विक्रम संवत का इतिहास। History of Vikram Samvat in Hindi : भारत का सर्वमान्य संवत् विक्रम-संवत है। विक्रम-संवत् के अनुसार नव-वर्ष का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। ब्रह्मपुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का आरंभ हुआ था और इसी दिन से भारतवर्ष में कालगणना आरम्भ हुई थी। यही कारण है कि ज्योतिष में ग्रह, ऋतु, मास, तिथि एवं पक्ष आदि की गणना भी चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से ही होती है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह सत्य है कि शकों का उन्मूलन करने और उन पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में विक्रम-संवत् आरम्भ किया गया था जो कि इस समय की गणना के अनुसार ईस्वी सन् से 57 वर्ष पहले शुरू होता है।
विक्रम संवत का इतिहास। History of Vikram Samvat in Hindi
भारत का सर्वमान्य संवत्
विक्रम-संवत है। विक्रम-संवत् के अनुसार नव-वर्ष का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से
होता है। ब्रह्मपुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का आरंभ हुआ था
और इसी दिन से भारतवर्ष में कालगणना आरम्भ हुई थी।
चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्जं प्रथमेहणि।
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा यूर्योदये सति।।
यही कारण है कि
ज्योतिष में ग्रह, ऋतु, मास, तिथि एवं पक्ष आदि की गणना भी चैत्र शुक्ल पक्ष की
प्रतिपदा से ही होती है।
चैत्र शुक्ल पक्ष की
प्रतिपदा बसन्त ऋतु में आती है। वसन्त में प्राणियों को ही नहीं, वृक्ष, लता आदि
को भी आह्वादित करने वाला मधुरस प्रकृति से प्राप्त होता है इतना ही नहीं वसन्त
समस्त चराचर को प्रमाविष्ट करके, समूची धरती को पुष्पभरण से अलंकृत करके
मानव-चित्त की कोमल वृत्तियों को जागरित करता है। इस ‘सर्वप्रिये चारूतरं वसन्ते’ में संवत्सर का आरम्भ ‘सोने में सुहागा’ को चरितार्थ करता है। हुन्दू मन में नव-वर्ष के
उमंग, उल्लास, मादकता को दुगना कर देता है।
विक्रम-संवत्
सूर्य-सिद्धान्त पर चलता है। ज्योतिषियों के अनुसार सूर्य-सिद्धान्त का मान ही
भ्रमहीन एवं सर्वश्रेष्ठ है। सृष्टि संवत् के प्रारम्भ से यदि आज तक का गणित किया
जाए तो सूर्य सिद्धान्त के अनुसार एक दिन का भी अन्तर नहीं पड़ता।
पराक्रमी महावीर
विक्रमादित्य का जन्म अवन्ति देश की प्राचीन नगरी उच्चयिनी में हुआ था। पिता
महेन्द्रदित्य गणनायक थे और माता मलयवती थीं। इस दम्पती को पुत्र प्राप्ति के लिए
अनेक व्रत और तप करने पड़े। शिव की नियमित उपासना और आराधना से उन्हें पुत्ररत्न
मिला था। इसका नाम विक्रमादित्य रखा गया। विक्र्म के युवावस्था में प्रवेश करते ही
पिता ने राज्य का कार्य भार उसे सौंप दिया।
राज्यकार्य संभालते
ही विक्रमादित्य को शकों के विरूद्ध अनेक तथा बहुविध युद्धों मे उलझ जाना पड़ा।
उसने सबसे पहले उज्जयिनी और आस-पास के क्षेत्रों में फैले शको के आतंक को समाप्त
किया। सारे देश में से शकों के उन्मूलन से पूर्व विक्रम ने मानव गणतन्त्र का फिर
संगठन किया और उसे अत्यधिक बलशाली बनाया और वहाँ से शकों का समूलोच्छेद किया। जिस
शक्ति का विक्रम ने संगठन किया था, उसका प्रयोग उसने देश के शेष भागों में से
शक-सत्ता को समाप्त करने में लगाया और उसकी सेनाएं दिग्विजय के लिए निकल पड़ीं।
ऐसे वर्णन उपलब्ध होते हैं कि शकों का नाम-निशान मिटा देने वाले इस महापराक्रमी
वीर के घोड़े तीनों समुद्रों में पानी पीते थे। इस दिग्विजयी मालवगध नायक
विक्र्मादित्य की भयंकर लड़ाई सिंध नदी के आस-पास करूर नामक स्थान पर हुई। शकों के
लिए यह इतनी बड़ी पराजय थी कि कश्मीर सहित सारा उत्तरापथ विक्रम के अधीन हो गया।
