सिक्के की आत्मकथा : मैं एक रूपये का सिक्का हूँ। सदियों पूर्व मेरे पूर्वज शैव्य की संज्ञा से विभूषित किए जाते थे । उनकी हैसियत भी मुझसे बहुत ज्यादा थी। देश की आजादी से पहले तक के मेरे पूर्जों की देह चाँदी की होती थी और मेरे उन चाँदी के चमचमाते पूर्वजों की क्रय शक्ति अत्यधिक थी।
मैं एक रूपये का सिक्का हूँ। सदियों पूर्व मेरे पूर्वज शैव्य
की संज्ञा से विभूषित किए जाते थे । उनकी हैसियत भी मुझसे बहुत ज्यादा थी। देश की
आजादी से पहले तक के मेरे पूर्जों की देह चाँदी की होती थी और मेरे उन चाँदी के
चमचमाते पूर्वजों की क्रय शक्ति अत्यधिक थी। मेरा एक-एक पूर्वज एक-डेढ़ सेर घी या
एक मन चावल के मूल्य के बराबर ठहरता था। टका या टाका भी मेरा और मेरे पूर्वजों का
स्वजाति नाम है और कुछ क्षेत्रों में लोगों की जुबान पर डञा है । चाँदी के बाद
निकल ताँबा राँगा आदि से निर्मित सिक्कों की पीढ़ियाँ भी अब पुरानी पड़ चुकी हैं। आधुनिक
सिक्के विशुद्ध स्टील व अन्य धातुओं के किंचित मिश्रण-द्वारा निर्मित होते हैं।
मैं भी उन्ही में से एक हूँ।
अँगरेजों के जमानें में मेरे पूर्वजों का आकार शुद्धता तथा वजन
का सुनिश्चित पैमाना निर्धारित हुआ था जिससे कोई जालसाज मेरी नगल न कर पाए। भारतीय
दंड संहिता में नकली सिक्के निर्मित करना एक दंडनीय अपराध है। इसके तहत अपराधी को
कठोर दंड दिए जाने की व्यवस्था है।
मेरे जन्म की दुःख-भरी कथा संक्षेप में यह है कि मेरा यह स्टील
का चमचमाता रूपाकार सर्वप्रथम धरती के गर्भ में स्थित लौह –अयस्क-पिंडों में
समाहित था। खदानों से निकाल कर मुझे स्टील कारखाने में पहुँचा दिया गया। वहाँ
कुटाई-छनाई की यंत्रणादायक प्रक्रिया से गुजरने के बाद मैं कच्चे से पक्का यानी कि
स्टील हो गया।
अपना कठोर चमचमाता रूप देखकर मैं निहाल हो गया और यह सोचकर
संतुष्ट हुआ कि चलो कुटाई-पिटाई जो होनी थी सो हो गई पर मैं चमकदार और ताकतवर भी
तो हो गया। वहाँ से मुझे नासिक में ढली कारखाने में ढलने के लिए भेज दिया गया।
अपने इस वर्तमान रूप में लने के लिए मुझे धमनभट्टी में पिघलना पड़ा। फिर मेरा
रंग-रूप निखारने के लिए निकल दि धातुओं को भी मुझमें मिश्रित किया गया। खैर
पिघला-झुलसा तो जरूर लेकिन चमचमाता हुआ सिक्का बनकर रूपया भी तो कहलाया।
टकसाल से मुझे मेरे अनेक जुड़वाँ भाइयों के साथ बोरियों में
बंद करके रिजर्व बैंक में भैज दिया गया। कुछ दिनों के बाद फिर मुझे मुक्ति मिली और
मैं एक दुकानदार के गल् में जा पहुँचा। उस गल्ले में मुझे अपने कई भाई-बंधु मिले।
उनमें से कई घिस – पिटकर बदरँग हो चुके थे। मैं कभी अपने इन बदरंग हो चुके बंधुओं
की ओर दुःख-भरी चितवन से देखता था तो कभी अपनी चमचमाती काया को निहारता था। मेरी
मनोदशा बाँपकर मेरा एक उजड़ी सूरत वाला बंधु बोला- ऐसे क्या देख रहे हो भाई। यह तो
चार दिन की चाँदनी और फिर अँधेरी रात वाली बात है। मैं कुछ समझा नहीं और चुपचाप
सकी ओर ताकता रहा। इस पर उसने कहा- नहीं समझे न लेकिन चिंता न करो जल्दी से समझ
जाओगे। जब चलन में आ गए हो तो कब तक एक जगह पड़े-पड़े चमचमाते रहोगे? अरे चार-छह बार इस
हाथ से उस हाथ जाओगे लोगों की जेबों में और बटुओं में दूसरे भाइयों के साथ रगड़
खाओगे बच्चों के हाथ से छूटकर फर्श पर झन-झनाओगे तो कुझ ही अरसे में मेरी ही तरह
भद्दे और बदरंग हो जाओगे। उस भाई की ये बात सुनकर मैं कुछ सोचता-विचारता उससे पहले
ही दुकानदार ने मुझे निकालकर अपने एक गर्हक के हाथ में सौंप दिया और फिर मैं पहुँच
गया ग्राहक की जेब में।
मैं अब कोई तीन बरस का हो चुका हूँ। दो बार मुझे दो अलग-अलग
बच्चों की गुल्लक में रहने का मौका मिला। पहले बच्चे की गुल्लक में मैं पूरे ढाई
महीनों तक आराम फरमाता रहा तथा दूसरे बच्चे की गुल्लक में पंद्रह दिन। इसके अलावा
मैं कहीं भी चार-पाँच दिन से अधिक नहीं टिक सका।
अफसर कर्मचारी भिखमंगा मजदूर साहूकार सेठ पुजारी नेता बढ़ही
लुहार मंत्री संतरी मुल्ला तांत्रिक ओझा किस-किस का नाम लूँ? मैं हर किस्म हर
उम्र और हर लिंग के लोगों के पास रह आया हूँ। मंदिर के दान-पात्र में भी रहा हूँ
और दूकानदार के संदूक में भी। स्थान बदलतेःबदलते मैं ब अपनी स अंतहीन यात्रा का
अभ्यस्त हो गया हूँ
अब जब कभी अपनी काया निहारता हूँ तो अंतिम मुगल सम्राट बहादुर
शाह जफर का शेर याद आ जाता है किंतु अफसोस कि मैं खनखना तो सकता हूँ लेकिन गा नहीं
सकता। मालूम नहीं आप मुझे कब पने पास से कहाँ चलता कर दे पर आपने मुझ बदरंग हो
चुके सिक्के को गौर से देखा तो मैंने आपको हमदर्द समझकर पना किस्सा सुना दिया।
बहरहाल प शेर मुलाहिजा फरमाइए-मेरा रंग रूप उजड़ गया मेरा यार मुझसे बिछड़ गया।
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