यह है कि जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ेगी, वैसे-वैसे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव भी बढ़ेगा।
राष्ट्रीय
जनसंख्या नीति, 2000 का लक्ष्य
राष्ट्रीय
जनसंख्या नीति 15 फरवरी, 2000 को गर्भनिरोध, स्वस्थ्य देखभाल अवसंरचना, स्वास्थ्यकर्मी और समेकित सेवा सुपुर्दगी को पूरा करने की आवश्यकता
के उद्देश्य से शुरू किया गया था। इस नीति का मध्यावधि उद्देश्य अंत:क्षेत्रीय
रणनीतियों के कार्यन्वयन द्वारा कुल प्रजनन कर को प्रतिस्थापन स्तर-एक परिवार
में दों बच्चों पर लाने का था। इस योजना का दीर्घावधि उद्देश्य 2045 तक जनसंख्या
में स्थिरता लाना है। इस योजना में 16 प्रेरणादायक उपायों को चिन्हित किया गया है, जिन्हें प्रभावशाली तरीके से लागू किया जाएगा। इनमे से महत्वपूर्ण हैं-
छोटे परिवार के आदर्श को बढ़ावा देने के लिए पंचायतों और जिला परिषदों को पुरस्कार,बाल विवाह रोकथाम अधिनियम और जन्म से पूर्व रोग निदान प्रविधि अधिनियम को
सख्त रूप से लागू करना, गरीबी रेखा से नीचे वाले दंपत्तियों
के लिए 5,000 रुपए का स्वास्थ्य बीमा। यह स्वास्थ्य
बीमा नसबंदी करवाने वाले गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले उन दंपत्तियों को प्रदान
किया जाता है, जिनके दो बच्चो हैं। इसक अलावा इस बीमा में
उन बीपीएल दंपत्तियों को भी शामिल किया जाता है जिन्होंने कानूनी उम्र के बाद
विवाह किया हो और उनके पहले बच्चे का जन्म मां की उम्र 21 वर्ष होने के बाद हुआ
हो और दो बच्चों के जन्म बाद नसबंदी कराकर छोटे परिवार के आदर्श को स्वीकार
किया हो।
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग
राष्ट्रीय
जनसंख्या आयोग का गठन मई 2000 में किया गया था। इस आयोग के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष
क्रमश: प्रधानमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष होते हैं। इसके अलावा सभी राज्यों
के मुख्यमंत्री, संबंधित केन्द्रीय मंत्रालयों के मंत्री, संबंधित
विभागों के सचिव, प्रतिष्ठित चिकित्सक, जनसांख्यिक नीति में निर्धारित सोसाइटी के प्रतिनीधि आयोग के सदस्य होते
हैं। इस आयोग का उद्देश्य जनसंख्या नीति में निर्धारित किए गए लक्ष्यों को
प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के कार्यान्वयन की समीक्षा और
निगरानी करना तथा निर्देश देना, स्वस्थ्य शैक्षिक परिवेश
और जनसंख्या स्थिरता की गति को तेज करने के लिए विकासात्मक कार्यक्रमों के बीच
तालमेल स्थापित करना, केन्द्र और राज्यों में विभिन्न
क्षेत्रों और एजेंसियों के माध्यम से कार्यक्रमों की योजना और कार्यक्रम में
अंत:क्षेत्रीय समन्वय को प्रोत्साहित करना और इस राष्ट्रीय प्रयास में योगदान के
लिए विभिन्न कार्यक्रम विकसित करना है। जुलाई 2000 में राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग
के अधीन राष्ट्रीय जनसंख्या निधि का गठन किया गया था। इसके परिणामस्वरूप इस
निधि को अप्रैल 2002में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग को हस्तांतरित कर
दिया गया।
जनसंख्या और खाद्य सुरक्षा
राष्ट्रीय
खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 (खाद्य अधिकार अधिनियम) भारत का अधिनियम है जिसका लक्ष्य भारत की
1.2 बिलियन जनसंख्या के दो-तिहाई लोगों को रियायती दरों पर खाद्य अनाज उपलब्ध
कराना है। इस विधेयक के प्रावधनों के अंतर्गत प्रत्येक पात्र लाभार्थी 5
किलाग्राम प्रति माह प्रति व्यक्ति की दर से 3 रुपये किलो और मोटा अनाज 1 रुपए
