भारत में नक्सलवाद पर निबंध व लेख। Essay on Naxalism in Hindi : वर्तमान में नक्सलियों का प्रभाव पशुपति (नेपाल) से तिरूपति (आन्ध्र प्रदेश) तक हो चुका है। धनबल में भी वे काफी मजबूत हो चुके हैं। देश के लगभग 40 प्रतिशत भू-भाग (20 राज्यों के 223 जिलों) पर उनका समानान्तर राज चलता है। एक अनुमान के अनुसार अकेले छत्तीसगढ़ में 20 हजार सशस्त्र नक्सली हैं। देश भर में इनकी संख्या एक से डेढ़ लाख मानी जाती है। इनका सालाना टर्न ओवर 1500 करोड़ रुपये से अधिक का है। नक्सली झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के व्यवसासियों पर कई तरह के कर लगाकर अपने धन बल को मजबूत करते हैं।
भारत में नक्सलवाद पर निबंध व लेख। Essay on Naxalism in Hindi
वर्तमान में नक्सलियों का प्रभाव पशुपति (नेपाल) से तिरूपति (आन्ध्र प्रदेश) तक हो चुका है। धनबल में भी वे काफी मजबूत हो चुके हैं। देश के लगभग 40 प्रतिशत भू-भाग (20 राज्यों के 223 जिलों) पर उनका समानान्तर राज चलता है। एक अनुमान के अनुसार अकेले छत्तीसगढ़ में 20 हजार सशस्त्र नक्सली हैं। देश भर में इनकी संख्या एक से डेढ़ लाख मानी जाती है। इनका सालाना टर्न ओवर 1500 करोड़ रुपये से अधिक का है। नक्सली झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के व्यवसासियों पर कई तरह के कर लगाकर अपने धन बल को मजबूत करते हैं।
अब नक्सलियों के पास अत्याधुनिक हथियारों का जखीरा मौजूदा है। इनके खौफनाक चेहरे का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2008 में 1591 नक्सल हमले हुए जिसमें 721 लोगों की मृत्यु हो गई। इस वर्ष के अगस्त महीने तक देश में 1405 वारदातें हो चुकी हैं, जिसमें 580 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। इन हमलों का मुकाबला करते हुए जहां 2008 में हमारे 231 सुरक्षा बल शहीद हुए। वहीं इस साल अगस्त के महीने तक 270 सुरक्षा बलों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी थी। आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम् बंदरगाह से उड़ीसा के मलकानगिरी तथा कोरापुट के घने इलाकों से होते हुए छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले तक उन आतंकियों ने एक लाल-गलियारा बना लिया है। जिनसे उनके हथियार तथा साजो-सामान विशाखापत्तनम बंदरगाह पर उतरकार सीधे दंतेवाड़ा तक पहुंच जाते हैं। कई इलाकों में नक्सली नकद की जगह व्यापारियों से हथियार तथा इलेक्ट्रानिक उपकरणों के सहारे सरकार के निगरानी योजनाओं तथा सप्लाई लाइन को ध्वस्त करते हैं। उनके पास से ऐसे बुलडोजर बरामद हुए हैं, जो सरकार द्वारा निर्मित सड़क मार्गों को खोदकर तथा सार्वजनिक भवनों को गिराकर अपने प्रभाव वाले क्षेत्र को दुर्गम बना देते हैं। गांवों में प्रभाव के बाद अब वह शहरों में अपना प्रभाव जमाने के लिए तत्पर दिखते हैं। नक्सलवादियों के अनुसार माओ की भी यही विचारधारा थी कि शहरों में प्रभाव अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। अभी दिल्ली में पकड़े गए कोबाड गांधी ने कहा कि हमारा लक्ष्य काठमांडू से दिल्ली तक अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करना है। आज हमारे शहरों की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या मलिन बस्तियों में रहती है। जो नक्सलवादियों के लिए उर्वर जमीन को तैयार करती है।
