विद्यार्थी जीवन पर निबंध। vidyarthi jeevan par nibandh : विद्यार्थी जीवन, पूर्ण जीवन रूपी भवन की आधारशिला है, अतः इसे सभी प्रकार से सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। इस काल में शरीर बलवान बनाना चाहिए। विद्या द्वारा मस्तिष्क का विकास करना चाहिए और समाज एवं राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को समझने तथा उनके व्यवहार में लाने की भी शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। तभी यह नींव मजबूत होगी।
विद्यार्थी जीवन पर निबंध। Vidyarthi Jeevan par Nibandh
साधारणतः मनुष्य की आयु सौ वर्ष की मानी जाती है। यद्यपि आजकल खानपान एवं चाल-चलन की त्रुटियों के कारण आयु का काल कम हो चुका है। फिर भी सौ वर्ष की आयु आदर्श आयु है। इस आयु को चार भागों में हमारे ऋषि मुनियों ने बांटा था। पहला भाग जन्म से 25 वर्ष तक, दूसरा 50 वर्ष तक। तीसरा 75 वर्ष तक और चौथा शेष आयु।
जीवन का प्रथम भाग शेष जीवन रूपी भवन की नींव है। यही जीवन की आधारशिला है। यदि यह नींव मजबूत होगी तो सारा जीवन सरल एवं बढ़िया बीतेगा। ज्ञान के द्वारा ही जीवन का मार्ग प्रशस्त होता है। अतः प्रथम भाग को ब्रह्मचर्य काल कह देते हैं। यही विद्यार्थी जीवन है। दूसरा भाग ग्रहस्थ तथा तीसरा आत्मा की उन्नति के अभ्यास का, जिसे वानप्रस्थ काल कहते हैं और चौथा मोक्ष प्राप्ति का जीवन है जिसे सन्यास आश्रम कहते हैं।
विद्यार्थी जीवन, पूर्ण जीवन रूपी भवन की आधारशिला है, अतः इसे सभी प्रकार से सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। इस काल में शरीर बलवान बनाना चाहिए। विद्या द्वारा मस्तिष्क का विकास करना चाहिए और समाज एवं राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को समझने तथा उनके व्यवहार में लाने की भी शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। तभी यह नींव मजबूत होगी।
हमें आगामी जीवन के लिए धन, विचारशक्ति, ज्ञान और स्वास्थ्य की आवश्यकता होती है। इसके लिए आवश्यक है कि छात्र लगन से विद्या प्राप्त करें, खेल-कूद और व्यायाम आदि द्वारा शरीर को पुष्ट बनाएं और चरित्र निर्माण के लिए अच्छी-अच्छी बातों को जीवन में ढाले। इस काल का मुख्य कार्य स्वास्थ्य निर्माण और पढ़ाई ही होता है। अतः जीवन का प्रथम भाग ही विद्या के लिए सर्वथा उपयुक्त माना जाता है। नीतिकारों का कथन है कि:-
पहले में विद्या नहीं, धन न दूजे काल।
नहीं कमाया धर्म फिर अंत बुरा ही काल।।
छात्र का स्वास्थ्य, चरित्र और विद्या के लिए अपनी दैनिक दिनचर्या ऐसी बनानी चाहिए कि उसके सभी कार्य पूर्ण हो और समय भी व्यर्थ न हो। प्रातः काल सवेरे उठना चाहिए। पुनः शौच आदि से निवृत होकर स्वाध्याय करना चाहिए। कुछ समय स्वाध्याय करने के पश्चात व्यायाम और स्नान आदि करना चाहिए। व्यायाम से स्वास्थ्य ठीक रहता है और स्नान से शरीर शुद्ध हो जाता है। पुनः अपने इष्टदेव का स्मरण कर जलपान आदि के पश्चात विद्यालय में ध्यानपूर्वक पढ़ाई करनी चाहिए।
विद्यालय में पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद एवं सभाओं आदि में छात्र को अच्छी तरह भाग लेना चाहिए। शिक्षा की सह-प्रवृतियां भी शिक्षा में उपयोगी होती हैं। शेष दिनचर्या भी इसी प्रकार ही बना लेनी चाहिए। छात्र को समय पर सोना और समय पर जागना चाहिए। उसे बड़ों के प्रति नम्र, मृदुभाषी, मितभाषी एवं छोटों के प्रति स्नेहमय होना चाहिए। आलस्य, अभिमान, काम को कल के लिए छोड़ देना, ईर्ष्या तथा मोह विद्यार्थी के लिए अनुचित हैं।
विद्यार्थी काल में अपना आहार सात्विक परंतु पौष्टिक रखना चाहिए। गंदे चरित्रों को देखना, गंदे उपन्यासों को पढ़ना, गंदी बातों को सुनना, मुंह से अपशब्द बोलना इत्यादि विद्या की प्राप्ति में रुकावट बन जाते हैं। विद्यार्थी जीवन में व्यसनों तथा कुसंगति से दूर रहना चाहिए। कम उम्र होने के कारण कई बार बच्चे गलत संगति में पड़ जाते हैं। इससे उनका अपना जीवन तो नष्ट होता ही है, परिवार की सुख-शांति भी भंग हो जाती है। जो विद्यार्थी कुसंगति से बचा रहता है वह अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त करता है। विद्यार्थी को संयमी, परिश्रमी, आज्ञाकारी, समय का पाबंद और लगनशील होना चाहिए।
विद्यार्थी जीवन भविष्य का आधार है, इसे सुंदर बना लिया तो सारा जीवन आनंदमय बीतेगा। यदि इसे बर्बाद कर दिया तो समझो सारा जीवन कष्टमय हो गया। अतः विद्यार्थी जीवन में जीवन के निर्माण और विद्या प्राप्ति की ओर ही ध्यान लगाना चाहिए। विद्यार्थी जीवन के दौरान किया गया परिश्रम और त्याग पूरे जीवन भर काम आता है क्योंकि विद्यार्थी जीवन ही सुनहरे भविष्य की आधारशिला तैयार करता है।
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