प्रति किलों की दर से खरीद सकता है। प्रत्येक राज्य को संतुलित खाद्य उत्पादन
और संतुलित जीवन सुरक्षा के मार्ग को सुनिश्चित करने के लिए अपनी-अपनी रणनीतियां
तैयार करनी होंगी। इसके लिए अच्छी नीतियां और प्रकृतिक संसाधनों जैसे भूमि और जल, जीव-जंतु, पेड़-पौधों तथा जंगल और उत्पादन को
तीव्र करने के लिए जैव-विविधता बहुत आवश्यक होती है। इस संदर्भ में जनसंख्या
दबाव और जलवायु परिवर्तनों का भी ध्यान रखना चाहिए। खाद्य सुरक्षा के तीन घटक हैं
प्रथम घटक खाद्य उपलब्धता है, जो कि खाद्य उत्पादन और
आयातों पर निभर्र होता है। दूसरा घटक खाद्य पर पहुंच है जो कि खरीदने की शक्ति पर
निर्भर होता है। तीसरा घटक खाद्य अवशोषण है जो कि सरक्षित पेय जल, परिवेशीय जीवों, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल और
शिक्षा पर निर्भर होते हैं।
विलंबित मानसून के लिए उपाय
विलंबित
मानसून से निपटने के लिए विभिन्न उपाय किए गए हैं। ठोस उत्पादन और भंडारण योजना,
वैकल्पिक फसलों की बुआई और किस्में जिनमें विलंबित मानसून के दौरान भी से बोया जा
सकता है, इन उपायों में शामिल हैं। आरंभिक फसलों/प्रकारों के
प्रजनन बीजों की उपलब्धता सुनिश्चित करना, गांव स्तरीय बीज
बैंक (फसल और चारा), सूखा और बाढ़ के प्रभावक्षक फसलों का
उपयोग, पोषक तत्व प्रबंधन तंत्र की उपलब्धता, खंड स्तर पर किसानों के बीच लचीली कृषि-विज्ञान संबंधी प्रथाओं के बारें
में जागरूकता उत्पन्न करके मोटे अनाजों, रुई आदि की बुआई, अधिक वर्षा की स्थ्िति में उचित जल निकासी के लिए कुछ महत्पूर्ण उपाय
हैं, जिससे सूखे या विलंबित मानसून के प्रभाव को कम किया जा
सकता है।
जनसंख्या और स्वास्थ्य देखभाल
उद्योगों
की रिपोर्ट के अनुसार, स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र 2020 तक 280 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने
के लिए 19 प्रतिशत की वार्षिक दर से वृद्धि कर रहा है। भारत स्वास्थ्य देखभाल
के लिए विश्व स्तरीय स्थान बनकर उभरा है। पिछले दशक के दौरान निजी क्षेत्र ने
सबसे अधिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की हैं। अस्पतालों में निजी क्षेत्र का
बेडों में शेयर 2002 के 49 प्रतिशत से बढ़कर 2010 में 63 प्रतिशत हो गया है। भारत
सरकार ने भी कई सुधार किए हैं। 11वीं और 12वीं पंचवर्षीय योजनाओं तथा मिलेनियम
विकास के लाभों पर अंतर्राष्ट्रीय ध्यान के कारण भारत की प्राथमिक स्वास्थ्य
क्षेत्र मे सफलता प्राप्त हुई है। मातृ एवं शिशु स्वास्थ,
संक्रामक रोग आदि प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का हिस्सा हैं। राष्ट्रीय
ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन न स्वास्थ्य सेवा तंत्र में निपुणता और दक्षता
प्राप्त की है। दूसरी ओर राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ने स्वास्थ्य
सेवा तंत्र में निपुणता और दक्षता प्राप्त की है। दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वास्थ्य
बीमा योजना-राष्ट्रीय सामाजिक स्वास्थ्य बीमा योजना है। इसका लक्ष्य रोगी
उपचार, गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल का निर्माण करना और
गरीबों को निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ प्रदान करना है। उच्च
शिक्षा स्तर पर सार्वजनिक चिकित्सा महाविद्यालयों का एक स्वायत्त समूह है अखिल
भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), दिल्ली एम्स (1956 में स्थापित) के अलावा देशभर
