दैव दैव आलसी पुकारा पर निबंध। Dev Dev Alsi Pukara Par Nibandh : जीवन के उत्थान में परिश्रम का महत्वपूर्ण स्थान होता है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए, ऊंचा उठने के लिए और यश प्राप्त करने के लिए श्रम ही आधार है। श्रम से कठिन से कठिन कार्य संपन्न किए जा सकते हैं। जो श्रम करता है, भाग्य भी उसका ही साथ देता है। जो निष्क्रिय रहता है, उसका भाग्य भी साथ नहीं देता। श्रम के बल पर लोगों ने उफनती जलधाराओं को रोककर बड़े-बड़े बांधों का निर्माण कर दिया। इन्होंने श्रम के बल पर ही अगम्य पर्वत चोटियों पर अपनी विजय का ध्वज ठहरा दिया। श्रम के बल पर मनुष्य चंद्रमा पर पहुंच गया। श्रम के द्वारा ही मानव समुद्र को लांघ गया। खाइयों को पाट दिया तथा कोयले की खदानों से बहुमूल्य हीरे खोज निकाले। मानव सभ्यता और उन्नति का एकमात्र आधार स्वयं ही तो है।
दैव दैव आलसी पुकारा पर निबंध। Dev Dev Alsi Pukara Par Nibandh
प्रस्तावना : जीवन के उत्थान में परिश्रम का महत्वपूर्ण
स्थान होता है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए, ऊंचा उठने के
लिए और यश प्राप्त करने के लिए श्रम ही आधार है। श्रम से कठिन से कठिन कार्य
संपन्न किए जा सकते हैं। जो श्रम करता है, भाग्य भी उसका ही साथ देता है। जो निष्क्रिय
रहता है, उसका भाग्य भी साथ नहीं देता। श्रम के बल पर लोगों ने उफनती जलधाराओं को
रोककर बड़े-बड़े बांधों का निर्माण कर दिया। इन्होंने श्रम के बल पर ही अगम्य पर्वत
चोटियों पर अपनी विजय का ध्वज ठहरा दिया। श्रम के बल पर मनुष्य चंद्रमा पर पहुंच
गया। श्रम के द्वारा ही मानव समुद्र को लांघ गया। खाइयों को पाट दिया तथा कोयले की
खदानों से बहुमूल्य हीरे खोज निकाले। मानव सभ्यता और उन्नति का एकमात्र आधार स्वयं
ही तो है। अतः परिश्रम ही मानव का सच्चा आभूषण है। क्योंकि परिश्रम के द्वारा ही
मनुष्य अपने को पूर्ण बना सकता है। परिश्रम ही उसके जीवन में सौभाग्य, उत्कर्ष और
महानता लाने वाला है। जयशंकर प्रसाद जी ने कहा है कि -
जितने कष्ट
कंटकों में हैं, जिनका जीवन सुमन खिला,
गौरव-गंध उन्हें
उतना ही, यत्र तत्र सर्वत्र मिला।
भाग्यवाद : अकर्मण्यता
का सूचक : जिन लोगों ने परिश्रम का महत्व नहीं समझा; वह अभाव, गरीबी और दरिद्रता
का दुख भोगते रहे। जो लोग मात्र भाग्य को ही विकास का सहारा मानते हैं, वह भ्रम
में हैं। आलसी और अकर्मण्य व्यक्ति संत मलूकदास का यह दोहा उद्धृत करते हैं -
अजगर करे ना
चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए,
सबके दाता राम।।
मेहनत से जी
चुराने वाले दास मलूका के स्वर में स्वर मिलाकर भाग्य की दुहाई के गीत गा सकते हैं।
लेकिन यह नहीं सोचते कि जो चलता है, वही आगे बढ़ता है और मंजिल को प्राप्त करता है।
कहा भी गया है –
उद्यमेन ही सिद्धयन्ति,
कार्याणि न मनोरथैः।
ना की सुप्तस्य
सिंहस्य, प्रविशंति मुखे मृगाः। ।
अर्थात परिश्रम
से सभी कार्य सफल होते हैं। केवल कल्पना के महल बनाने से व्यक्ति अपने मनोरथ को
पूर्ण नहीं कर सकता। शक्ति और स्फूर्ति से संपन्न गुफा में सोया हुआ वनराज शिकार
प्राप्ति के ख्याली पुलाव पका रहे तो उसके पेट की अग्नि कभी भी शांत नहीं हो सकती।