गढ़चिरौली तथा लालगढ़ की नक्सली घटनाओं ने नक्सलवाद पर पुन: नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है। प्रधानमंत्री ने स्वयं उस आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया। गृहमंत्री के अनुसार नक्सलवाद मिटाने के लिए सही रणनीति पर काम होना चाहिए। बिना गरीबी व भ्रष्टाचार समाप्त किए तथा सुशासन सुनिश्चित किए बिना नक्सलवाद को समाप्त नहीं किया जा सकता। सरकार ने गृह मंत्रालय के साथ सेना को संयुक्त कर नक्सलवाद को जड़ से समाप्त करने के लिए ‘ऑपरेशन नक्सल ऑल आउट’ नामक एक विशेष रणनीति बनाई है।
इस रणनीति के अनुसार प्रभावित राज्यों में प्रथम चरण की कार्यवाही राज्य पुलिस तथा अर्द्ध-सैनिक बल करेंगे। दुसरे स्तर पर बीएसएफ-आईटीबीएफ कार्य करेगी। तीसरे स्तर पर आसमानी सुरक्षा, खोज तथा आपात स्थिति में बचाव कार्य की जिम्मेदारी वायुसेना पर होगी। आवश्यकता होने पर इसे गोलीबारी की भी इजाजत होगी। चौथे तथा अंतिम स्तर पर राज्य तथा केंद्र सरकार मिलकर प्रभावित क्षेंत्रों में विकास कार्य को गति देंगी। यह ऑपरेशन अलग-अलग स्तरों पर या एकसाथ भी चलाया जा सकता है। केंद्र सरकार विधानसभा चुनावों के सम्पन्न होने के बाद कभी भी इस ऑपरेशन को प्रारंभ कर सकती है।
सबसे बड़ी बात यह है कि योजनाएं तथा इनकी नियत हमेशा से ही सही रहती है परंतु समस्या उस मशीनरी की है, जिसमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत समस्याएं समाप्त कर सुशासन का सुनिश्चित किया जाता है। इन्ही सुशासन की अनुषंगी संस्थाओं में रिसाव ही किसी समस्या को हल करने में असफल रहती है तथा साथ ही नई समस्याओं को उत्पन्न भी करती हैा। देश की स्वतंत्रता के बाद हमने सुशासन के लिए लोकतंत्र को पूर्व शर्त मानी थी। वर्तमान में हमारे सुशासन के हथियार नौकरशाही, पुलिस व्यवस्था, न्यायपालिका इत्यादि की स्थिति क्या है? इस पर भी हम दृष्टिपात करते हैं।
उपनिवेशकालीन भारतीय नौकरशाही कार्नवालिस की मानसिक उपज थी। सरकार के प्रति समर्पण तथा स्वामिभक्ति से हमारे प्रथम गृहमंत्री इतने प्रसन्न थे कि इसे यथारूप रहने दिया। उन्होंने यह माना कि देश की स्वतंत्रता के बाद यह अपने देश के हित में कार्य करेंगे। सरदार पटेल के निर्देशन के बाद किसी ने भी इन पर समुचित ध्यान नहीं दिया, जिसमें कोई सुधार हो सके। फलत: भारतीय नौकरशाही आज एशिया की सबसे खराब तथा भ्रष्ट नौकरशाही में बदल चुकी है। कमोबेश यही स्थिति हमारी पुलिस व्यवस्था के साथ भी है। 1861 में अंग्रेजों द्वारा किए गए पुलिस सुधार के बाद आज तक किसी भी सुधार की आवश्यकता ही नहीं समझी गई। पता नहीं यह पुलिस की कार्यकुशलता है या हमारी अकर्मण्यता, परन्तु 21वीं सदी के साइबर अपराध के शमन के लिए 1861 के पुलिस सुधार वाली व्यवस्था ही उपलब्ध है। जिसका पारिणाम यह है कि कानून तथा व्यवस्था को स्थापित करने वाली ये दोनों व्यवस्थांए आज आम आदमी को अपने विश्वास में नहीं ले पाई हैं। उच्चतम न्यायालय के बार-बार द्वारा निर्देश देने के बाद भी आज तक प्राशासनिक सुधारो को लागू तक नहीं किया जा सका है। रही बात न्यायालय की, तो इसके लिए जितना भी कहा जाए उतना ही कम है। कहा जाता है कि न्यायपालिका जनता की ओर से न्याय करती