ऐतिहासिक दृष्टि से
यह सत्य है कि शकों का उन्मूलन करने और उन पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में
विक्रम-संवत् आरम्भ किया गया था जो कि इस समय की गणना के अनुसार ईस्वी सन् से 57
वर्ष पहले शुरू होता है। इस महान् विजय के उपलक्ष्य में मुद्राएँ भी जारी की गई
थीं, जिनके एक और सूर्य था, दूसरी ओर ‘मालवगणस्य जयः’ लिखा हुआ था।
विदेशी
आक्रमणकारियों को समाप्त करने के कारण केवल कृताज्ञतावश उसके नाम से संवत् चलाकर
ही जनसाधारण ने वीर विक्रम को याद नहीं रखा, बल्कि दिन-रात प्रजापालन में तत्परता,
परदुःख परायणता, न्यायप्रियता, त्याग, दान, उदारता आदि गुणों के कारण तथा साहित्य
और कला के आश्रयदाता के रूप में भी उन्हें स्मरण किया जाता है। यह तो हुई
विक्र्मादित्य की चर्चा। वर्ष-प्रतिपदाके महत्व के कुछ अन्य कारण भी हैं।
‘स्मृति कौस्तुभ’ के रचनाकार का कहना है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
को रेवती नक्षत्र के विष्कुम्भ के योग में दिन के समय भगवान ने मत्स्य रूप अवतार
लिया था। ईरानियों में इसी तिथि पर ‘नौरोज’ मनाया जाता है। (ईरानी वस्तुतः पुराने आर्य ही हैं।)
संवत् 1946 में
हिन्दू राष्ट्र के महान् उन्नायक, हिन्दू संगठन के मंत्र-द्रष्टा तथा धर्म के
संरक्षक परम पूज्य डॉ केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म वर्ष-प्रतिपदा के ही दिन हुआ
था। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक थे। वर्ष-प्रतिपदा का पावन दिन संघ
शाखाओं में उनका जन्मदिन के रूप में सोल्लास मनाया जाता है। प्रतिपदा 2045 से
प्रतिपदा 2056 तक उनकी जन्म-शताब्दी मनाकर कृतज्ञ राष्ट्र ने उनके प्रति अपनी
श्रद्धांजलि अर्पित की थी।
आंध्र में यह पर्व
उगदि नाम से मनाया जाता है। उगदि का अर्थ है युग का आरंभ अथवा ब्रह्मा जी की
सृष्टि-रचना का प्रथम दिन। आध्रवासियों के लिए यह दीपावली की भांति हर्षतिरेक का
दिन होता है।सिंधु प्रान्त में
नवसंवत् को चेटी चंडो (चैत्र का चन्द्र) नाम से पुकारा जाता है। सिन्धी समाज इस
दिन को बड़े हर्ष और समारोहपूर्वक मनाता है।
कश्मीर में यह पर्व ‘नवरोज’ के नाम से मनाया जाता है। जवाहरलाल जी ने
अपनी आत्मकथा ‘मेरी कहानी में’ लिखा है ;कश्मीरियों के कुछ खास त्योहार भी होते
हैं इनमें सबसे बड़ा नवरोज यानी वर्ष प्रतिपदा का त्यौहार है’ इस दिन हम लोग
नए कपड़े पहन कर बन-ठनकर निकलते हैं। घर के बड़े लड़के-लड़कियों का हाथ खर्च के
तौर पर कुछ पैसे मिला करते थे।‘
नव वर्ष मंगलमय हो, सुख समृद्धि का साम्राज्य हो, शांति और
शक्ति का संचरण रहे, इसके लिए नव संवत पर हिंदुओं में पूजा का विधान है। इस दिन
पंचांग का श्रवण और दान का विशेष महत्व है। व्रत, कलश स्थापन, जलपात्र का दान,
वर्षफल श्रवण, गत वर्ष की घटनाओं का चिंतन तथा आगामी वर्ष के संकल्प इस पावन दिन
के महत्वपूर्ण कार्यक्रम माने जाते हैं। प्रभु से प्रार्थना की जाती है
भगवँस्तव प्रसादेन वर्षं
क्षेममिहास्तु में।
संवत्सरोपसर्गाः मे विलयं
यान्त्वशेषतः
(हे प्रभु! आपकी कृपा से नव वर्ष मेरे लिए कल्याणकारी हो तथा वर्ष के
सभी विघ्न शांत हो जाएं)
हम हिंदू हैं। हिंदू धर्म में हमारी आस्था है, श्रद्धा है
तो हमें चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को उमंग और उत्साह से नव वर्ष मनाना चाहिए। संबंधियों
तथा मित्रों को ग्रीटिंग कार्ड भेजना तथा शुभकामना प्रकट करना हमारे स्वभाव का अंग
होना चाहिए। इसी से हमारे समाज में पहले से ही विद्यमान परंपरा का निर्वाह करते
हुए शुभ संस्कारों का विकास होगा और हमारी भारतीय अस्मिता की रक्षा भी होगी
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