सोया पुरुषार्थ फलता नहीं है। ऐसे में अकर्मण्य व आलसी व्यक्ति के लिए कहा गया है
कि –
सकल पदारथ एहि जग
माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं।।
अर्थात संसार में
सुख के सकल पदार्थ होते हुए भी कर्महीन लोग उसका उपभोग नहीं कर पाते। जो कर्म करता
है, फल उसे ही प्राप्त होता है और जीवन भी उसी का जगमगाता है। उसके जीवन उद्यान
में रंग-बिरंगे सफलता के सुमन खिलते हैं।
परिश्रम से जी
चुराना, आलस्य और प्रमोद में जीवन बिताने के समान बड़ा कोई पाप नहीं है। गांधी जी
का कहना है कि जो लोग अपने हिस्से का काम किए बिना ही भोजन पाते हैं, वह चोर हैं।
वास्तव में काहिली कायरों और दुर्बल जनों की शरण है। ऐसे आलसी मनुष्य में ना तो
आत्मविश्वास ही होता है और ना ही अपनी शक्ति पर भरोसा। किसी कार्य को करने में ना
तो उसे कोई उमंग होती है ना ही स्फूर्ति परिणाम स्वरुप पग-पग पर असफलता और निराशा
के कांटे उसके पैरों में चुभते हैं।
प्रकृति भी
परिश्रम का पाठ पढ़ाती है : प्रकृति के प्रांगण में झांक कर देखें तो चीटियां रात-दिन
अथक परिश्रम करती हुई नजर आती हैं। पक्षी दाने की खोज में अनंत आकाश में उड़ते
दिखाई देते हैं। हिरण आहार की खोज में वन-उपवन में कुलांचे भरते रहते हैं। समस्त
सृष्टि में श्रम का चक्र निरंतर चलता ही रहता है। जो लोग श्रम को त्याग कर आलस्य
का आश्रय लेते हैं, वह जीवन में कभी भी सफल नहीं होते हैं क्योंकि ईश्वर भी उनकी
सहायता नहीं करता।
कर्मवीर के आगे
पथ का, हर पत्थर साधक बनता है।
दीवारें भी दिशा
बतातीं, जब वह आगे को बढ़ता है।।
वस्तुतः परिश्रम
द्वारा प्राप्त हुई उपलब्धि से जो मानसिक संतोष व आत्मिक तृप्ति मिलती है, वह
निष्क्रिय व्यक्ति को कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। प्रकृति ने यह विधान बनाया है
कि बिना परिश्रम के खाए हुए अन्न का पाचन भी संभव नहीं। मनुष्य को विश्राम का आनंद
भी तभी प्राप्त होता है, जब उसने भरपूर परिश्रम किया हो। वस्तुत श्रम, उन्नति,
उत्साह, स्वास्थ्य, सफलता, शांति व आनंद का मूल आधार है।
शारीरिक और
मानसिक श्रम : परिश्रम चाहे शारीरिक हो या मानसिक दोनों ही श्रेष्ठ है। सत्य तो यह
है कि मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम कहीं अधिक श्रेयस्कर है। गांधी जी की
मान्यता है कि स्वस्थ, सुखी और उन्नत जीवन जीने के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य है।
शारीरिक श्रम प्रकृति का नियम है और इसकी अवहेलना निश्चय ही हमारे जीवन के लिए
बहुत ही दुखदाई सिद्ध होगी। परंतु यह बड़ी शर्म की बात है कि आज मानसिक श्रम की
अपेक्षा शारीरिक श्रम को नीची निगाहों से देखा जाता है। लोग अपना काम अपने हाथों
से करने में शर्म का अनुभव करते हैं।
भाग्य और
पुरुषार्थ : भाग्य और पुरुषार्थ जीवन के दो पहिए हैं। भाग्यवादी बनकर हाथ पर हाथ
रखकर बैठना मौत की निशानी है। परिश्रम के बल पर ही मनुष्य अपने बिगड़े भाग्य को
बदल सकता है। परिश्रम ने महा मरुस्थलों को हरे-भरे उद्यानों में बदल दिया और
मुरझाए जीवन में यौवन का वसंत खिला दिया। कवि ने इन भावों को कितनी सुंदर
अभिव्यक्ति दी है—
प्रकृति नहीं
डरकर झुकती कभी भाग्य के बल से।
सदा हारती वह
मनुष्य के उद्यम से श्रम जल से ।।
सफलता का रहस्य परिश्रम
