कृषक आन्दोलन के कारण पर निबंध : हमारा देश कृषि प्रधान है और सच तो यह है कि कृषि क्रियाकलाप ही देश की अर्थव्यवस्था का आधार है। ग्रामीण क्षेत्रों की तीन-चौथाई से अधिक आबादी अब भी कृषि कार्य पर निर्भर है। भारत में कृषि मानसून पर आधारित है। और इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि प्रत्येक वर्ष देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा सूखे एवं बाढ़ की चपेट में आता है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था और भारतीय जन जीवन का प्राण तत्व है। कृषि का अंग्रेजी शासन काल में पर्याप्त हास हुआ। यद्यपि किसान समाज का आधार है किंतु इनकी स्थिति अब भी बदतर है। उनकी मेहनत के अनुसार उन्हें पारितोषिक नहीं मिलता। यद्यपि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान 30% है, फिर भी भारतीय कृषक की दशा शोचनीय है।
कृषक आन्दोलन के कारण पर निबंध
प्रस्तावना : हमारा देश कृषि प्रधान है और सच तो यह है कि कृषि क्रियाकलाप ही देश की अर्थव्यवस्था का आधार है। ग्रामीण क्षेत्रों की तीन-चौथाई से अधिक आबादी अब भी कृषि कार्य पर निर्भर है। भारत में कृषि मानसून पर आधारित है। और इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि प्रत्येक वर्ष देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा सूखे एवं बाढ़ की चपेट में आता है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था और भारतीय जन जीवन का प्राण तत्व है। कृषि का अंग्रेजी शासन काल में पर्याप्त हास हुआ।
किसानों की समस्याएं : भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। भारत की अधिकांश जनता गांवों में बसती है। यद्यपि किसान समाज का आधार है किंतु इनकी स्थिति अब भी बदतर है। उनकी मेहनत के अनुसार उन्हें पारितोषिक नहीं मिलता। यद्यपि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान 30% है, फिर भी भारतीय कृषक की दशा शोचनीय है। देश की आजादी की लड़ाई में कृषकों की एक बड़ी भूमिका रही। चंपारण आंदोलन अंग्रेजो के खिलाफ एक खुला संघर्ष था। स्वतंत्रता के पश्चात जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ किसानों को भू स्वामित्व का अधिकार मिला। हरित कार्यक्रम भी चलाया गया और परिणामस्वरुप खाद्यान्न उत्पादकता में वृद्धि हुई। किंतु इस हरित क्रांति का विशेष लाभ संपन्न किसानों तक ही सीमित रहा। लघु एवं सीमांत कृषकों की स्थिति में कोई आशानुरूप परिवर्तन नहीं हुआ। आजादी के बाद भी कई राज्यों में किसानों को भू स्वामित्व नहीं मिला जिसके विरुद्ध बंगाल बिहार एवं आंध्र प्रदेश में नक्सलवादी आंदोलन प्रारंभ हुए।
कृषक संगठन व उनकी मांग : किसानों को संगठित करने का सबसे बड़ा कार्य महाराष्ट्र में शरद जोशी ने किया। किसानों को उनकी पैदावार का उचित मूल्य दिला कर उनमें एक विश्वास पैदा किया कि वह संगठित होकर अपनी स्थिति में सुधार ला सकते हैं। हाल के वर्षों में उत्तर प्रदेश के किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों की दशा में बेहतर सुधार लाने का एक आंदोलन चला रखा है और सरकार को इस बात का अनुभव करा दिया कि किसानों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। टिकैत के आंदोलन ने किसानों के मन में यह भावना भर दी कि वह भी संगठित होकर अपनी आर्थिक उन्नति कर सकते हैं।
किसानों संगठनों को सबसे पहले इस बारे में विचार करना होगा कि आर्थिक दृष्टि से अन्य वर्गों के साथ उनका क्या संबंध है? उत्तर प्रदेश की सिंचित भूमि की हदबंदी सीमा 18 एकड़ है। जब किसान के लिए सिंचित भूमि 18 एकड़ है तो उत्तर प्रदेश की किसान यूनियन इस मुद्दे को उजागर करना चाहती है कि 18 एकड़ भूमि को संपत्ति सीमा का आधार मानकर अन्य वर्गों की संपत्ति अथवा आय सीमा निर्धारित होनी चाहिए।