में भोपाल, भुवनेश्वर, जोधपुर, पटना और रायपुर समेत कुल 6 एम्स हैं।
राष्ट्रीय
स्वास्थ्य नीति का निर्माण 2002 में केन्द्र सरकार ने किया था। अपने सामाजिक
दायित्व के तहत सरकार ने जनसंख्या को उच्च स्तरीय स्वास्थ्य सेवाएं देने के
लिए अनेक प्रमुख नीतियों को मंजूरी दी है। समय-समय पर स्वास्थ्य संबंधित
दिशा-निर्देशों को समाहित करके सरकार ने वर्ष 1983 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य
नीति बनाई। इस नीति की घोषणा के बाद 80 के दशक में प्राथमिक चिकित्सा का कुछ विस्तार
किया गया। वर्ष 2002 राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति और वृहत स्वास्थ्य एवं विकास
आर्थिक आयोग की रिपोर्ट में निम्नलिखित बातों पर जोर दिया गया (जन-स्वास्थ्य
पर कुल व्यय सकल घरेलू उत्पाद का 2 से बढ़ाकर 3 फीसदी करने को कहा।) महिलाओं एवं
बच्चों के स्वास्थ्य के लिए दी जा रही सुविधाओं पर बिना कटौती किए स्वास्थ्य
सेवाओं की बढ़ती कीमतों पर अंकुश रखने के लिए सामाजिक सुरक्षा में सार्वजनिक
क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने को जरूरी बताया। ग्रामीण आबादी,
विशेष तौर पर कमजोर वर्गों को गुणात्मक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए
12 अप्रैल, 2005 को राष्ट्रीय मिशन
(एनयूएचएम) की शूरूआत राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के सहयोगी कार्यक्रम
के तौर पर की गई। इसका उद्देश्य शहरी गरीबों की स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं की
आवश्यक जरूरतों को पूरा करना है।
जनसंख्या और रोजगार
विश्व
बैंक के एक अनुमान के अनुसार भारत विश्व के कुछ ऐसे देशों में शामिल है,
जहां न काम करने वालों की अपेक्षा काम करने वालों की संख्या अधिक है। भारत का
श्रम एवं रोजगार मंत्रलय देश में बेरोजगारों का रिकार्ड रखता है। लेबर ब्यूरों
शिमा की ‘वार्षिक रोजगार एवं बेरोजगार सर्वेंक्षण रिपोर्ट
2012-13’ के अनुसार वर्ष 2012-13 में भारत में बेरोजगारी की
दरें निम्नलिखित रही
Ø सर्वाधिक
बेरोजगारी दर वाला राज्य : केरल
(10.1%)
Ø समग्र
बेरोजगारी दर : 4.7%
Ø ग्रमीण
क्षेत्र में बेरोजगारी दर : 4.4%
Ø शहरी
क्षेत्रों में बेरोजगारी दर : 5.7%
Ø सर्वाधिक
बेरोजगारी व्यक्ति वाला राज्य : सिक्किम
Ø सबसे कम
बेरोजगारी व्यक्ति वाला राज्य : छत्तीसगढ़
जनसंख्या और गरीबी उन्मूलन
इन
न्यूनतम सेवाओं में अन्य बातों के अलावा साक्षरता, शिक्षा, प्राथमिक शिक्षा देखभाल, सुरक्षित पेयजल और पोषण
सुरक्षा शामिल हैं। सरकार ने मूलभूत न्यूनतम सेवाओं की पहचान करने के लिए मुख्यमंत्रियों
की बैठक बुलाई थी जिसमें सर्वसम्मति से सात सेवाओं की सूची पर सहमति हुई। ये सात
सेवांए हैं पेयजल, प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं, सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा, स्कूल और पूर्व-स्कूली
बच्चों के लिए पोषण, गरीबों के लिए मकान सभी गांव व बस्तियों
को सड़कों से जोड़ना और गरीबों पर केंद्रित सार्वजनिक वितरण प्रणाली।
सातवीं योजना
में इन सात मूलभूत न्यूनतम सेवाओं पर विशेष जोर दिया गया और राज्य सरकारों तथा
पंचायती राज संस्थानों, (पीआरआई) के साथ भागीदारी में
संतुष्टि के न्यूनतम स्तर को प्राप्त करने के लिए सभी प्रयास किए जाएंगे। समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम (अईआरडीपी) का उद्देश्य उत्पादक परिसंपत्तियों के
अधिग्रहण या गांव के गरीबों को लगातार अतिरिक्त आय जुटाने के लिए उचित कौशल