: महापुरुष बनने का प्रथम सोपान परिश्रम ही है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए
हैं सभी कष्ट, सहिष्णुता और श्रम के कारण श्रद्धा, गौरव और यश के पात्र बने।
वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास आदि जन्म से महाकवि नहीं थे। उन्हें ठोकर लगी, ज्ञान-नेत्र
खुले और अनवरत परिश्रम से महाकवि बने। गांधीजी का सम्मान उनके परिश्रम एवं कष्ट-सहिष्णुता
के कारण ही है। इन सब ने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण श्रमरत रहकर बिताया। उसी का
परिणाम था कि वह सफलता के उच्च शिखर तक पहुंच सके। महान राजनेताओं, वैज्ञानिकों,
कवियों, साहित्यकारों और ऋषि-मुनियों की सफलता का एकमात्र रहस्य परिश्रम ही है।
इतिहास साक्षी है
कि भाग्य का आश्रय छोड़कर कर्म में तत्पर होने वाले लोगों ने इतिहास का निर्माण
किया है। समय-समय पर शासन किया है। कृष्ण यदि भाग्य के सहारे बैठे रहते, तो एक
ग्वाले का जीवन बिताकर ही काल-कवलित हो गए होते। नादिरशाह ईरान में जीवन पर्यंत भेड़ों
को ही चराता हुआ मर जाता। स्टालिन अपने वंश परंपरागत व्यवसाय (जूते बनाने) को करता
हुआ एक कुशल मोची बनता। गोर्की कूड़े-कचरे के खेत से चीथड़े ही बीनता रहता। बाबर समरकन्द
से भागकर हिंदूकुश पर्वत श्रेणियों में ही खो जाता। शेरशाह सूरी बिहार के गांव में
किसी किसान का हलवाहा होता हैदर अली सेना का एक सामान्य सिपाही बनता। प्रेमचंद एक
प्राथमिक पाठशाला के अध्यापक के रूप में अज्ञात रह जाते और लाल बहादुर शास्त्री के
लिए प्रधानमंत्री का पद एक सुहावना सपना ही बना रहता।
निश्चय ही
उन्होंने जो कुछ पाया वह सब-कुछ दृढ़ संकल्प शक्ति, साहस, धैर्य, अपने में विश्वास
और शौर्य के कारण ही पाया। उनकी सफलता के पीछे किसी भाग्य अथवा संयोग का हाथ न था।
दुष्यंत कुमार ने कहा भी है कि –
कौन कहता है कि
आसमां में सुराख नहीं होता।
एक पत्थर तो
तबीयत से उछालो यारो।।
उपसंहार : परिश्रमी
व्यक्ति राष्ट्र की बहुमूल्य पूंजी है। श्रम वह महान गुण है जिससे व्यक्ति का
विकास और राष्ट्र की उन्नति होती है। संसार में महान बनने और अमर होने के लिए
परिश्रमशीलता अनिवार्य है। श्रम से अपार आनंद मिलता है। महात्मा गांधी ने हमें श्रम
कि पूजा का पाठ पढ़ाया है। उन्होंने कहा – “श्रम से स्वावलंबी बनने का सौभाग्य
मिलता है। हम देश को श्रम और स्वाबलंबन से ही ऊंचा उठा सकते हैं।” श्रम की अद्भुत
शक्ति को देखकर ही नेपोलियन ने कहा था कि संसार में असंभव कोई काम नहीं असंभव शब्द
को तो केवल मूर्खों के शब्दकोष में ही ढूंढा जा सकता है।
आधुनिक युग
विज्ञान का युग है। प्रत्येक बात को तर्क की कसौटी पर कसा जा सकता है। भाग्य जैसी
काल्पनिक वस्तुओं से अब जनता का विश्वास उठता जा रहा है। वास्तव में भाग्य, श्रम
से अधिक कुछ भी नहीं। श्रम का ही दूसरा नाम भाग्य है। हमें इस बात का ध्यान रखना
चाहिए कि अपने भाग्य के विधाता हम स्वयं हैं। जब हम कर्म करेंगे तो समय आने पर
हमें उसका फल अवश्य ही मिलेगा। उसमें प्रकृति के नियमानुसार कुछ समय लगना
स्वाभाविक ही है। कबीरदास ने ठीक ही कहा है कि –
धीरे-धीरे रे मना,
धीरे सब कुछ होय।
माली सींचै सौ
घड़ा, ऋतु आए फल होय।।
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