है। जिसकी ओर देश का आम व्यक्ति कर्तव्य वहन की आशा भरी निगाह से देखता है। संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रत्येक नागरिक को त्वरित न्याय पाने का अधिकार तो दे दिया गया है परंतु यह आज तक व्यवहार में नहीं आ पाया है। आज आम व्यक्ति को न्याय पाने में कई पीढि़या लग जाती हैं। कहा भी जाता है कि देर का न्याय तो अपने-आपमें ही अन्याय है। हमारे देश में शीर्ष न्यायालयके न्यायाधीशों को न्यायमूर्ति कहते हैं। उच्च्तम न्यायालय की मुख्य पीठ भले ही दिल्ली में स्थित हो परन्तु इसका मुख्य न्यायाधीश जहां बैठ जाता है वहीं उच्चतम न्यायालय मान लिया जाता है। परंतु आज अन्याय के पैमाने भरने के बाद देश में आंतरिक सुरक्षा के लिस खतरे उत्पन्न हो गए हैं फिर भी किसी न्यायमूर्ति ने आज तक पिछड़े इलाके में सांकेतिक रूप से भी बैठने की जहमत नहीं उठाई है। आदवासियों को प्रतिनिधित्व मिलेगा, जिसमें उनमें राजनैतिक चेतना तथा सशक्तीकरण का विकास होगा। परन्तु हाल ही में झारखंड के एक पूर्व आदिवासी मुख्यमंत्री तथा उनके मंत्रिपरिषद के सदस्यों के बारे में जिस प्रकार से पता चला है कि दक्षिण एशिया के देशों में गैर-कानूनी रूप से काले धन को लगाया है इससे यह मिथक भी टूटता प्रतीत होता है कि किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व बढ़ने से उस वर्ग का हमेशा विकास ही होता है।
चाहे नक्सली ऑपरेशन हो या नक्सलविरोधी अभियान, इन दोनों के मध्य अगर सबसे ज्यादा पीडि़त कोई है तो वह है आदिवासी। नक्सलबाड़ी तो एक स्वत: स्फूर्त घटना थी जिसमें शोषित किसानों के वर्ग से कुछ वामपंथी विचारधारा वाले उग्रवाली मिल गए तभी से यह समस्या प्रारंभ हो गई। ज्ञातव्य है कि वामपंथ में राष्ट्रीय हित का कोई स्थान नहीं होता है परन्तु ऐसा भी नहीं कि यह अन्तर्राष्ट्रवाद में विश्वास रखते हैं। वर्तमान में तो यह केवल कुत्सित लक्ष्यों की पुर्ति करना अपना उद्देश्य समझते हैं। साठ के दशकों में काई भी असंतोष होता था तो जमींदारों का सर कलम कर विरेध दर्ज कराया जाता था। शायद ही पुलिस को कभी भी निशाना बनाया गया हो। परन्तु आज उग्र नक्सली वर्ग के ऊपर तालिबानी मानसिकता हावी होती जा रही है। निरीह बच्चों के साथ, स्कूलों के वाहनों, स्कूल तथा सामुदायिक भवनों को विस्फोट से उड़ा देना, विकास के कार्यों को न होने देना। यह सब उनकी राष्ट्र विरोधी गतिविधियां है। सरकार की अब तक की जो रणनीति रही है वह है नकसलवाद प्रभावित क्षेत्रों में छापेमारी करना तथा किसी अप्रिय स्थिति में केंद्र तथा राज्यों की संयुक्त पुलिस के द्वारा इनसे निपटना है। इससे हमारे पुलिस तथा अर्द्धसैनिक बल काफी मात्रा में शहीद हो गए। पंजाब पुलिस के पूर्व महानिदेशक केपीएस गिल ने इसकी कड़ी निंदा करते हुए कहा था कि इतनी पुरानी तकनीक तथा दुर्गम मार्गों में पुलिस को बिना किसी विशेष प्रशिक्षण के भेजना मौत के मुंह में धकेलने के समान है। उन्हीं के इलाकों में आधुनिकतम तकनीक से लैस नक्सलवादियों से मुठभेड़ एक बगैर सोची:समझी रणनीति है। आखिर पुलिस के जवान भी मानव हैं तथा उनके भी शहीद होने की एक सीमा है। इसके बाद भी देखा जाए तो उन्हें अनेक नौकरशाही तथा लालफीताशही दिक्कतों से भी दो-चार होना पड़ता है। इससे बड़ी शर्मनाक स्थिति क्या होगी