प्रदान करने के माध्यम से स्वरोजगार उपलब्ध कराना है ताकि उन्हें गरीबी की
रेखा से ऊपर उठने के योग्य बनाया जा सके। भारत में गरीबी नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय
वृद्धावस्था पेंशन योजना (एनओएपीएस) राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना (एनएफबीएस), राष्ट्रीय मतृत्व लाभ योजना अन्नपूर्णा, समेकित
ग्रामीण विकास कार्यक्रम, ग्रामीण आवास इन्दिरा आवास योजना
(आईवाई 1985 में शुरू), महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण
रोजगार गांरटी अधिनियम (मनरेगा) जैसे अन्य कार्यक्रम भी
शुरू किए गए थे।
अधिक
उत्पादन देने वाले बीजों की किस्मों की उपलब्धता और रासायनिक खादों और सिंचाई
के उपयोग में बढ़ोतरी को सामूहिक रूप से हरित क्रांति के रूप में जाना जाता है,
जिससे भारत को खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिए आवश्यक उत्पादन
वृद्धि अर्जित की गई, जिससे देश की कृषि में सुधार हुआ।
गरीबी
रेखा का निर्धारण
तेंदुलकर
समिति का रिपोर्ट के अनुसार देश में हर तीसरा व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे रहता
है। रिपोर्ट में गरीबी की गणना के लिए कैलोरी के उपयोग की उपेक्षा वस्तुओं और
सेवाओं को पैमाने के रूप में लिया गया है। गरीबी रेखा खीचनें की नई विधि से देश
में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है। ऐसी
जनसंख्या 27.5 प्रतिशत से बढ़कर 37.2 प्रतिशत हो गई है। इस प्रकार 2004-05 में
गरीबी रेखामें 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। अर्थशास्त्री सुरेश तेंदुरलकर के
नेतृत्व में इस समिति ने गरीबी का मूल्यांकन करने के लिए नया फार्मूला तैयार कियाहै।
यह रिपोर्ट योजना आयोग को सौंपी गई है। डांडेकर-रथ गरीबी रेखा फार्मूला 1971 से
प्रयोग किया जा रहा है जिसमें किसी भारतीय की खुराक में कैलोरी तत्व का ही आकलन
किया जाता है। अगर किसी व्यक्ति की प्रतिदिन की खुराक में 2250 कैलोरी से कम
ऊर्जा है तो उस व्यक्ति को गरीबी रेखा नीचे घोषित किया जा सकता है। इस मानदंड
में 35 वर्षों से कोई संशोधन नहीं हुआ है। तेंदुलकर समिति ने कैलोरी के मापन की
विधि को हटाकर जीवन सूचकांक लागत का उपयोग किया है इसका तात्पर्य है कि कोई मनुष्य
कितना धन खर्च करता है। इसमें गृहस्थी की वस्तुओं और स्वास्थ्य और शिक्षा
जैसी सुविधाओं पर नजर रखी गई है। नई गरीबी रेखा विभिन्न राज्यों के लिए अलग-अलग
है यहां तक कि एक ही राज्य में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए भी अलग-अलग
गरीबी रेखाएं है। अखिल भारतीय औसत ग्रामीण गरीबी रेखा 446.68 रुपये तथा राष्ट्रीय
शहरी गरीबी रेखा 578.8 रुपये प्रतिमाह खर्च पर निर्धारित की गई है। गोवा की
ग्रामीण गरीबी रेखा सबसे अधिक 608.76 प्रतिमाह है जबकि दिल्ली की 541 रुपय। स्वास्थ्य
एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या निधि (यूएनएफपीए) के
सहयोग से पीएनडीटी एक्ट के बारे में बार-बार पूछे जाने वाले प्रश्नों को विकसित
किया है, जो लोगों के लिए बहुत लाभदायक होंगे। इनसे जनसंख्या को स्थिर रखने में
मदद मिलेगी। प्रजनन स्वास्थ्य, मातृ स्वास्थ्य, बाल स्वास्थ्य, किशोर स्वास्थ्य इंफर्टिलिटी, गर्भनिरोधी परिवार नियोजन के बारे में राष्ट्रीय हेल्प लाइन सेवा का
उद्देश्य शादी करने वाले किशोरों और नये शादीशुदा युग्लों तक पहुंच बनाना है जो
ऊपर लिखे गए मुद्दों के बारे में आसानी से विश्वसनीय जानकारी प्राप्त नहीं कर
सकते हैं।
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