राजमुकुट नाटक का सारांश : मेवाड़ में राणा जगमल अपने वंश की मर्यादा का निर्वाह ना करते हुए सुरा-सुंदरी में डूबा हुआ था. अपने भोग-विलास एवं आनंद में किसी भी तरह की बाधा सहन नहीं करने वाला राणा जगमल एक क्रूर शासक बन गया था. उसने कुछ चाटुकारों के कहने पर निरपराध विधवा प्रजावती की नृशंस हत्या करवा दी. जिससे प्रजा में क्रोध की ज्वाला भड़क उठी. प्रजावती के शव को लेकर प्रजा राष्ट्रनायक चंदावत के घर पहुंची. इसी समय कुंवर शक्ति सिंह ने राणा जगमल के क्रूर सैनिकों के हाथों से एक भिखारिणी की रक्षा की. जगमल के कार्यों से खिन्न शक्तिसिंह को चंदावत ने कर्म-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी.
राजमुकुट नाटक का सारांश
मेवाड़ में राणा जगमल अपने वंश की मर्यादा का निर्वाह ना करते हुए सुरा-सुंदरी में डूबा हुआ था. अपने भोग-विलास एवं आनंद में किसी भी तरह की बाधा सहन नहीं करने वाला राणा जगमल एक क्रूर शासक बन गया था. उसने कुछ चाटुकारों के कहने पर निरपराध विधवा प्रजावती की नृशंस हत्या करवा दी. जिससे प्रजा में क्रोध की ज्वाला भड़क उठी. प्रजावती के शव को लेकर प्रजा राष्ट्रनायक चंदावत के घर पहुंची. इसी समय कुंवर शक्ति सिंह ने राणा जगमल के क्रूर सैनिकों के हाथों से एक भिखारिणी की रक्षा की. जगमल के कार्यों से खिन्न शक्तिसिंह को चंदावत ने कर्म-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी.
एक दिन जब जगमल राज्यसभा में आनंद मना रहा था, तो राष्ट्रनायक चंदावत वहां पहुंचे और जगमल को उसके घृणित कार्यों के प्रति सचेत करते हुए उसे प्रजा से क्षमा-याचना के लिए कहा. जगमल ने उनकी बात स्वीकार करते हुए उनसे योग्य उत्तराधिकारी चुनने के लिए कहा और अपनी तलवार और राजमुकुट उन्हें सौंप दिया.
राष्ट्रनायक चंदावत ने राणा प्रताप को जगमल का उत्तराधिकारी बनाया और उन्हें राजमुकुट एवं तलवार सौंप दी. प्रताप मेवाड़ के राणा बन गए अब सुरा-सुंदरी के स्थान पर शौर्य एवं त्याग भावना की प्रतिष्ठा हुई. प्रजा प्रसन्नतापूर्वक राणा प्रताप की जय-जयकार करने लगी. (राजमुकुट नाटक का उद्देश्य यहाँ देखें।)
द्विदीय अंक का सारांश
मेवाड़ के राणा बनकर प्रताप ने अपनी प्रजा को अपने खोए हुए सम्मान को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया. प्रजा में वीरता का संचार करने के लिए उन्होंने ‘अहेरिया’ उत्सव का आयोजन किया. इस उत्सव में प्रत्येक क्षत्रिय को एक वन्य पशु का आखेट करना अनिवार्य था. इस आखेट के क्रम में एक जंगली सूअर के आखेट को लेकर राणा प्रताप और शक्तिसिंह में विवाद उत्पन्न हो गया. विवाद इतना बढ़ गया कि दोनों भाई शस्त्र निकालकर एक दूसरे पर झपट पड़े.
भावी अनिष्ट की आशंका से राजपुरोहित ने बीच-बचाव करने का प्रयत्न किया, परंतु दोनों ही नहीं माने. राजकुल को अमंगल से बचाने के लिए राजपुरोहित ने अपने ही हाथों अपनी कटार अपनी छाती में घोंपी और प्राण त्याग दिए. राणा प्रताप ने शक्तिसिंह को राज्य से निर्वासित कर दिया. शक्तिसिंह मेवाड़ से निकलकर अकबर की सेना में जा मिले.