कि झारखंड में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में शहीद इंस्पेक्टर फ्रांसीस इंदुवर को पिछले छह महीने से वेतन तक नहीं मिला था। नक्सलवादियों का इतना प्रभावशाली होने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि पुलिस वनवासियों पर छोटी-मोटी बातों जैसे सूखी लकड़ी उठाना, चारे के लिए पत्तियां तोड़ लेना इत्यादि को लेकर मुकदमें दर्ज कर देती है। इसी प्रकार के एक लाख से अधिक मुकदमे लंबित हैं। इससे पुलिस पर आम वनवासी विश्वास नहीं कर पाता। नक्सली इसी स्थिति का फायदा उठाकर वनवासियों का आड़ लेकर रात-बिरात उनके घरों में शरण लेते रहते हैं तो सुबह पुलिस वनवासियों पर नक्सलवादियों से मिलीभगत का आरोप लगाकर जेल बंद कर देती है। इस प्रकार सरकार तथा नक्सलवादियों के बीच में आम वनवासी प्रताड़ना का शिकार बन जाता है। राजनैतिक लोकतंत्र तथा विकास के छह दशकों में देखा जाए तो आदिवासियों ने बहुत अधिक गंवाया है आदिवासी क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं जैसे स्वस्थ्य, शिक्षा, रोजगार, आवास की स्थिति दलितों से भी बदतर है। राजनैतिक प्रतिनिधित्व तथा नौकरशाही में भी कमोबेश यही स्थिति है। यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि न केवल आज तक उनको हाशिए पर रखा गया है बल्कि उनके अधिकरों का जबरन हनन किया गया है। भारतीय विकास के पश्चिम मॉडल ने पहले ही उनके जीवन को छिन्न-भिन्न किया फिर बाँध तथा वन योजनाओं के चलते उन्हें घर से बेघर कर दिया है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि कुछ वनवासी अवश्य ही नक्सवादियों के साथ सहानुभूति रखते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण प्राशसनिक है। स्पष्ट है कि हमारी न्यायपालिका में विवाद बहुत लंबे चलते हैं। वनवासियों के मुख्य मामले तो दीवानी के ही होते हैं वह भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते हैं। दूसरी ओर नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में नक्सवादियों की समानान्तर सरकारें चलती हैं। उनके तहसीलदार तथा लेखपाल उसी विवादास्पद भूमि पर मेज लगाकर त्वरित कार्यवीह करते हैं। यदि एक इंच भी भूमि इधर-उधर होती है तो उनको ऊपर से छह इंच छोटा (सर कलम) कर दिया जाता है। लेकिन वनवासी करें तो क्या करें? जब उनके लिए केंद्रीय सरकार के नाम की कोई चीज ही नहीं है तो नक्सलवादियों के ‘न्याय-अन्याय’ का वे किस प्रकार से प्रतिकार कर सकते हैं। यदि ऐतिहासिक रूप से देखें तो एक सदी से ज्यादा समय से आदिवासी कई प्रकार की त्रासदियों के शिकार होते रहे हैं।
पहली त्रासदी की शुरुआत अंग्रेजो द्वारा वनों पर कब्जा किए जाने से हुई जो आजादी के बाद भी बाजारवाद के प्रभाव में जारी रही। भारत में चुनावी लोकतंत्र भी वनवासियों के लिए दुसरी त्रासदी सिद्ध हुई। जिससे आदिवासियों का एक छोटा, शक्तिहीन तथा अल्पसंख्यक वर्ग होने के कारण सत्ता के गलियारों तक उनकी आवाज नहीं पहुंच सकी। भारतीय संविधान में उनके अधिकारों तथा हितों की रक्षा के लिए जो अर्थपूर्ण प्रावधान किए गए थे, वे सफल नहीं हो सके। आदिवासियों के जीवन की तीसरी त्रासदी माओवादियों के आगमन के साथ हुई जिसके हथियार, संघर्ष और तात्कालिक हिंसा के रास्ते ने आदिवासियों की समस्या का सुलझाने की कोई उम्मीद ही नहीं छोड़ी।
