सरदार वल्लभ भाई पटेल पर भाषण : सरदार वल्लभभाई पटेल का व्यक्तित्व बड़ा ही प्रभावशाली था - सुदृढ़ विशाल शरीर, कठोर मुख-मद्रा और शत्रु के प्रति ललकार भरी आँखें। वल्लभभाई उचित अवसर का सदुपयोग करना भली- भाँति जानते थे। वल्लभभाई ऊपर से जितने रूखे, निष्ठुर और कठोर प्रतीत होते थे अंदर से वे उतने ही सरल, कोमल तथा निराभिमानी थे। उनमें वे सभी गुण थे जो महान् राष्ट्र के नेता में होने आवश्यक हैं।
सरदार वल्लभ भाई पटेल पर भाषण
वल्लभभाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नाडियाड नामक जिले में हुआ था। उनके पिता श्री झवेरी भाई पटेल एक किसान थे। उनके पिता ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बुंदेलों के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी थी। वल्लभभाई के जीवन पर अपने माता-पिता की वीरता एवं देश-प्रेम की अमिट छाप पड़ी थी।
वल्लभभाई के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इसलिए वह दसवीं के बाद उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज में प्रवेश न पा सके। वह ‘मुख्तारी’ की परीक्षा उत्तीर्ण करके सन् 1900 में गोधरा में फौजदारी के मुकदमों की वकालत करने लगे। उन्हें इस कार्य मे काफी सफलता और प्रसिद्धि मिली।
जब एक बार गोधरा में प्लेग फैला तो उसमें उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई तब उनकी उम्र मात्र 33 वर्ष थी। फिर आजीवन उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया। फिर 1910 ई0 में वल्लभभाई बैरिस्टरी करने विलायत गए। तीन वर्ष बाद बैरिस्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण करके वह भारत आ गए और मुंबई में प्रैक्टिस आरंभ कर दी। फिर वह महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आए और देश-सेवा के रंग में पूरी तरह से रंग गए।
सन् 1916-17 के खेड़ा सत्याग्रह की सफलता ने उन्हें एक सच्चे नेता के रूप में उभारकर जनता के सामने प्रस्तुत कर दिया। गाँधीजी भी उनकी संगठन-शक्ति और कार्य-कुशलता का सिक्का मान गए। वल्लभभाई को सर्वाधिक प्रसिद्धि बारडोली सत्याग्रह से मिली। इसके पश्चात् वे केवल गुजरात के ही नहीं बल्कि पूरे देश के सरदार बन गए। इसी सत्याग्रह मे उन्होंने किसानों को संघर्ष करने की प्रेरणा दी थी।
15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिलने पर उन्हें गृह-विभाग और उप-प्रधानमंत्री बनाया गया। उन्हें गृह विभाग और रियासती विभाग सौंपे गए। उन्होंने अपनी कुशलता से थोड़े ही दिनों में भारत की लगभग 600 रियासतों का एकीकरण कर दिया और 219 छोटी रियासतों को विभन्न प्रदेशों में मिला दिया। हैदराबाद के निजाम ने जब इसमें आनाकानी की तो उन्होंने कठोर कदम उठाकर उसे भारत में मिलाने के लिए विवश कर दिया।
भारत का यह अमर सेनानी 15 सितंबर 1950 को ये दुनिया छोड़कर चला गया। भारत के इतिहास में उनका नाम सदा स्वर्ण अक्षरों में लिखा रहेगा। वे सचमुच लौह पूरूष थे और सरदार कहलाने के योग्य थे।
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