तृतीय अंक का सारांश
राजा मानसिंह राणा प्रताप के चरित्र एवं गुणों से बहुत प्रभावित थे, इसलिए वह राणा प्रताप से मिलने गए. राजा मानसिंह की बुआ का विवाह सम्राट अकबर के साथ हुआ था. अतः राणा प्रताप ने उन्हें धर्म से च्युत एवं विधर्मियों का सहायक समझकर उनसे भेंट नहीं की.
उन्होंने राजा मानसिंह के स्वागत के लिए अपने पुत्र अमरसिंह को नियुक्त किया. इससे मानसिंह ने स्वयं को अपमानित महसूस किया और वह उत्तेजित हो गए. अपने अपमान का बदला चुकाने की धमकी देकर वह चले गए.
तत्कालीन समय में दिल्ली का सम्राट अकबर मेवाड़ विजय के लिए रणनीति बना रहा था. उसने सलीम, मानसिंह एवं शक्तिसिंह के नेतृत्व में एक विशाल मुगल सेना मेवाड़ भेजी. हल्दीघाटी के मैदान में भीषण युद्ध हुआ. मानसिंह से बदला लेने के लिए राणा प्रताप मुगल सेना के बीच पहुंच गए और मुगलों के व्यूह में फस गए.
राणा प्रताप को मुगलों से घिरा देख चंदावत ने राणा प्रताप के सिर से मुकुट उतारकर अपने सिर पर पहन लिया और युद्धभूमि में अपने प्राणों की बलि दे दी. राणा प्रताप बच गए. उन्होंने युद्धभूमि छोड़ दी. दो मुगल सैनिकों ने राणा प्रताप का पीछा किया, जिसे शक्तिसिंह ने देख लिया.
शक्तिसिंह ने उन मुगल सैनिकों का पीछा करते हुए उन्हें मार गिराया. शक्तिसिंह और राणा प्रताप गले मिले. उनके आंसुओं से उनका समस्त वैमनस्य धुल गया. उसी समय राणा प्रताप के घोड़े ‘चेतक’ की मृत्यु हुई, जिससे राणा प्रताप को अपार दुख हुआ.
चतुर्थ अंक का सारांश
हल्दीघाटी का युद्ध समाप्त हो जाने पर भी राणा ने अकबर से हार नहीं मानी. अकबर ने प्रताप की देशभक्ति, आत्मत्याग एवं शौर्य से प्रभावित होकर उनसे भेंट की इच्छा प्रकट की. शक्तिसिंह साधु-वेश में देश में विचरण कर रहा था और प्रजा में देश प्रेम तथा एकता की भावना जागृत कर रहा था. अकबर के मानवीय गुणों से परिचित होने के कारण शक्तिसिंह ने प्रताप से अकबर की भेंट को छल-प्रपंच नहीं माना. उसका विचार था कि दोनों के मेल से देश में शांति एवं एकता की स्थापना होगी.
इस चतुर्थ अंक में ही नाटक का मार्मिक स्थल समाहित है. एक दिन राणा प्रताप के पास वन में एक सन्यासी आया, जिसका उचित स्वागत-सत्कार न कर पाने के कारण राणा प्रताप अत्यंत दुखी हुए. अतिथि को भोजन देने के लिए राणा प्रताप की बेटी चंपा घास के बीजों की बनी रोटी लेकर आई.
उसी समय कोई वनबिलाव चंपा के हाथ से रोटी छीन कर भाग गया. इसी क्रम में चंपा गिर गई और सिर में गहरी चोट लगने से उसकी मृत्यु हो गई. कुछ समय बाद अकबर सन्यासी वेश में वहां आया और प्रताप से बोला, “आप उस अकबर से तो संधि कर सकते हैं, जो भारत माता को अपनी मां समझता है और आपकी तरह ही उस की जय बोलता है.”
मृत्यु शैया पर पड़े महाराणा प्रताप को रह-रहकर अपने देश की याद आती है. वह अपने बंधु-बांधवों पुत्र और संबंधियों को मातृभूमि की स्वतंत्रता एवं रक्षा का व्रत दिलाते हुए भारत माता की जय बोलते हुए स्वर्ग सिधार जाते हैं.
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