किसी भी व्यक्ति या समुदाय पर अधिकार करने के दो तरीके होते हैं उसके शरीर पर अधिकार तथा उसके मन पर अधिकार करना। शरीर पर अधिकार करने के लिए बन्दूक तथा भय का सहारा लिया जाता है परन्तु मन पर अधिकार करने के लिए नैतिक उपाय किए जाते हैं। जिसमें यह दिखाया जाता है कि वर्तमान तंत्र तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर रहा है, इसलिए हमें सहयोग दो। वस्तुत: नक्सलवादियों की भी यही रणनीति है तथा इसका हल भी इसी को नष्ट करने में निहित है। कुछ पाश्चात्य तथा वामपंथ विचारक ऐसा मानते हैं कि नक्सलवाद “हैव एण्ड हैव्स नॉट” की स्वाभाविक उत्पत्ति है। परन्तु यह आवश्यक है पर्याप्त नहीं।
सरकार को नक्सलवादी समस्या को हल करने के लिए विश्वास बहाली-समझौता- उन्मूलन की नीति पर कार्य करना चाहिए। आदिवासियों में विश्वास बहाली के लिए वह संविधान में दिए गए अधिकारों द्वारा आदिवासियों को विकास में पूर्ण भागीदार बनाए तथा नक्सलवादियों के बर्बर चेहरे को आदिवासियों के सामने निर्ममतापूर्वक उजागर करे। इससे निश्चित ही वनवासियों में अपने तंत्र के प्रति विश्वास उत्पन्न होगा और यही नक्सलवाद को समाप्त करने की प्रथम कड़ी भी होगी। लेकिन इसमें काफी सजगता की भी आवश्यकता है क्योंकि ‘सलवा-जुडूम’ जैसे उपायों का हम परिणाम देख ही चुके हैं। दूसरे चरण में नक्सलवादियों से बात कर यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि वह तंत्र में शामिल होने तथा हिंसा का मार्ग छोड़ने के लिए तैयार हैं या नहीं। अगर वे चुनाव को अनावश्यक की कसरत मानने के अपने विचार को त्यागकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होना चाहते हैं तो उनसे ‘नेपाल मॉडल’ के तहत समझौता किया जाना चाहिए। परंतु जो इसके लिए तैयार नहीं हैं उनका पूर्णतया उन्मूलन करने की आवश्यकता है क्योंकि यही राष्ट्रहित में है।
देश को नक्सलवाद की समस्या का जितना जल्दी हो इसे हल करने का उपाय करना चाहिए। क्योंकि इससे देश में ही इंडिया तथा भारत के मध्य सामाजिक विघटन होने का भय हए। भारत का एक बड़ा वर्ग यह मानने लगा है कि सरकार को उनकी समस्याओं से कुछ लेना-देना नहीं है। जब तक समस्याएं विकराल होकर शहरी भाग तक नहीं पहुंचती हैं तब तक सरकार इससे नहीं चेतती है। इसका उदाहरण यह है कि 26/11 की घटना के पूर्व देश में अनेक विस्फोट हुए परंतु सरकार ने वास्तविक कार्यवाही तब तक नहीं कि जब तक की यह घटना नहीं हो गई। अत: इस पर भी गहन चिंतन करने की आवश्यकता है। कहीं ऐसा न हो कि नक्सलवादी समस्या को हल करते-करते हम कई अन्य समस्याओं को निमंत्रण न दे बैठें।
अब समय नीति-निर्धारण का नहीं अपितु इसके क्रियान्वयन का है। सरकार द्वारा बनाए गए ऑपरेशन नक्सल आल आउट को पूरी इच्छा शक्ति से लागू करना चाहिए। जिससे यह समस्या को हल करने की आखिरी कड़ी सिद्ध हो। नक्सलवाद चाहे आर्थिक समस्या हो या सामाजिक अथवा दोनों का मिला- जुला रूप परंतु इस शोध का समय बिल्कुल नहीं हैं। क्योंकि यह समाज के लिए नासूर बन चुका है। साथ ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया, विकास तथा शासन के अनुषंगी शांति तथा समावेशी विकास को सुनिश्चत करने के लिए नक्सलवाद का सफाया एक पूर्व शर्त बन गई है।
COMMENTS