अब प्रौद्योगिक क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियां धीरे-धीरे हिंदुस्तान में अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती जा रही है। किसान आंदोलन क्षमता एवं विसंगति को दूर करने के लिए संघर्षरत है। वह चाहता है कि भारत में समाजवाद की स्थापना हो, जिसके लिए सभी प्रकार के पूंजीवाद एवं इजारेदारी का अंत होना आवश्यक है। यह भी मांग है कि वस्तु विनिमय के अनुपात से कीमतें निर्धारित की जाए ना कि विनिमय का माध्यम रुपया माना जाए। यह तभी संभव होगा जब उत्पादक और उपभोक्ता दोनों रूपों में किसान के शोषण को समाप्त किया जा सके।
सारांश यह है कि कृषि उत्पाद की कीमतों को आधार बनाकर ही औद्योगिक उत्पादों की कीमतों को निर्धारित किया जाना चाहिए। किसान यूनियन किसानों के लिए वृद्धावस्था पेंशन की पक्षधर है। कुछ लोगों का मानना है कि किसान यूनियन राजनीति से प्रेरित ज्यादा है। इस संदर्भ में किसान यूनियन का कहना है कि हम आर्थिक सामाजिक व राजनीतिक शोषण के विरुद्ध किसानों को संगठित करके एक नए समाज की संरचना करना चाहते हैं।
कृषक आंदोलनों के कारण : भारत में कृषि आंदोलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।
- भूमि सुधारों का क्रियान्वन दोषपूर्ण है। भूमि का असमान वितरण इस आंदोलन की मुख्य जड़ है।
- भारतीय कृषि को उद्योग का दर्जा ना दिए जाने के कारण किसानों के हित की उपेक्षा निरंतर हो रही है।
- किसानों द्वारा उत्पादित वस्तुओं का मूल्य निर्धारण सरकार करती है। जिसका समर्थन मूल्य बाजार मूल्य से नीचे रहता है। मूल्य निर्धारण में कृषकों की भूमिका नगण्य है।
- दोषपूर्ण कृषि वितरण प्रणाली भी कृषक आंदोलन के लिए कम उत्तरदाई नहीं है। भंडारण की अपर्याप्त व्यवस्था, कृषि मूल्यों में होने वाले उतार-चढ़ावों की जानकारी ना होने से भी किसानों को पर्याप्त आर्थिक घाटा सहना पड़ता है।
- बीजों, खादो, दवाइयों के बढ़ते दाम और उस अनुपात में कृषकों को उनकी उपज का पूरा मूल्य भी ना मिल पाना अर्थात बढ़ती हुई लागत भी कृषक आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए उत्तरदाई है।
- नई कृषि तकनीक का लाभ आम कृषक को नहीं मिल पाता है।
- बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पुलिंदा लेकर जो डंकल प्रस्ताव भारत में आया है, उससे भी किसान बेचैन हैं और उनके भीतर एक डर समाया हुआ है।
- किसानों में जागृति आई है। उनका तर्क है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में उनकी महती भूमिका है। इसलिए धन के वितरण में भी उन्हें आनुपातिक हिस्सा मिलना चाहिए।
उपसंहार : विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं का अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि कृषि की हमेशा से उपेक्षा हुई है। अतः आवश्यक है कि कृषि के विकास पर अधिक से अधिक ध्यान दिया जाए।
स्पष्ट है कि कृषक हितों की अब उपेक्षा नहीं की जा सकती। सरकार को चाहिए कि कृषि को उद्योग का दर्जा प्रदान करें। कृषि उत्पादों के मूल्य निर्धारण में कृषकों की भी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। भूमि-सुधार कार्यक्रम के दोषों का निवारण होना जरूरी है तथा सरकार को किसानों की मांगों और उनके आंदोलनों पर गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए।
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